Chakra - 10 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | चक्र - 10

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चक्र - 10

चक्र (भाग 10)

कार्यकाले निष्ठुरा

मैं जाग चुका था, और फिर वह भी जागी तो नहा-धोकर वहां पहुंचे, जहां के लिए आये थे। मित्र ने अच्छा सत्कार किया। उन्होंने तो मुझे को-गाइड बनने का भी सम्मान दे दिया। लता पर रीझते यह भी कहा, "तुम्हें उपकार मानना चाहिए, इस छात्रा के कारण आज हमारी यारी रिन्यू हो गई। इसे उचित पुरस्कार देना," वे मेरी आंखों में देखते, अपने चुसे हुए से गालों से हँसे जो दाढ़ों में चिपक कर रह गए थे।

उसके बाद वे डिपार्टमेंट के काम में लग गए। एचओडी जो ठहरे। हमलोग यूनिवर्सिटी सरीखा वह विशाल कॉलेज देखने चले गए। लंच ब्रेक में भी जानबूझकर न लौटे। केंटीन में छिटपुट नाश्ता कर चाय पी ली। उन्होंने कहा था, बुलवा लेंगे, सो जब बुलवाया, तभी आये। बैठते ही वे लता की ओर मुड़कर बोले, "ठीक है, ’फैमिली प्लानिंग का जनपद की आर्थिैक दशा पर प्रभाव- एक तुलनात्मक अध्ययन’ टाॅपिक पर सिनाॅप्सिस बना लाओ। देखें तुम्हारी काबिलियत!"

लता एक नई लड़की। कुछ कर गुजरने के जोशो-खरोश से लबरेज। उसके चेहरे पर खुशी के बाजे बज गए।

प्रोफेसर मुझे ताकीद करते हुए बोले, "ऐ राजेश! अभी तुम कलम न लगाना.... नहीं तो तुम जानते हो, तुम्हारी कलम की पहचान है हमें, तुरन्त पकड़ लेंगे!" कहकर हो-हो कर हँसने लगे।

शाम को ढाबे से खाना खाकर लौटते मैंने कहा, "चलो, आज यहां कोई मूवी देख लें।" तो उसने इनकार कर दिया, "सिनॉप्सिस नहीं बनवाना क्या!" और मैं बुझ गया तो चुहल करते बोली, "हम तो खुद एक 'लव स्टोरी' के किरदार, ये तो हमारी ही मूवी की शूटिंग चल रही है।"

बात मैंने मन में रख ली थी। सोचा चेंज कर ज्यों ही बिस्तर पर आएगी, कलाई पकड़ लूंगा। पर उसने बिना चेंज किये फाइलों का पुलिंदा उठा मुझे पकड़ा दिया और खुद पेड में लगे ए-4 साइज कागज, कलम ले नजदीक बैठ गई।

समझदार को इशारा काफी। मैंने कईएक सिनाॅप्सिसें उलटी-पलटीं और शर्मा द्वारा दिये गए टाॅपिक पर एक नई सिनाॅप्सिस बनवाने उसे डिक्टेट करने लगा।

रात बारह-एक बजे जब जमुहाइयाँ गहरी हो गईं, काम किसी तरह निबटा। मगर तब वह फेयर करने बैठ गई। मैंने बहुत कहा, सोओ और सोने दो, उसने कहा, अभी लो, अभी लो! और इसी में मुझे गहरी नींद सुला दिया। खुद पता नहीं कब तक भिड़ी रही।

सुबह देर से नींद खुली। खुलना ही थी। हालांकि मैं तो जल्दी सो गया था पर बत्ती खुली रहने से नींद टूटती रही थी। और उसे परवाह न थी क्योंकि काम हो चुका था। सो जब जगे, तब जगे। फिर नहा-धोकर ढाबे पर चले गए और खा-पीकर वहीं से कॉलेज।

प्रोफेसर ने चेहरों पर रात की जगार के चिह्न देख मुस्कराते कहा, "लगता है रात में सिनॉप्सिस बना डाली!"

"हाँ-तो!" लता ने उत्साह से बेग खोल फायल पकड़ा दी। और वे सफेद पन्नों पर उतरे हरित मणियों से चमकते अक्षर देख मुग्ध हो उठे। फिर चेहरे पर नजरें टिका सम्मोहित से बोले, "तुम्हारे भाग्य से आरडीसी अगले महीने में ही हो रही है... यूनिवर्सिटी चलने तैयार रहना...!"

लता को जैसे खुशी के पर लग गए! तभी शर्मा हँसे, "वैसे आरडीसी में मनमानी तो खूब होती है, पर तुम हमारे मित्र की शिष्या हो इसलिए भटकने न देंगे।"

फिर मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले, "मित्र मुबारक हो, तुम भाग्यशाली हो।" और उदास हो गए। चलते समय पूछा, "अब तो कल निकलोगे?"

