Mere Ghar aana Jindagi - 22 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | मेरे घर आना ज़िंदगी - 22

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मेरे घर आना ज़िंदगी - 22


(22)

मकरंद बेडरूम में गया तो नंदिता अपने हाथ से अपनी आँखों को ढके हुए लेटी थी। मकरंद ने उससे कहा,
"उठो नंदिता। मुझे तुमसे कुछ बात करनी है।"
नंदिता उठकर बैठ गई। उसकी आँखें नम थीं। मकरंद उसके पास बैठ गया। उसने अपने हाथ से उसके आंसू पोंछे। उसके बाद बोला,
"तुमने कहा कि मैं नहीं समझूँगा। तुम्हारे ऐसा कहने की क्या वजह है।"
नंदिता ने कह तो दिया था पर उसके बाद ही उसे अपनी गलती का एहसास हो गया था। इसलिए वह चुपचाप उठकर बेडरूम में आ गई थी। उसने कहा,
"सॉरी मकरंद.....मेरे मुंह से निकल गया।"
"नंदिता कोई भी बात बस ऐसे ही मुंह से नहीं निकलती है जब तक वह मन में ना हो। तुम्हारे मन में ऐसी बात थी कि मेरा कोई परिवार नहीं है। इसलिए मैं रिश्तों को समझ नहीं सकता हूँ। तुम्हारे पापा के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर रहा हूँ। आज वही बात तुम्हारे मुंह से निकल गई।"
मकरंद ने नंदिता की तरफ देखा। वह चुपचाप नज़रें झुकाए बैठी थी। मकरंद ने आगे कहा,
"तुम्हारी बात से मुझे बहुत ठेस पहुँची है। भले ही मेरे मम्मी पापा नहीं थे। मैं दूसरे के घर में पला हूँ। पर रिश्तों की अहमियत मुझे तुमसे अधिक मालूम है। रिश्तों को समझता था तभी तो तुमसे प्यार किया। शादी करके घर बसाया। तुमने भी इस बात को महसूस किया होगा। तभी तो मेरे लिए अपने मम्मी पापा की मर्ज़ी के खिलाफ गई थीं। आज तुमको यह लगने लगा कि मैं रिश्तों को समझने के लायक नहीं हूँ।"
नंदिता ने कहा,
"मकरंद मैं मान रही हूँ कि मुझसे गलती हो गई। मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था।"
"भले ही तुम ज़ुबान पर ना लातीं पर तुम्हारे मन में तो यही बात थी। मेरा कहना तो यही है कि तुम्हारे मन में यह बात आई क्यों ?"
नंदिता कुछ देर चुप रही। उसके बाद उसने कहा,
"मैं यह नहीं कह रही हूँ कि तुम रिश्तों को समझ नहीं रहे हो। पर कुछ तो है कि तुम इतनी सी बात नहीं समझ पा रहे हो कि मम्मी पापा को हमारी ज़रूरत है। आज पापा का पैर मुड़ा तो मम्मी घबरा गई थीं। उन्होंने मुझे फोन किया। मैं ऑफिस से लौटी ही थी। पर उनकी परेशानी जानकर मैं फौरन घर से निकल गई। जब वहाँ पहुँची तो मम्मी पापा को संभालने की कोशिश कर रही थीं। मुझे देखकर उन्हें बहुत तसल्ली मिली थी। अगर हम लोग उनके पास रहेंगे तो उन्हें कितना अच्छा लगेगा।"
"मैं समझता हूँ कि हम दोनों की ज़िम्मेदारी है कि उनका खयाल रखें। लेकिन उसके लिए उनके पास जाकर रहना ज़रूरी तो नहीं है। हम अपने घर में रहते हुए भी उनका खयाल रख सकते हैं।"
नंदिता ने बात खत्म करते हुए कहा,
"इस बहस को आगे बढ़ाने का कोई मतलब नहीं है। तुमने जो सोचा है वह सही है।"
वह उठी और वॉशरूम में चली गई। मकरंद को उसका इस तरह पेश आना अच्छा नहीं लगा था। वह सोच रहा था कि इस मुद्दे का निपटारा कैसे हो। मकरंद अपने विचारों में डूबा था जब नंदिता का फोन बजा। स्क्रीन पर मम्मी लिखकर आ रहा था। पहले तो उसने सोचा कि ना उठाए। बाद में उसको लगा कि कोई गंभीर बात ना हो। इसलिए उसने फोन उठा लिया। नंदिता की मम्मी ने उसकी आवाज़ सुनकर नंदिता के बारे में पूछा। मकरंद ने बताया कि वह वॉशरूम में है। अगर कोई बात है तो उससे कह दें। उसी समय नंदिता वॉशरूम से बाहर आ गई। मकरंद उसे फोन पकड़ा कर वहाँ से चला गया।
करीब दस मिनट के बाद नंदिता लिविंग रूम में आई। उसने कहा कि पापा की इच्छा है कि अगर उनके साथ रहने को तैयार नहीं हो तो कम से कम कुछ दिनों के लिए आ जाओ। बात बताकर नंदिता ने कहा,
"अभी तो मैंने कह दिया है कि तुमसे पूछकर बताती हूँ। तुम जो चाहो फैसला लो।"
मकरंद ने कहा,
"उनसे कह दो हम दोनों आ रहे हैं।"
नंदिता खुश हो गई। कुछ दिन अपने मम्मी पापा के पास रहने की तैयारी कर वह मकरंद के साथ चली गई।

