अदालत कक्ष में गहन सन्नाटा पसरा हुआ था।
बंसीलाल और सरकारी वकील लल्लन सिंह अपनी अपनी जगह पर बैठ चुके थे। सबकी निगाहें जज की तरफ लगी हुई थीं जो एक कागज पर कुछ लिख रहे थे।
बंसीलाल की दलीलें सुनकर बिरजू का क्रोध भड़क उठा था लेकिन किसी तरह उसने खुद पर संयम बनाये रखा था। क्रोध से उसकी आँखें अंगारे जैसी दहक रही थीं। मन में आशंका ने घर कर लिया था लेकिन फिर भी वह क्या कर सकता था खामोश रहकर फैसले का इंतजार करने के अलावा ? मन ही मन वह अपने ग्रामदेवता को याद किये जा रहा था, मन्नतें माँग रहा था कि किसी भी हालत में आरोपियों को जमानत न मिले और उसकी गुड़िया को इंसाफ मिले, लेकिन शायद यहाँ भगवान ने भी रईसों की रईसी और रसूख के सामने हथियार डाल दिये थे।
बाहुबल के जोर पर एक निरीह अबला का बलात्कार किये जाने के बाद धनबल के जोर पर इन धनपशुओं द्वारा आँखों पर पट्टी बँधी न्याय की देवी को एक बार फिर बहकाया जानेवाला था। कक्ष में मौजूद लगभग सभी लोग यही कयास लगा रहे थे। कुछ अन्य जो कि बंसीलाल के सहयोगी थे मन ही मन आश्वस्त थे कि जमानत तो होगी ही। आरोपियों की इतनी जोरदार दलील सुनने के बाद हो सकता है जज साहब यह केस ही खारिज कर दें और सभी आरोपियों को बाइज्जत रिहा कर दें। उन्हें पता था कि मंत्री ने जज साहब को भी फोन अवश्य कराया होगा किसी से। आखिर कुछ तो असर पड़ेगा न फोन का। मंत्री के फोन का ही असर था कि दरोगा विजय ने रजिस्टर में दर्ज प्राथमिकी में से मौका ए वारदात का जिक्र दर्ज नहीं किया था। जबकि उसने वारदात की जगह का मुआयना करते हुए साफ साफ अपनी डायरी में लिखा था कि वारदात की जगह पर गन्ने की खड़ी फसलें भी मुड़ी तुड़ी दिखीं। इसका मतलब साफ था कि वहाँ संघर्ष हुआ था। संघर्ष के निशान भी पीड़िता के अंगों पर दिख रहे थे। इसका जिक्र भी था उसकी डायरी में, लेकिन अब ये सारी बातें आश्चर्यजनक तरीक़े से पुलिस की प्राथमिकी में से गायब हो गई थीं। जानबूझकर लिखी गई कमजोर प्राथमिकी के बाद रही सही कसर मेडिकल रिपोर्ट ने पूरी कर दी।
मेडिकल रिपोर्ट में पीड़िता के घावों को नजरअंदाज करते हुए डॉक्टर द्वारा उसे सहवास का अभ्यस्त दिखलाकर ही बंसीलाल ने केस लगभग जीत लिया था। बंसीलाल पूरी तरह आश्वस्त थे कि फैसला उनके अनुमान के मुताबिक ही आएगा.. और हो भी क्यों न ? उन्होंने ही तो कहकर सुशीलादेवी को कमिश्नर और मंत्री से संबंधों का फायदा उठाने के लिए ये सारी कवायद करवाई थी।
दो मिनट भी न बीते होंगे कि एक बार फिर जज साहब की प्रभावशाली आवाज कक्ष में गूँज उठी, "दोनों पक्षों के वकीलों की बहस सुनने, समझने और तथ्यों का अवलोकन करने के बाद ये अदालत इस नतीजे पर पहुँची है कि इस अपराध के मद्देनजर आरोपियों को पुलिस की हिरासत में दो दिन के लिए रखा जाना पर्याप्त था। आरोपियों को दो दिनों की पुलिस हिरासत में रखकर उनसे इस केस से संबंधित आवश्यक पूछताछ, शिनाख्त परेड वगैरह हो चुकी है। आरोपियों से अब कोई नई जानकारी प्राप्त होने की आशंका मुझे नहीं लगती। अब ये पुलिस का दायित्व बनता है कि उपलब्ध सभी तथ्यों की छानबिन करके पुख्ता सबूतों व गवाहों के साथ मुल्जिमों के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल करे ताकि इस केस की नियमित सुनवाई की जा सके। बलात्कार एक जघन्यतम अपराध है और ऐसे अपराधियों के साथ कोई रियायत नहीं की जा सकती, लेकिन अदालत आरोपियों की साफसुथरी छवि, उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा व उनके भविष्य को भी नजरअंदाज नहीं कर सकती। हालाँकि बचाव पक्ष के वकील बंसीलाल जी ने एक मनगढ़ंत कहानी सुनाकर उस पीड़िता पर ही आरोप लगाना चाहा है जिसे मेरी अंतरात्मा स्वीकार नहीं कर पा रही है लेकिन मन में एक संदेह तो उन्होंने पैदा कर ही दिया है। मेडिकल रिपोर्ट का अध्ययन करने पर भी उनके दावे को ही बल मिलता है। अतः इस संदेह का लाभ आरोपियों को देते हुए अदालत उनके जमानत की अर्जी मंजूर करती है और पुलिस को जल्द से जल्द आरोपपत्र दाखिल करने का हुक्म देती है। आरोपियों को बीस,बीस हजार रुपये प्रत्येक के मुचलके पर जमानत दी जाती है।"
