Mere Ghar aana Jindagi - 21 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | मेरे घर आना ज़िंदगी - 21

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मेरे घर आना ज़िंदगी - 21


(21)

फाइनल एग्ज़ाम्स में अब बस एक हफ्ता ही बचा था। समीर पूरी लगन के साथ एग्ज़ाम की तैयारी कर रहा था। वह चाहता था कि ना सिर्फ वह पास हो बल्कि अच्छा रिज़ल्ट लाए। उस दिन मिसेज़ सेन ने जिस तरह सबके सामने उसकी तारीफ की थी उससे क्लास के लड़कों में उसके लिए कुछ बदलाव आया था। पहले क्लासमेट्स उसे देखकर निगाहें फेर लेते थे। अब अगर उससे नज़र मिलती थी तो मुस्कुरा देते थे। यह छोटा सा बदलाव था। लेकिन इसने समीर को बहुत हिम्मत दी थी। वह समझ गया था कि लोगों की तारीफ पाने के लिए उसे कुछ करके दिखाना होगा।
रात के सवा ग्यारह बजे थे। समीर अभी भी पढ़ाई कर रहा था। अमृता ने देखा कि उसके कमरे का दरवाज़ा खुला है। वह अंदर चली गई। उसने समीर से कहा,
"बेटा अब सो जाओ। सुबह उठकर स्कूल भी तो जाना है।"
समीर ने अपनी किताब से नज़र हटाकर उसकी तरफ देखा। वह‌ बोला,
"मम्मी अभी कुछ देर और पढ़ना है। एग्ज़ाम में अब बस एक‌ हफ्ता बचा है।‌ मैं चाहता हूँ कि अच्छा रिज़ल्ट लाऊँ।"
"ठीक है बेटा पर ध्यान रखो कहीं तबीयत खराब ना हो जाए। कल भी तुम देर तक जगे थे और सुबह जल्दी उठ गए थे।"
"मम्मी तबीयत खराब नहीं होगी। मैं ध्यान रखूँगा। मुझे बस अच्छे नंबर लाकर दिखाना है।"
उसकी लगन देखकर अमृता को बहुत अच्छा लगा। उसने कहा,
"तुम्हारे लिए दूध ले आऊँ। तुमने जल्दी खाना खा लिया था। भूख लगी होगी।"
"मम्मी आप जाकर इत्मीनान से सो जाइए। अगर मुझे कुछ चाहिए होगा तो अपने आप ले लूँगा।"
अमृता ने जाते हुए कहा,
"ठीक है....पर वक्त का खयाल रखना।"

