Mere Ghar aana Jindagi - 23 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | मेरे घर आना ज़िंदगी - 23

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मेरे घर आना ज़िंदगी - 23


(23)

समीर के फाइनल एग्ज़ाम्स ठीक गए थे। इस साल उसकी पढ़ाई में जो व्यवधान आया था उसके बाद उसे संतोष था कि वह अच्छा कर पाया। उसने तय किया था कि अब वह खूब मन लगाकर पढ़ेगा। वह समझ गया था कि अगर उसे आगे चलकर अपने हिसाब से रहना है तो उसे पहले लोगों के बीच अपनी एक जगह बनानी होगी। इसका एक ही रास्ता उसके पास था। पढ़ लिखकर वह अपने पैरों पर खड़ा हो।
इन दिनों स्कूल बंद था। समीर अपना वक्त इंटरनेट पर बिताता था। वह ट्रांसजेंडर लोगों से संबंधित जितनी भी जानकारी उपलब्ध थी उसे पढ़ता था। नोटपैड पर आवश्यक नोट्स बनाता था। इसके अलावा वह सोशल मीडिया के अपने खास दोस्त अजित से चैट करता था। अजित से चैट करना उसे ना सिर्फ खुशी देता था बल्की हौसला भी देता था।
समीर अपने हिसाब से एक नई ज़िंदगी की तैयारी कर रहा था। पर उसे पता था कि बिना अपनी मम्मी को तैयार किए उसके लिए उसकी राह आसान नहीं होगी। जिस राह पर वह आगे बढ़ने की तैयारी कर रहा है उस पर कई मुश्किलें आएंगी। उनका सामना करने के लिए उसे अपनी मम्मी के सहयोग की ज़रूरत पड़ेगी। वह चाह रहा था कि अपने फैसले के बारे में वह अपनी मम्मी से बात करे।