"हाँजी," मैंने कहा, "ट्रैन एक ही है, सुबह के सुबह!"

"कहाँ ठहरे हो?"

"शक्ति लॉज में।"

"तो फिर शाम को डिनर पर आओ! बताया नहीं, होटल का खाना तो बेहद रद्दी, हमारा तो हाजमा बिगड़ जाता है... हम तो समझ रहे थे किसी मित्र या रिश्तेदार के यहां ठहरे होगे! खैर। जहां तुम्हें सुविधा।"

लता बहुत प्रभावित थी और बहुत खुश। लॉज पहुंच उसने पूछा- प्रोफेसर कुछ दुखी से हैं, सो क्यों?

तब मैंने बताया : वे बहुत विचलित और उड़े-उड़े से फिरते रहते उन दिनों। न खाने-पहनने में तबीयत लगती, न पढ़ने-पढ़ाने में। सेमिनार, कान्फ्रेंस वगैरह में जाना पड़ जाता तो बड़े बेमन से जाते। सब कुछ निरर्थक लग रहा था। कोई वाहवाही, कोई मानदेय और प्रशस्ति-पत्र अब उपलब्धि कारक न रह गया था। जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि संसार में एक स्त्री के सिवा, मन की स्त्री के सिवा, प्रेम के सिवा सब कुछ व्यर्थ है? यदि यही इस जग का सत्य है तो फिर इतनी भटकन क्यों! ’सितारों से आगे जहाँ और भी हैं’ की लुभावनी ध्वनि क्यों! जो सदियों से मनुष्य के अंतरमन को अपने सम्मोहन में जकड़े हुए है।...

और वे एक निष्कर्ष पर पहुँच गए थे, गोया। अब दद्दा से इस विषय पर दो-टूक बात कर सकते हैं। इसी निश्चय के साथ इस बार अपनी शिष्या छाया को लेकर शर्मा बड़े सजग से गाँव लौटे थे। पर पिता ने उन्हें कमरे में बांध कर डाल लिया।"

"अरे!" वह विस्मित रह गई फिर उनके दुख से दुखी। उसे बड़ी दया लगी।

"कर्म का लेख मेटे नहीं मिटता, वह सबके साथ जुड़ा है!" कहकर मैंने निश्वास खींचा और वह शायद उनका दुख भूल मेरे गम में शरीक हो गई। खुद ही बाँहों में ले गम भुलाने लगी। शाम हो गई तो हम लॉज से निकल बाजार में पहुँच गए। जहां मैंने भी हजामत कराई और वह भी एक लेडीज ब्यूटी पार्लर में थोड़ी सज-धज ली। भीड़-भाड़ से निकल जब प्रोफेसर कॉलोनी के अपेक्षाकृत सूने रोड पर आये, चेहरे पर दृष्टि जमा मैंने एक शेर कहा-

बहुत सज धज के रहती हो कि जैसे उस खुदा ने बस,

तुम्हीं पे रख दिया ज़िम्मा जहाँ के खुश नज़ारों का

सुनकर वह मान पूर्वक हँस दी और बदले में एक शेर जड़ दिया-

मेरी सज-धज तो कोई इश्क़-ए-बुताँ में देखे,

साथ क़श्क़े के है ज़ुन्नार-ए-बरहमन कैसा।

और मुझे उसका अर्थ ही समझ नहीं आया। तब तक घूम-घाम प्रोफेसर के घर आ गए। पता चला वे अकेले रहते हैं। बोले, "खाना बनवा लिया है, परोसना खुद पड़ेगा, सो परोस लेंगे। बाई शाम के बाद नहीं रुक पाती, ऐसा ही है," कहकर हँसे, "आदमी है तो शक करेगा ही... आजकल केस भी तो बहुत बढ़ रहे हैं।"

यह सुन और उनकी दुबली काया देख उसे बड़ा तरस लगा, जैसे वे बड़े पहलवान हों जो रेप... और यह बात उसने मुझसे फुसफुसा कर कही, जब वे अंदर कुछ लेने चले गए थे... लौटते हाथों में शीशे के दो गिलास लिए, पानी का जग! हाथ की चीजों को टेबिल पर रख  आलमारी से बोतल निकालते हुए बोले, "आओ पहले, दो घूँट जिंदगी के पी लें!"

फिर मुस्कराने लगे, और फिर लता से बोले, "तुम्हें भूख लगी हो तो अपने लिए परोस लो," उंगली दिखाते बोले, "उधर साइड में किचेन है, वहाँ सब तैयार रखा है।"

मैंने कहा, "आज तो लंच ही लेट हुआ, आप शौक कर लो, उसके बाद...