अपने कमरे में बैठी अमृता बहुत संतुष्ट थी। समीर में इधर जो बदलाव आया था वह दिल को सुकून पहुँचाने वाला था। कुछ महीने पहले जो समीर यह कह रहा था कि उसे बचाया क्यों ? मर क्यों नहीं जाने दिया ? जि‌सका आत्मविश्वास लगभग खत्म हो चुका था। वह आज कुछ करके दिखाने की बात कर रहा था। अमृता के लिए यह एक सुखद आश्चर्य था। उसने मन ही मन भगवान को इसके लिए धन्यवाद दिया।
समीर को लेकर उसकी जान पहचान के लोगों की राय अच्छी नहीं थी। उनका मानना था कि वह किसी लायक नहीं है। दो साल पहले वह अपने मायके अपने भतीजे की बर्थडे में गई थी। तब बातों बातों में उसकी भाभी ने ताना मारते हुए कहा था कि उसकी किस्मत बहुत खराब है। पति से बनी नहीं। उसने छोड़ दिया। एक बेटा है जिससे कोई उम्मीद की नहीं जा सकती है। वह तो अभी तक यही नहीं समझ पाया कि लड़का है या लड़की। उस दिन अमृता को बहुत बुरा लगा था। वह कुछ बोल नहीं पाई थी। क्योंकी एकबार फिर समीर ने ऐसा कर दिया था जिससे सबको हंसने का मौका मिल गया था।
पार्टी में समीर ने लड़कियों वाले गाने पर डांस किया था। वहाँ आए सभी मेहमान हंस रहे थे। अमृता को समीर का इस तरह नाचना अच्छा नहीं लग रहा था। उसने समीर को बीच में ही रोक दिया और घर चलने के लिए कहने लगी। मौका देखकर उसकी भाभी भी ताना मारने से नहीं चूकी। उसकी बड़ी बहन ने भी बहुत कुछ कहा था।
उस दिन घर आकर उसने समीर को इस तरह नाचने के लिए बहुत डांटा था। तब समीर ने रोते हुए कहा था कि वह क्यों अपने मन की बात नहीं कर सकता है। उसे वह गाना अच्छा लगता है इसलिए उस पर नाच रहा था। अमृता ने उसे समझाया था कि समाज में कुछ चीजें लड़के और लड़कियों के लिए अलग अलग हैं‌। वह एक लड़का है। लड़कियों वाली हरकतें करना उसके लिए ठीक नहीं है। पहले छोटा था तब सब उसका बचपना समझते थे। अब वह बड़ा हो गया है। अब ऐसी हरकतें करने से समाज में मज़ाक बनेगा।
समीर ने कुछ सोचने के बाद कहा था कि उसे कभी नहीं लगा कि वह कुछ गलत कर रहा है। उसे वही चीजें अच्छी लगती हैं जो लड़कियों के लिए हैं। उसे लड़कियों की तरह रहना ही अच्छा लगता है। तब अमृता ने उससे कहा था कि वह गलत सोचता है। उसे अपने आप को बदलना होगा। नहीं तो ज़िंदगी बहुत मुश्किल हो जाएगी। उसकी बात मानकर उसने खुद को बदलने की कोशिश की थी। पर कुछ ना कुछ ऐसा कर बैठता था जिससे लोगों को कहने का मौका मिल जाता था।
समीर को इधर बहुत कुछ सहना पड़ा था। जिसने उसके आत्मविश्वास को छीन लिया था। उसका वह आत्मविश्वास अब वापस आ रहा था। अमृता खुश थी। लेकिन समीर ने कुछ दिन पहले उसे बातों बातों में आगे वह क्या करने वाला है बताया था। वह अपना जीवन उसी तरह बिताना चाहता था जैसा उसे अच्छा लगता था। इसका अर्थ था कि उसे परवाह नहीं थी कि लोग क्या कहेंगे। इस बात से अमृता इतनी सहज नहीं थी। वह समीर को प्यार करती थी। उसे खुश देखना चाहती थी। लेकिन वह समाज की अनदेखी नहीं कर सकती थी।
उसके मन में अब दूसरी बात घूमने लगी थी। अगर समीर अपने मन के अनुसार चला तो उसका रुख क्या होगा। क्या वह आसानी से अपने बेटे को एक लड़की के रूप में अपना पाएगी। लोगों के उपहास और अपमान की अनदेखी करके समीर का साथ दे पाएगी। वह बार बार अपने मन को टटोल रही थी। पर हर बार एक ही जवाब आ रहा था कि उसके लिए खुद समीर को उस रूप में स्वीकार करना संभव नहीं होगा। यह सोचकर उसका मन डूब रहा था। उसने मन ही मन ईश्वर से कहा कि उसे ऐसी दुविधा में क्यों डाला है। क्या उसे एक सीधी और खुशहाल ज़िंदगी जीने का अधिकार नहीं है।