अमृता कुछ समय पहले ही ऑफिस से लौटी थी। वह फ्रेश होकर बाहर आई तो समीर ने उसे चाय के साथ एक स्नैक सर्व किया। उसे खाकर अमृता ने कहा,
"बहुत टेस्टी है। कहाँ से लाए ?"
समीर ने मुस्कुरा कर कहा,
"मैंने बनाया है। मैंने एक शेफ का वीडियो देखा था। उसमें बताया गया था। आजकल छुट्टियां चल रही हैं तो मैंने सोचा बनाकर देखूँ।"
"तुम्हें सारा सामान मिल गया था।"
"किचन में ढूंढ़ लिया। सूजी नहीं थी। वह मैंने ऑनलाइन ऑर्डर करके मंगा ली थी।"
अमृता स्नैक का मज़ा लेने लगी। समीर अपनी बात कहने के लिए सही मौके का इंतज़ार कर रहा था। उसने बात शुरू करते हुए कहा,
"मम्मी इधर वक्त मिला है तो मैं आगे क्या करना है उसके बारे में सोच रहा हूँ।"
अमृता ने चाय पीते हुए कहा,
"तुमने तो फैशन डिज़ाइनर बनने के बारे में सोचा था। अब क्या सोच रहे हो ?"
"हाँ सोचा था मम्मी। अच्छी फील्ड है। लेकिन इधर मैंने कुछ और चीज़ों के बारे में भी पढ़ा है। इसलिए अभी कुछ पक्का नहीं है।"
"जल्दी किस बात की है। अभी तो टेंथ करना बाकी है। तब तक अपना मन बना लेना।"
समीर ने सोचा कि सीधे मुद्दे पर आना ही ठीक है। आखिर उसे बात तो करनी ही है। उसने कहा,
"मम्मी मैं करियर के बारे में बात नहीं कर रहा था। वह तो मैं तय कर लूँगा।"
उसकी इस बात से अमृता को भी आभास हो गया कि वह कौन सा विषय उठाना चाहता है। पर उसने अनजान बनते हुए कहा,
"तो फिर किस चीज़ पर विचार कर रहे हो ?"
समीर कुछ पल रुका। अपनी हिम्मत बटोर कर उसने कहा,
"मैं अपनी पहचान के बारे में बात कर रहा था। पहले भी मैं आपसे बता चुका हूँ कि मैं एक लड़की की तरह महसूस करता हूँ। मैं उसी तरह से रहना चाहता हूँ। मैं अपने आप को बदलना चाहता हूँ।"
समीर अपनी बात कहकर अमृता की तरफ देखने लगा। अमृता चुप थी। लेकिन उसके चेहरे पर परेशानी दिखाई पड़ रही थी। साफ ज़ाहिर था कि वह इस विषय को टाले रहना चाहती थी। पर आज समीर ने वह विषय उसके सामने रख दिया था। उसे चुप देखकर समीर ने कहा,
"मम्मी मुझे पता है कि यह आसन नहीं होगा। मुझे बहुत कुछ सहना पड़ेगा। पर मैंने भी तय कर लिया है कि पहले की तरह आत्महत्या की कोशिश नहीं करूँगा। अपने लिए लड़ाई करूँगा। मुझे आपकी बहुत ज़रूरत महसूस होगी।"
अमृता समीर की बात सुनकर परेशान हो गई थी। उसने कहा,
"बेटा इधर तुम कितनी अच्छी बातें कर रहे थे। कहते थे कि पढ़ लिखकर आगे बढ़ूँगा। अपनी मेहनत से कुछ बनकर दिखाऊँगा। अब ऐसी बातें करने लगे। तुम जानते हो कि जो तुम चाहते हो उसके लिए बहुत कुछ सहना पड़ेगा।"
"जानता हूंँ मम्मी। पर मेरे लिए जितना अपने पैरों पर खड़ा होना ज़रूरी है उतना ही अपनी सही पहचान पाना।"
"क्या बार बार सही पहचान की बात कर रहे हो। तुम्हारी पहचान वही है जैसे तुम पैदा हुए हो। तुम एक लड़के हो और वही तुम्हारी पहचान है। अभी तक मैं सोचती थी कि तुम खुद इस बात को समझ जाओगे। लेकिन तुम उसे पकड़ कर बैठे हो।"
जो कुछ अमृता ने कहा वह समीर को चुभ रहा था। वह हैरान था कि उसकी मम्मी उसे समझ नहीं रही हैं। अमृता ने आगे कहा,
"मेरी बात मानो यह सब अपने दिमाग से निकाल दो। जो है उसे स्वीकार करो। बेकार का फितूर लेकर आगे बढ़ोगे तो बहुत दिक्कत होगी।"
अमृता ने उसकी बात को बेकार का फितूर कह दिया था। इससे समीर तड़प उठा। उसने कहा,
"मम्मी आप जिसे मेरे दिमाग का फितूर कह रही हैं वह मेरे लिए वास्तविकता है। मैं वास्तविकता को स्वीकार कर रहा हूँ पर आप नहीं करना चाहती हैं। मैं इस तरह से नहीं रह पाऊँगा। घुट घुट कर मर जाऊँगा। आप इसे समझिए।"
"मैं क्या समझूँ बेटा। तुम समझो। जो तुम करना चाहते हो वह लोगों को स्वीकार नहीं होगा। मान लो तुमने लड़ झगड़ कर अपने मन का कर भी लिया तो क्या मिलेगा ? ज़िंदगी भर का अपमान और उपहास। इसलिए एकबार ठीक तरह से सोचकर देखो। अपने मन को मनाओ। एकबार मन से स्वीकार कर लोगे तो कोई दिक्कत नहीं होगी।"
"मम्मी आप जो कह रही हैं उसकी मैंने बहुत कोशिश की है। पर हर बार यही लगता है जैसे कि मैं पिंजरे में कैद हूँ। जहाँ मेरी पहचान मुझसे छीन ली गई है।"
समीर रुका। अपनी मम्मी को समझाते हुए बोला,
"मम्मी मैं अकेला नहीं हूँ। मेरी तरह बहुत से लोग हैं जो अपनी जन्म की पहचान को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। उन्होंने अपनी लड़ाई लड़ी। ना सिर्फ अपनी पहचान को पाया बल्की समाज में अपनी एक जगह भी बनाई। मैं भी वही करना चाहता हूँ। बस आपका साथ चाहिए।"
अमृता की आँखों से आंसू बह रहे थे। वह अपने भीतर चल रहे द्वंद्व से परेशान थी। उसने कहा,
"तुमने तो देखा ही है कि मेरी ज़िंदगी में भी मैंने लड़ाई ही लड़ी है। किसी का साथ नहीं मिला। बड़ी मुश्किल से आज इस स्थिति में आई हूँ कि इज्ज़त से रह सकूँ। तुम्हें अच्छी परवरिश देकर आगे बढ़ा सकूँ। अब एक नई लड़ाई लड़ने की मुझमें हिम्मत नहीं है। मुझे उसमें मत डालो। ना मैं समाज से लड़ पाऊँगी और ना ही तुम्हें छोड़ पाऊँगी। पिसकर रह जाऊँगी।"
यह कहकर अमृता अपने कमरे में चली गई। समीर एक बुत की तरह बैठा रहा।