कुछ पल खामोश रहकर हाथ में पकड़ा कागज अपने सहायक की तरफ बढ़ाते हुए जज साहब ने दरोगा विजय की तरफ इशारा किया। उनका इशारा समझकर दरोगा विजय ने पीछे खड़े दूसरे आरोपियों को कटघरे में खड़ा कर दिया और उनके बारे में सरकारी वकील लल्लन सिंह को कागज देते हुए उन्हें कुछ समझाने लगा।
इस बीच रॉकी, सुक्खी और राजू को आगे बढ़कर दोनों सिपाहियों ने अपनी हिरासत में ले लिया। तीनों को ले जाकर उन सिपाहियों ने अदालत परिसर में खड़ी पुलिस की बड़ी सी जालीदार वैन में बैठा दिया और दरवाजा बंद कर दिया।
बिरजू भीगी निगाहों से उन्हें बाहर जाता हुआ देखता रहा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि जज साहब की बातें सुनकर वह हँसे या रोये।
'एक तरफ तो जज साहब बलात्कार को जघन्यतम अपराध बता रहे हैं और फिर आरोपियों को बरी भी कर रहे हैं। पुलिस से जल्द से जल्द आरोपपत्र दाखिल करने के लिए कह रहे हैं और बंसीलाल की मनगढ़ंत बात पर भरोसा भी कर रहे हैं। इस फैसले से उनके मन की थाह लगा पाना मुश्किल लग रहा है, लेकिन कोई बात नहीं ! अब जल्द से जल्द सुनवाई का आदेश जज साहब ने दिया है हमारे लिए यही राहत की बात है। जब केस की सुनवाई होगी हमें इंसाफ अवश्य मिलेगा।' मन में यही सब विचार करते हुए बिरजूअपने साथियों के संग अदालत से बाहर आया और गाँव की तरफ चल पड़ा।
अदालत कक्ष से बाहर आकर बंसीलाल ने सुशीलादेवी को मुबारकबाद दी लेकिन उसे अनसुना करते हुए वो व्यग्रता से बोली, "जब अदालत ने आदेश जारी कर दिया है तो मेरे बच्चों को पुलिस ने फिर से क्यों हिरासत में ले लिया है ? अभी नहीं छोड़ सकते क्या ?"
"आप चिंता न करें मैडम ! अब उन्हें छुड़ाना मेरी जिम्मेदारी है। होती हैं कुछ अदालती फॉर्मेलिटीज। मैं अभी यहीं सब पूरी कर दूँगा। अभी आप मुझे साठ हजार रुपये नगद दे दीजिये। कुछ पैसे और लगेंगे सो तो मैं मैनेज कर लूँगा।" बंसीलाल ने उन्हें समझाया।
"ओके !" कहते हुए सुशीलादेवी ने अपने हैंडबैग से पाँच सौ के नए नोटों की दो गड्डियाँ निकालीं और बंसीलाल की तरफ बढ़ाते हुए बोली, "ये लो एक लाख रुपये ! पैसे की परवाह नहीं। चाहे जितना भी लगे, मुझे आज मेरा बेटा मेरे घर में दिखना चाहिए।"
उनके हाथ से नोटों की गड्डियाँ सँभालते हुए बंसीलाल ने उन्हें आश्वस्त किया। तभी विजय और उसके साथी सिपाही अन्य आरोपियों के साथ अदालत से बाहर आये और उन्हें उस बड़ी सी वैन में डालकर वहाँ से बाहर निकल गए जिसमें रॉकी, राजू और सुक्खी पहले से ही बैठे हुए थे।
उस वैन के जाने के बाद उठी धूल से बचने का प्रयास करते हुए सुशीलादेवी तड़प उठीं, "अरे, वो लोग मेरे बेटे को कहाँ लेकर जा रहे हैं ?"
"मैडम, उन्हें जाने दीजिए ! वो उन्हें लेकर थाने जा रहे हैं। हमें वहीं जाकर उन्हें छुड़ाना होगा। अभी तो सबसे पहले हमें उनकी जमानत के लिए मुचलके के पैसे जमा कराने हैं। उसके बाद हमें अदालत से आदेश की नकल निकलवाकर उसे दरोगा को दिखाना होगा तब वह बच्चों को रिहा करेगा। आप यहीं अपनी गाड़ी में बैठी रहिये। मैं सब इंतजाम करके आता हूँ और फिर हम थाने जाकर उन्हें अपने साथ लेकर घर चले जाएँगे !" कहने के बाद बंसीलाल फिर से अदालत की तरफ बढ़ गया और उनकी नजरों से ओझल हो गया।
क्रमशः