RASHTRIYA PURASKAR in Hindi Short Stories by Rohit Kumar Singh books and stories PDF | राष्ट्रीय पुरस्कार

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राष्ट्रीय पुरस्कार

उसे बडा गुस्सा आता,मन ही मन वो आग बबूला हो उठता था,जब उसकी पत्नी या जवान बच्चे उसे बेरोजगार कहते,,कभी सामने ,कभी पीठ पीछे किसी और के।अरे जीवन भर किसानी कर बच्चो को पढाया लिखाया, रहने को मकान बनवा दिया,कच्चा ही सही,अब देह मे भले वो ताकत नही रही,कि और ज्यादा कमा सके,60 साल का हो गया ,तो क्या बेरोजगार हो गया,कैसी बेशर्मी है इनकी आंखो मे।
समर चौहान अपने समय का बारहवी पास था,कालेेेज का एक साल भी देख चुका था,अभी भी अच्छी अंग्रेजी बोल और लिख भी सकता था,और हिन्दी मे तो उसका जोड मिलना मुश्किल था,इस मामले मे वो अपने बच्चों से कम ना था,अक्सर वो उससे किसी वर्ड का मायने पूछते रहते,हां वो बी ए पास ना कर सका,क्योंकि बाप की मौत के बाद उसे अचानक पढाई छोडनी पडी,और घर की देखभाल के लिये उसे अपनै गांव लौटना पडा।मगर उसने पूरी लगन से अपने बच्चों मानव और मीता को पढाया,मीता अभी कालेज मे थी,और ट्यूशन भी करती थी।मानव बी ए करने के बाद बंबई चला गया,और वहां किसी फिल्म प्रोडक्शन हाऊस मे डाईरेक्टर का काम सीखने लगा,पत्नी नजदीक के ही गांव मे किसी डाक्टर के यहाँ नर्स का काम करती थी,सब एक तरह से रोजगार मे थे,इसलिये समर को अब बेरोजगार की गिनती मे लाते थे।
समर को एक बडा पुराना शौक था,वो स्कूल के ही ज़माने से लिखता बडा ही अच्छा था,स्कूल और कालेज मे भी लेखन प्रतियोगिताओं मे कितने इनाम जीत चुका था,कविताओं और कहानियों पर उसका समान अधिकार था,और वो अपना ये शौक कभी नहीं भूला,और लिखता ही रहा।किसी अखबार या छोटी मोटी पत्रिकाओं मे उसकी कोई कहानी,कविता छप जाती,तो वो भावविभोर हो जाता,सारे गांव को दिखाता फिरता,कुछ तो उसकी वाहवाही कर देते,कुछ उसकी सनक मान कर हंस देते,और बेरोजगारी का टाईम पास कहने मे नहीं चूकते,समर क्या कहता,क्योंकि इससे उसे कोई आमदनी तो थी नही,मगर बीवी और बच्चो से उसे बेरोजगारी का खिताब लेना कतई गंवारा नहीं था,वो बडा झुंझलाता ये शब्द सुन कर।
बस उसे एक बात की आशा थी कि कभी तो उसकी लिखी किसी कहानी पर कोई फिल्म बनेगी,और उसे कोई "राष्ट्रीय पुरस्कार"मिलेगा,और वो भलिभांति इस बात को जानता था कि वो ऐसा ही लिखता है,वो इस योग्य है।कभी कभी वो अपनी इस मंशा को मानव को भी बताया करता,क्योंकि वो डाईरेक्टर बन रहा था,और भविष्य मे ऐसा कुछ कर सकता था।
दिन बीतते रहे,मानव को भी ऐज डाईरेक्टर काम मिलने लगा,और समर की चाहत परवान चढने लगी,आशा का संचार होने लगा।एक दिन उसे खबर लगी कि उसके बेटे मानव को उसके किसी फिल्म के लिये नेशनल एवार्ड मिला है,और ये सब किसी अखबार मे छपा है,वो खुशी से पागल हो उठा,दो मील दूर जा के वो चार पांच अखबार खरीद लाया,और उसमे वो समाचार ढूंढने लगा,और मिलते ही वो पूरा समाचार चाट गया,फिर वो काफी देर सकते मे बैठा रहा।
पढने के बाद उसे पता चला कि जिस फिल्म कै लिये उसे बेस्ट डाईरेक्टर का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था,उसकी कहानी भी मानव ने ही लिखी थी,और इसके लिये उसे बेस्ट लैखक का भी राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था,वो आश्चर्य चकित रह गया,कि मानव कब से लिखने लगा,स्टोरी से उसे क्या मतलब?कमाल है एक पेज तो वो लिख नहीं सकता,और मेरा बेटा,बेस्ट लेखक,वो फिर भावविभोर हो गया।
उसी समाचार को उसने दूसरे अखबार मे पढा,तो उसे एक और नयी बात मालूय हुई,उसे उस कहानी का नाम और स्क्रिप्ट के बारे मे जानकारी मिली,अरे ये तो उसकी लिखी,यानि समर चौहान की लिखी कहानी थी,"मेरा ईमान बिक चुका",और उसके लेखक की जगह मानव चौहान का नाम जगमगा रहा था।
समर हतप्रभ रह गया,मानव ने,उसके बेटे ने बिना उसे बताये,उसकी कहानी अपने नाम कर ली थी,और उस पर फिल्म भी बना दी थी,राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीत लिया था,और तो और उसने पुरस्कार के एवज मे दस लाख की विपुल धनराशि भी जीत ली थी।वो ठगा सा खडा रह गया,जिस नाम की चाह मे उसने अपना जीवन बिता दिया था,वो आज उसके बेटे ने छीन लिया,वो भी उसे उसका बेटा ना दे सका।बडे ही मायूसी से वो अपने कमरे मे आ के खाट पर लेट गया,रोता रहा,और सोचता रहा।
अचानक वो एक झटके के साथ खाट से उठा,और जोरो से चिल्लाते हुये बाहर निकला,
"कौन कहता है,मै बेरोजगार हूं,उसकी तो ऐसी तैसी,वो दस लाख किसने कमाये,मैने,वो दस लाख मेरे है,मै बेरोजगार नहीं, .......मै बेरोजगार नहीं, बोल के वो फूट फूट कर रोने लगा।"