मकरंद ने एकबार फिर नए सिरे से नंदिता के पापा के प्रस्ताव पर विचार किया था। अभी भी उसे ऐसा नहीं लग रहा था कि उसके सोचने में कोई कमी है। नंदिता की बात उसे ठीक नहीं लगती थी कि वह अपने अहम को सामने ला रहा है। लेकिन नंदिता की बातों से स्पष्ट था कि वह अपने मम्मी पापा के घर जाकर रहना चाहती है।
जब वह ऑफिस में था तब फ्लैट वाले ग्रुप में मैसेज आया था कि आज सब लोग एकसाथ बिल्डर के ऑफिस जाकर अपनी दरख्वास्त देंगे। शाम पाँच बजे का वक्त तय हुआ था। इसलिए वह ऑफिस से जल्दी निकल कर वहीं पहुँच गया था। दो लोगों को छोड़कर बाकी सब आए थे। पांडे जी उन सबके मुखिया थे। सबने बिल्डर से मिलकर उसके सामने अपनी बात रखी। उनका कहना था कि जो भी झगड़ा है उसे जल्दी से निपटा कर कंस्ट्रक्शन का काम आगे बढ़ाया जाए। बिल्डर ने जल्दी ही मामले को निपटाने का आश्वासन दिया था।
मकरंद जब घर लौटा तो पाया कि नंदिता घर पर नहीं है। उसके पास अपनी चाभी भी नहीं थी। उसने नंदिता को फोन किया। नंदिता ने बताया कि उसके पापा को चोट लग गई थी। इसलिए वह उनके पास आई है। उसने चाभी बगल में समीर को दे दी है। उससे चाभी ले ले। उसे आने में देर होगी। मकरंद ने बगल वाले फ्लैट की घंटी बजाई। समीर ने फ्लैट का दरवाज़ा खोला। मकरंद ने कहा,
"नंदिता दीदी तुम्हें चाभी दे गई थीं।"
समीर अंदर गया और चाभी लाकर उसे दे दी। मकरंद अपने फ्लैट का दरवाज़ा खोलकर अंदर चला गया।
फ्रेश होने के बाद मकरंद ने अपने लिए चाय बनाई। चाय पीते हुए वह सोच रहा था कि नंदिता के पापा को चोट कैसे लग गई। नंदिता देर से आने की बात कर रही थी। कहीं कोई सीरियस बात तो नहीं है। उसने एकबार फिर नंदिता को फोन मिलाया।
नंदिता ने उसे बताया कि उसके पापा का पैर चलते हुए मुड़ गया था। उसकी वजह से मोच आ गई है। मम्मी के लिए अकेले संभालना मुश्किल होता। इसलिए वह यहाँ आ गई। उसने डॉक्टर को दिखा दिया है। उन्होंने दवाइयां लिख दी हैं। कोई परेशानी वाली बात नहीं है। वह कुछ देर में घर लौट आएगी।
एक घंटे बाद नंदिता लौटकर‌ आई तो उसने बताया कि अब उसके पापा का दर्द कम था। वह आराम कर रहे थे। इसलिए वह चली आई। वह बहुत दुखी मालूम पड़ रही थी। उसे दुखी देखकर मकरंद ने कहा,
"तुम कह रही थी कि परेशानी की कोई बात नहीं है। फिर इतनी दुखी क्यों लग रही हो ?"
नंदिता ने कहा,
"परेशानी की ऐसे तो कोई बात नहीं है। पर जब मैंने चलने की बात कही तो पापा उदास हो गए थे। उनका चेहरा याद करके दुखी हो रही हूँ।"
मकरंद ने उसे तसल्ली देने की कोशिश की। लेकिन नंदिता वैसे ही उदास थी। उसकी आँखों में आंसू थे। उन्हें देखकर मकरंद ने कहा,
"ऐसा था तो तुम उनके पास रुक जातीं। मुझे फोन कर देतीं।"
नंदिता ने अपने आंसू पोंछकर कहा,
"आज ना आती तो कल आना पड़ता। वहाँ रह तो ना पाती। कैसे दिल पर पत्थर रखकर आई हूँ मैं ही जानती हूँ। पर तुम नहीं समझोगे।"
यह कहकर नंदिता बेडरूम में जाकर लेट गई। उसकी आखिरी बात मकरंद को चुभ गई। वह वहीं बैठकर उसकी बात पर विचार करने लगा। उसे लगा कि जैसे नंदिता कहना चाहती हो कि तुम्हारे मम्मी पापा नहीं हैं इसलिए तुम नहीं समझ सकते। पहली बार नंदिता ने उसे इस बात का एहसास कराया था कि उसका कोई परिवार नहीं है। इसलिए रिश्तों और उनसे जुड़ी भावनाओं को वह समझ नहीं सकता है।
जबकी उसके पापा की चोट के बारे में सुनकर वह परेशान हो गया था। उसने उनका हालचाल लिया था। पर नंदिता से लौटकर आने को नहीं कहा था।
नंदिता ने उसका दिल दुखाया था। वह इस बारे में नंदिता से बात करना चाहता था।