चक्र (भाग 4)
राग से विराग की ओर या पलायन
एक दिन पता चला कि वह तो साध्वी बन गई है! परीक्षा भी नहीं दी!! घर छोड़ दिया!!! सुनकर मेरा कलेजा मुंह को आ गया। मुझे अक्सर अपनी स्थिति पर दया आती और हँसी। एक स्टूडेंट ने मुझे किस कदर नाथ लिया है। मैंने कितने स्टूडेंट्स निकाले...। यह तो सब जानते हैं कि शासकीय निकायों के मुकाबले निजी संस्थाओं का अमला बहुत तेजतर्रार, मेहनती और सजग होता है, क्योंकि उन्हें निरंतर संघर्ष करना है। निरंतर अपनी अनिवार्यता सिद्ध करनी है। निरंतर अपना होना साकार करना है...। मगर उसके आगे मेरी सारी ब्रिलियेंसी धरी रह गई थी..।
खोजख़बर ली। सफेद साड़ी में लिपटी वह सचमुच एक धार्मिक शिविर में मिली! जहां विचित्र वेशभूषा में सेकड़ों स्त्री-पुरुष परलोक साधने का जतन कर रहे थे। रोक रहे थे, अपना काम, क्रोध, मोह, लोभ, मद, ईर्ष्या आदि...। सात दिवसीय यह ‘तनाव-मुक्ति’ शिविर राजेंद्र नगर में आयोजित किया गया था। लता को जीवन में दुबारा लौटा लाने, मैं उन साधकों के बीच बैठ गया। फिल्म संस्था से जुड़ी मनोरमा जी बता रही थीं कि- मेडिटेशन सिखाने के लिए पहली बार हमने थ्रीडी एनिमेशन मूवी बनवाई है। इसमें मेडिटेशन के फायदे बताए गए हैं। मूवी का कान्सेप्ट आत्मा का परमात्मा से कम्युनिकेशन है। एक बार जब कोई अपने अंतरआत्मा की आवाज सुनने लगता है तो उसे परमात्मा से मिलने का माध्यम मिल जाता है।’
लता वहां सीने पर बैज लगाए कार्यकर्ता बनी घूम रही थी। मैंने उसे इशारे से अपने पास बुला लिया। स्थितिप्रज्ञ-सी करीब बैठ गई तो पूछा, ‘‘प्रवेश करते ही मुझे भूत-प्रेत के दर्शन हुए थे! यह क्या चमत्कार है?’’
सुनकर वह विहँसती हुई-सी बोली, ‘‘एंट्री करते ही आपको जिन भूत-प्रेत के दर्शन हुए वे कोई आम भूत-प्रेत नहीं बल्कि, भगवान भोले शंकर की बारात में शामिल बाराती हैं...।’’
‘‘अच्छा...’’ मैं हौले से हँसा।
‘‘शिविर की थीम है यह,’’ वह भी मुस्कराई, फिर संजीदगी से बोली, ‘शिविर को भव्य और इंप्रेसिव रूप देने के लिए तमाम एक्सपेरीमेन्ट किए गए हैं। वैसे शिविर का मुख्य उद्देश्य श्रद्धालुओं को राजयोग की शिक्षा देना है।’’
उसी वक्त एक और बहन, मंजू मंच से बताने लगीं कि- यहां आंखें खोल कर होता है मिलन! ध्यान को लेकर मान्यता है कि आंखें बंद करके ही लगाया जा सकता है। इस कैंप में ऐसा बिल्कुल नहीं है। मेडिटेशन पर बेस्ड मूवी को देखने के लिए आपको अपनी आंखें खुली रखनी पड़ती हैं। मूवी का स्प्रिचुअल कान्सेप्ट आपको अपनी डिवाइन से जोड़ता है। मूवी देखने के बाद यह फीलिंग डेवलप होती है कि मेडिटेशन मार्निंग वॉक से लेकर सोने से पहले तक कभी भी किया जा सकता है। इसके लिए किसी स्पेशिफिक टाइम की जरूरत नहीं है और न ही फिक्स टाइम लूज कर जाने पर इसे दूसरे दिन के लिए टाला जाना चाहिए। यह उसी तरह का कान्सेप्ट है जैसे कि हम अपना कोई भी काम करते हुए भी अपने पैरेंट्स या अन्य किसी को याद करते हैं। उनके बारे में सोचते हैं। उनकी यादों को फील करते हैं। ठीक उसी तरह इस फिल्म के थ्रू यह बताने और सिखाने की कोशिश की गई है कि हम अपनी रुटीन लाइफ में बिजी रह कर भी मेडिटेशन कर सकते हैं। ऐसा करके हम बड़ी आसानी से अध्यात्म को जीवन में आत्मसात् कर सकते हैं।’
इसके आगे उन्होंने क्या कहा, पता नहीं, मेरे कानों ने सुनना बंद कर दिया था। मगर झक्की-सी खुली जब उन्होंने बताया कि- यदि हमें अपने मन के विकारों पर नियंत्रण पाना है तो योग, ध्यान से बेहतर कुछ नहीं।’
मेरे कान खड़े हो गए थे! अपने विकारों पर नियंत्रण की मुझसे भला और अधिक जरूरत किसे थी? पर मैं सामूहिक रूप से कुछ भी पूछना या सीखना नहीं चाहता था। लता व्यवस्था में इधर-उधर हो गई तो मैं पंडाल से उठकर पीछे आ गया, जहां छोटे-बड़े तंबू लगे थे। लता भी मेरी खोज में इधर-उधर मुंहबाये फिर रही थी। उसे विकल देख मुझे नहीं लगा कि वह सहजावस्था की ओर बढ़ रही है! नेत्र, हृदय में धधकती प्रेमाग्नि का परिचय दे रहे थे...। ऐसी दशा में वह अपने मन को इच्छा, क्रिया और ज्ञान से शून्य कर सकती थी, भला!
मैंने कहा, ‘‘दिमाग फिर गया है, तुम्हारा! एक आदमी के पीछे सारी दुनिया छोड़ दोगी?’’
वह चुपचाप आंसू बहाने लगी। तब मैंने उसके हृदय की पीर जानी। मुझे अपना सीना चाक होता महसूस होने लगा...। मैंने इतना दर्द पहले कभी नहीं झेला था। ...वह मुझसे प्रेम करती है, मगर साथ सोना नहीं चाहती। इसी द्वन्द्व में उसका पलायन शुरू हुआ था...। मैंने वायदा किया कि- मिलता रहूंगा...तुम इस तरह जीवन तबाह न करो अपना।’