"हम कर लें, तुम नहीं लोगे! शिष्या के आगे शिष्ट बन रहे हो!" कहकर वे हँसे और मुस्कराए-से रह गए जैसे गाल दाढ़ों में चिपक कर रह गए हों...!

लता हाथ से मुंह दबा हँसने लगी और फिर उसके पेट में हँसी से बल पड़ने लगे तो उठकर भीतर भाग गई। उजबक से शर्मा ने पूछा, "क्या हो गया इसे!" मैंने कहा, "कुछ नहीं, बाथरूम गई होगी!" और वे पीछे दौड़े, "अरे, इधर नहीं, उधर है, उस साइड..." मगर उसे अंदर स्टूल पर बैठे हँसी से लोटपोट होते देख चक्कर में पड़ गए। आकर मुझे उंगली दिखाते बोले, "सच बताना, इसे मिर्गी के दौरे तो नहीं पड़ते?"

मैंने हाथ पकड़ कहा, "कुछ नहीं पड़ते, आओ, बैठो, दो घूँट जिंदगी के पी लें।"

पेग बना लिए और लता को आवाज दी, "देखो, उधर कुछ नमकीन होगी, लाना!"

पता नहीं कुछ मिला या नहीं, थोड़ी देर में दो आमलेट बना लाई।

अब तक हम लोग एक-एक पेग ले चुके थे। वह आ गई तो प्रोफेसर ने कहा, "बैठो, तुम भी लोगी!"

"आप लीजिये...." वह मुस्करा कर रह गई।

तीसरे पेग के साथ वे जिंदगी का बेहद कड़वा अध्याय सुना उठे:

उसे संबोधित करते मेरी ओर उंगली उठा कर बोले, "राजेश जानते हैं, तुम्हें नहीं पता, अगर ये छाया प्रसंग न आया होता हमारी लाइफ में तो शायद, अपने टारगेट- ’अर्थशास्त्र में नोबुल पुरस्कार’ को पा लेते।

अरे उसके लिए हम अपने पिता से ही भिड़ गए! ऐसा जादू चढ़ गया माइंड पर कि न पूछो...दद्दा की बदौलत ही जे. पी. और लोहिया की ओर आकृष्ट हुए थे। दद्दा ने पहले ही बहुत सोच-समझ कर हमारा नाम जितेन्द्र प्रसाद यानी जे.पी. रखा था। दद्दा शुरू से ही लोकनायक जयप्रकाश नारायण या डाॅ. राममनोहर लोहिया की कितावों से कोई न कोई कुटेशन निकाल कर हमें रोज सुबह देते, जिसे अपने स्टडी-रूम में टँगे ब्लेकबोर्ड पर चाॅक से लिख लेते। उस केप्सन का दिन में कई बार दद्दा अर्थ समझाते।... इस तरह हमारी मानसिकता में इन महापुरुषों की विचार श्रृंखला बचपन से ही घुलती-मिलती चली गई थी। इसी ताकत की बदौलत अर्थशास्त्र के बढ़िया प्रवक्ता बन पाए थे।

मगर अपनी शिष्या छाया को लेकर हम एक निष्कर्ष पर पहुँच गए थे। अब दद्दा से इस विषय पर दो-टूक बात कर सकते हैं। इसी निश्चय के साथ इस बार गाँव लौटे थे।

दद्दा ने हमें उखड़ा-उखड़ा देखा तो समझ गए कि काम की मार से व्याकुल है, बेट्टा! वे हमारी नस-नस पहचानते थे। वैसे भी दुबले-पतले सींकिया पहलवान थे जनम से ही, और गुस्सा इतना तेज कि हरदम फनफनाते रहते.. सो वे संग-संग लगे डोलते बचपन से ही कि कहीं कोई लड़का-बच्चा हाड़-गोड़ न तोड़ कर धर दे हमारे!

लोहिया पर हमारी पी-एच.डी. और जे.पी. पर डी. लिट् न सिर्फ छपी हैं, बल्कि चर्चित भी हुई है। इनके कई संस्करण निकले हैं। कितने ही महत्वपूर्ण जर्नल्स में सैकड़ों रिसर्च पेपर शाया हुए हैं। भारत और यूरोप के अर्थ-वित्त जगत पर त्वरित टिप्पणियों की बड़े-बड़े अखबारों को दरकार रहती। पर छाया के चक्कर में अपनी इस प्रतिभा को जैसे सिरे से भुला बैठे थे-हम!"

और तीसरे पेग के बाद, लता का हाथ पकड़ बोले, "ऐ-सुनो! दद्दा के आगे एक अठारह-बीस साला दीवाने की भाँति हमारी मुहब्बत हमें दिला देने की गुहार कर बैठे...