इधर योगेश की तबीयत ठीक नहीं लग रही थी। इसलिए अभी कुछ देर पहले वह सुदर्शन के साथ डॉक्टर को दिखाकर लौटे थे। डॉक्टर ने कुछ दवाएं लिखीं और हिदायत दी कि वह अधिक से अधिक आराम करें। खाने पीने का ध्यान रखें। सुदर्शन ने लौटते समय दवाएं भी दिलवा दी थीं। अपने घर जाते हुए वह बोला,
"अंकल आप अपना खयाल रखिएगा। अगर कोई ज़रूरत हो तो मुझे बुला लीजिएगा।"

योगेश ने कहा कि वह अपना खयाल रखेंगे। वह परेशान ना हो। सुदर्शन के जाने के बाद उन्होंने हेल्पर से पूछा,
"उर्मिला ठीक है। कोई दिक्कत तो नहीं आई।"
"नहीं सर....मैडम ठीक हैं। मैंने उन्हें खाना खिला दिया था। अंदर कमरे में आराम कर रही हैं।"
योगेश कमरे में गए तो उर्मिला बिस्तर पर बैठी थीं। योगेश उनके पास जाकर बैठ गए। उन्होंने कहा,
"उर्मिला अब शरीर टूट गया है। लगता है अब अधिक दिन तुम्हारे साथ नहीं रह पाऊँगा। सोचता हूँ तुम्हें संस्था की देखरेख में छोड़ दूँ। कम से कम निश्चिंत होकर आँखें बंद कर पाऊँगा।"
उर्मिला ने एक उचटती सी नज़र उन पर डाली फिर दूसरी तरफ देखने लगीं। वह जानते थे कि जो कुछ भी वह उर्मिला से कहते हैं उसे वह समझ नहीं पाती हैं। लेकिन अपने दिल को हल्का करने के लिए उनसे अपने मन की बात कहते रहते थे। उन्होंने उर्मिला के सर पर हाथ फेरा। उसके बाद बाहर आ गए। उन्होंने लंच नहीं किया था। लंच करके दवाइयां लेनी थीं। हेल्पर ने उन्हें उनकी प्लेट लगाकर दी। वह खाना खाने लगे।
खाना खाते हुए वह बीते समय को याद करने लगे। उर्मिला बड़े प्यार से उन्हें खाना खिलाती थीं। अक्सर उनके मन का कुछ ना कुछ बनाती रहती थीं। जब वह खाते तो चाहती थीं कि योगेश उनकी तारीफ करें। शुरू शुरू में कई बार ऐसा हुआ था कि उन्हें चीज़ अच्छी भी लगी। उन्होंने मन से खाई भी मगर तारीफ नहीं की। ऐसा होने पर वह नाराज़ हो जाती थीं। उसके बाद तो योगेश ध्यान रखते थे कि उनकी बनाई चीज़ की तारीफ करना ना भूलें।
योगेश पुराने दिनों को याद करते हुए खाना खा रहे थे तभी उर्मिला बेडरूम से निकल कर आईं। उनके पास आकर बोलीं,
"विशाल दिल्ली के कॉलेज में पढ़ने जा रहा है। उसे कुछ नए कपड़े दिला दीजिए। अभी स्कूल में तो यूनीफॉर्म पहननी पड़ती थी। पर कॉलेज में तो कुछ अच्छे कपड़े पहन कर जाना पड़ेगा।"
योगेश कुछ देर उनके चेहरे को देखते रहे। वह सोच रहे थे कि उर्मिला की बीमारी ने एक तरह से उसके लिए अच्छा भी किया है। वह अतीत में जी रही है। अगर वर्तमान की सुध होती तो अपने जवान बेटे की मौत के सदमे में घुटती रहती। उन्होंने उर्मिला का हाथ पकड़ कर उन्हें अपने बगल वाली कुर्सी पर बैठा लिया।‌ लेकिन इतनी देर में वह विशाल वाली बात भूल गई थीं। वह उठीं और वापस कमरे में चली गईं।