अपने कमरे में आकर अमृता फूट फूटकर रोने लगी। वह जानती थी कि उसने जो कुछ भी कहा है उससे समीर को बहुत तकलीफ पहुँची होगी। वह उससे बहुत उम्मीद लगाए था। लेकिन अमृता खुद को उसकी बात से सहमत नहीं कर पा रही थी। उसे लगता था कि यह लड़ाई शुरू करके समीर अपनी ज़िंदगी को खराब करेगा। इसलिए अच्छा यही होगा कि वह समझौता कर ले। कुछ दिनों में उसे आदत पड़ जाएगी।
दरअसल वह समीर के लिए परेशान थी। उसे लग रहा था कि अभी तो वह जोश में आगे बढ़ जाएगा। लेकिन जब समाज पूरी क्रूरता के साथ उसे दबाने की कोशिश करेगा तब वह सह नहीं पाएगा। ऐसे में हो सकता है कि हारकर वह फिर आत्महत्या करने की कोशिश करे। इसलिए उसने समीर का साथ देने से साफ इंकार कर दिया था।

अमृता ने कह दिया था कि समीर की लड़ाई में शामिल होने की उसकी हिम्मत नहीं है। जबकी समीर को उसके सहयोग की ज़रूरत थी। वह अपने कमरे में लेटा सोच रहा था कि अब क्या करेगा। अमृता ने कहा था कि वह अपने मन को इस बात के लिए तैयार कर ले कि वह जिस रूप में पैदा हुआ है वही उसकी पहचान है। एकबार दिमाग यह मान लेगा तो सब ठीक हो जाएगा। पर वह जानता था कि ऐसा संभव नहीं है। उसने अपने आप को इस बात के लिए मनाने की बहुत कोशिश की थी। पर सफल नहीं हो पाया था।
जब वह काउंसिलिंग के लिए दीपक के पास जाता था तब इस विषय में भी उसकी बहुत बात हुई थी। दीपक ने अलग अलग तरह से उससे इस बारे में बात की थी। तब उसे स्पष्ट हो गया था कि जो वह सोचता है वही वास्तविकता है। उसे नकार कर वह अपने आप को खो देगा। तबसे ही उसने तय किया था कि वह अपनी पहचान पाकर रहेगा।
उसके जीवन में उसका एक ही संबल थी उसकी मम्मी। पर इस मामले में वह उसके साथ आने को तैयार नहीं थीं। वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे। वह किसी को अपनी समस्या बताना चाहता था। वह अजित को मैसेज करने की सोच रहा था तभी उसे एक नाम याद आया। शोभा मंडल एक लेखिका और एक्टिविस्ट थीं। उनका एक एनजीओ था। जिसके माध्यम से शोभा ट्रांसजेंडर लोगों के लिए काम करती थीं। समीर ने एक आर्टिकल में उनके बारे में पढ़ा था। उस आर्टिकल में उनके एनजीओ का पता और ईमेल आईडी थी। समीर ने अपने नोटपैड में पता और ईमेल आईडी नोट कर ली थी।
समीर उठा। उसने अपना लैपटॉप खोला। नोटपैड से ईमेल आईडी लेकर एनजीओ को एक ईमेल लिखा। उस ईमेल में उसने अपनी पूरी बात समझा कर लिखी। एकबार उसे अच्छी तरह से पढ़कर सेंड कर दिया।