’छिः छिः!’ दद्दा ने हमें बड़ी हिकारत से देखा। फिर दो टूक बोले, ’तुम ऐसा करो कि... हम तुम्हें शोपुर के रामगंज में एक कमरा दिलाए देते हैं, आठ-पंद्रह रोज रहो वहाँ,’ फिर इशारतन बोले, ’ये... तुम्हारा सारा फ्रस्टेशन झड़ जाएगा!’"

और अचानक वे उठकर मेरे पीछे आ गए और कंधों से पकड़ झकझोरते हुए बोले, "रामगंज! श्योपुर में वेश्याओं का मुहल्ला! राजेश, हमने दद्दा को ऐसे देखा जैसे कोई स्थितिप्रज्ञ पुरुष किसी मूढ़ को देखता है... और स्थिर स्वर में बोले, ’आपने जो आकलन किया है हमारा, कतिपय ’स्व’ अनुभव से किया है,’ और हठात् चीख पड़े, ’वहाँ लिंगी भी खड़ी होगी ह ऽ मा ऽ री...’

छाया ही नहीं दद्दा भी मुँहबाए रह गए।

अम्मा अवाक दर्शक बनी देख रही थीं। मानो किसी महाकाव्य पर आधारित पौराणिक नाटक का सनसनीखेज दृश्य चल रहा हो!

फिर कुछ देर बाद दद्दा ने हमें कमरे में धकेल ताला लगा दिया। छाया को हड़काते बस में बिठा उसके घर छोड़ आये। उसकी नौकरी तक छुड़ा दी...थी तो एडहॉक पर..." कहकर रोने लगे।

मैंने लता से कहा, "तुम खाना ले आओ।"

उस गमगीन माहौल में ही हमने स्वादिष्ट डिनर लिया। फिर उनसे विदा ले लॉज में आ गए।

व्हिस्की ब्रांडेड थी और मुझे तो कोई स्मैल नहीं आ रही थी, पर लता का ख्याल कर रास्ते में पान लगवा लिया। पूछा, तुम भी लोगी? उसने कहा, मीठा! पनवाड़ी जो अभी किशोर वय था, उस पर रीझता, अपनी भीगती मसों के बीच मुस्कराता बोला, लेडीस को तो हम सदा मीठा-ई लगाबैं! मैंने पीठ ठोकी, बहुत खूब बेटा, नाम रोशन करोगे! लता मुस्करा कर रह गई।

बिस्तर पर आते उसने हँसते हुए कटाक्ष किया, "आप तो बच्चे से भी जलने लगे!"

"बच्चा नहीं वो पक्का बनिया था," मैं बोला, "कितना मीठा बतिया रहा था, मगर दो रुपये कम पड़ गए तो पाँच सौ का नोट तुड़वा दिया! संस्कृत में कहावत है- 'वणिक तोयो, लिंग तोयो कार्यकाले निष्ठुरा!"

सुनकर बेफिक्र-सी मुस्करा उठी, कि नशे की हालत में अब मैं क्या निष्ठुरता करूंगा! मगर प्रोफेसर से अभी तक मुक्त न थी, "अच्छा हुआ जो आज हम डिनर पर चले गए, पता चल गया...नहीं तो कभी अकेले चले आते और फँस जाते!"

"सचमुच अच्छा हुआ," मैंने कहा, "तुम सदा मुझे लेकर तो आओगी!"

भावी मिलन को लेकर मन में ख्याली पुलाव पक उठा और हम एक-दूसरे की ओर करवट ले सुबह जल्द उठने की फिक्र में जल्द सो गए। मगर फिक्र रात दो बजे उठा देगी, यह कौन जानता था!

कमरे में कोई एक जाग जाए तो फिर दूसरा सोया नहीं रह सकता। नींद उचट गई, दिल फिर एक नई सम्भावना में धड़क उठा।

"सो जाओ, अभी तो समय है..." कहते बाँहों में भर ली।

"ऐसे नींद आएगी?" उसने मुस्कराते हुए पूछा।

"फिर कैसे?" ऊपर आते ओठ ओठों में भर लिए।

और फिर उसका गला भर्रा गया, "रा-जे-श...ओह!"

कहानी का छोटा-सा उपसंहार

लौटकर घर आया तो पत्नी ने बताया, "बेबी अपने 'सर' के साथ चंबल सेंचुरी गई है।"

और मैं बौखला गया, "तुमने जाने दिया!"

"क्यों, जब वह टूरिज्म में डिप्लोमा कर रही है, और ये भ्रमण उसकी प्रायोगिक पढ़ाई का हिस्सा है!"

तब उस मूर्खा से कुछ कहते न बना। बस, यही लग रहा था कि चक्र आरंभ हो चुका है और अब वह थमेगा नहीं।

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