नताशा के घर में रहते मकरंद को छह दिन हो गए थे। इस बीच उसे नंदिता के मम्मी पापा के व्यवहार से कोई शिक़ायत नहीं हुई थी। उसे यहाँ ठीक लग रहा था। आज संडे था। उसे और नंदिता को ऑफिस नहीं जाना था। मकरंद अपने कमरे में बैठा था। नंदिता अपनी मम्मी के साथ स्पेशल संडे ब्रंच की तैयारी कर रही थी। उसके कमरे के दरवाज़े पर दस्तक हुई। उसने देखा कि नंदिता के पापा दरवाज़े पर खड़े हैं। वह उठकर उनके पास जाकर बोला,
"आप बाहर क्यों खड़े हैं। अंदर आ जाइए।"
नंदिता के पापा ने कहा,
"मैं कहने आया था कि अंदर क्यों बैठे हो। मेरे साथ बाहर लॉन में बैठो। बड़ा अच्छा मौसम है।"
मकरंद उनके साथ बाहर लॉन में जाकर बैठ गया। बातचीत बढ़ाने के लिए उसने कहा,
"मम्मी और नंदिता किचन में कुछ स्पेशल बना रही हैं।"
"हाँ आज मेरी और नंदिता की मनपसंद आलू की कचौड़ियां बन रही हैं।"
"पर डॉक्टर ने तो तला भुना खाने को मना किया है।"
नंदिता के पापा हंसकर बोले,
"मना तो किया है। लेकिन कभी कभार भी आदमी अपने मन का ना खाए तो फायदा क्या है।"
मकरंद कुछ नहीं बोला। नंदिता के पापा ने कहा,
"हमारे साथ रहकर कैसा लग रहा है ?"
मकरंद समझ गया कि वह क्या बात करना चाहते हैं। उसने कहा,
"अच्छा लग रहा है।"
"तो फिर यहीं आकर क्यों नहीं रहते हो। सारा परिवार एकसाथ हंसी खुशी रहेगा। अच्छा लगेगा।"
मकरंद कुछ कहता तब तक नंदिता ने आकर कहा,
"संडे ब्रंच इज़ रेडी। चलकर खाइए।"
उसके पापा ने कहा,
"यहाँ कितना अच्छा लग रहा है। यहीं खाते हैं। जैसे पहले हम तीनों यहाँ बैठकर खाते थे। मकरंद को भी अच्छा लगेगा।"
नंदिता को विचार अच्छा लगा। उसने कहा,
"तो मैं बड़ी वाली फोल्डिंग टेबल लेकर आती हूँ।"
उसने मकरंद को मदद करने के लिए कहा। वह उसके साथ अंदर चला गया। कुछ देर में लॉन में टेबल सज गई थी। चारों लोग बैठकर संडे ब्रंच का मज़ा ले रहे थे। मकरंद को भी इस तरह हंसी मज़ाक के बीच खाते हुए अच्छा लग रहा था। उसके लिए इस तरह का माहौल एक नया अनुभव था। उसके मौसा मौसी के घर पर जो माहौल था वह इतना खुला हुआ नहीं था।
वह सोच रहा था कि नंदिता के पापा का प्रस्ताव मानने में कोई बुराई नहीं है।