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शिष्य परिक्रमा करने के बाद एक जगह चद्दर बिछाए बैठ गए। एक दिन बीत गया ,दो गए आखिर तिसरे दिन एक पत्थर उपर से गिरते हुए हाथ में आ गया। वही शिवलिंग था। शिष्यों को जैसे स्वर्गप्राप्ती की खुशी हो गई। अपनी झोली में लिंग रखते हुए दोनो वापिस जाने लगे। यह शिवलिंग तो गुरूमहाराज को देना पडेगा तो अपने लिए भी एखाद शिवलिंग ले लेते हैं। ऐसे सोचते हुए उन्होंने रास्ते में पडे हुए सुंदर 2-4 पत्थर झोली में रख दिए। ज़ाते समय झोली बहुत भारी लगने लगी। कंधे पलट पलटते हुए दोनो बेहाल हुए। झोली में उन छोटेसे पत्थरों के अलावा कुछ था ही नही, फिर भी झोली का वजन बढता ही ज़ा रहा था। तो एक एक पत्थर नीचे डालने लगे। अब सिर्फ गुरूजी का एक शिवलिंग और दोनों को बहुत पसंद आया था वह पत्थर, बस इतनाही बचा था फिर भी दोनों मिलकर उस झोली का वजन नही उठा पा रहे थे। आखिर शिष्य समझ गए दुसरा शिवलिंग हमारे साथ रहेगा तब तक हम यहाँ से नही ज़ा सकते। वह झोली से निकालते ही झोली एकदम हल्की हो गई। मतलब अगर भगवान को मंजूर नही हैं तो वहाँ का एक पत्थर भी हम नही लेकर ज़ा सकते। पर्बत से जो पत्थर गिरते हैं उन्हे बहुत अहमियत रहती हैं। उन्हे बाणलिंग कहाँ जाता हैं।
हमारी यात्रा अब पुरी हो गई थी। जीवनभर याद रहे ऐसे सुनहरे पल हम साथ लेकर ज़ा रहे थे। इसी याद में अब जीना था। गपशप करते सब सो गए। उठने के बाद जरा थकानसी महसुस हो रही थी। बॅग भरना भी मुश्किल होने लगा। चाय नाश्ते के बाद जरा आराम आ गया। आज से वापसी का सफर चालू होनेवाला था। कैलाश परिक्रमा के लिए जो बॅच गई थी वह आने के बाद खाना खाकर हम तकलाकोट के लिए निकलने वाले थे। झैदी से तकलाकोट 100 कि.मी. की दूरी पर हैं। कैलाश से बॅच आते ही अत्यंत खुषीसे सब एक दुसरे से मिलने लगे, बाते करने लगे। कितने अच्छे दर्शन हो गए यह बात अहमियत से बताना चालू था। खाना खाने के बाद मानस के दर्शन लेकर तकलाकोट की तरफ गाडी दौड़ने लगी। घर की तरफ चालू हुआ सफर का आनन्द, और कैलाश से बिछुड़ने के संमिश्र भाव से, मन भरा हुआ था। कैसा अजीब होता हैं अपना मन ,आनंदी भाव भी सहजता से स्विकार करते हुए अगले क्षण उससे बाहर आता हैं और दुःख भरे स्थिती में भी दुसरे क्षण में बाहर आ जाता हैं। तो ऐसा क्या हैं अपने अंदर जो मन को वही स्थिती जीने के लिए मजबूर करना चाहता हैं। सुख कभी खत्म ना हो और दुःख की घडियाँ झटसे खत्म हो जाए, ऐसा सोचना भी कष्टदायी होता हैं।
अब निर्विचार होने की जरूरत थी। मन में बेचैनी छा गई। अज्ञानता में सुख हैं ऐसे कहते हैं, लेकिन अब हम ऐसी अवस्था में थे की ना ज्ञानी ना अज्ञानी, बीच की स्थिती ना सांसारिक आनन्द लेने देती हैं, ना अध्यात्मिक । खयालों में आँख लग गई। “राक्षसताल आ गया उठो “जोत्स्ना ने आवाँज दी। शापित सौंदर्य का दर्शन करते हुए गाडी झटसे आगे बढ गई। तकलाकोट से 6 कि.मी. टोये गाँव में झोरावर सिंग की समाधी हैं। वह शूर पराक्रमी जनरल ने लेह लदाख प्रांत पर जीत हासिल कर दी। परप्रांतिय झोरावर सिंग ने बहुत प्यार से अपने जनता की देखभाल की। ‘सिंग का चोगा’ इस नाम से मशहूर समाधी का स्थानिय जनता बहुत आदर करती हैं। समाधी के पास सिर्फ लामा लोग ही ज़ा सकते हैं। फिरसे आगे का सफर चालू हो गया। अब शरीर में थोडी ही उर्जा बची थी। जब तक अपने ध्येय मार्ग पर चलते हैं तब तक, शरीर कोई भी कठिनाईयों का सामना करने में सक्षम रहता हैं। इस में शरीर की अतिरिक्त उर्जा का भी उपयोग किया जाता हैं।जब ध्येय पुर्ण हो जाता हैं तब शरीर ,मन,ध्येय हीन हो जाते हैं और उर्जा अभाव के कारण बिमारी ,उदासी के दायरे में शरीर ,मन खो जाता हैं। इसीलिए एक ध्येय पूर्ण होता हुआ नजर आए तभी दुसरे ध्येय की आकृति मन में रखनी चाहिए। अभी तो घर पहुँचना यही हमारा ध्येय रह गया था। बस तकलाकोट पहुँच गई। कमरें में जाते तरोताज़ा हो गए। खाना खाने के लिए अब मुश्किल लग रहा था। रोज स्टीक के साथ नुड़ल्स खाना जान पर आ गया। घर के भोजन की याद आने लगी ,कुछ थोडा खाकर मैं सोने चली गई। दुसरे दिन आँख खुली और आदत से खिड़की से झाँककर देखा तो सामने कैलाश भी नही और मानस भी। अब हम उस दायरे से बाहर आ चुके थे। थोडी बेचैनी महसुस हो गई। आज निकलने की जल्दी नही थी इसीलिए आराम से तैयार होते हुए खोजरनाथ के दर्शन के लिए निकल गए। बीच बीच में पूल निर्माण का कार्य शुरू होने कारण, रास्ता एकदम खराब था। वहाँ काम करते लोग हमारी तरफ एक नजर फेरते हुए फिरसे काम पर लग ज़ाते।
जल्दीही खोजरनाथ पहुँच गए। यह एक बौध्द मठ हैं। 1007 बरसों पहले यह एक मंदिर हुआ करता था। वहाँ के मान्यता अनुसार राम लक्ष्मण सीताजी की पाँच फीट की मुर्तियाँ स्थापित हैं। अखंड़ रामायण पाठ की प्रथा वहाँ चलती हैं। पहिले मुर्तियाँ सोने की हुआ करती थी। वहाँ के आदमी ने उसके बारें में एक कहानी बताई “ खोजरनाथ का राज़ा अत्यंत कर्तबगार और प्रज़ाहितदक्ष था। एक दिन एक ऋषी ने अपनी सात पेटियाँ राजा के पास रखने के लिए दी। सात साल में अगर वे ऋषी वापिस नही आते हैं तो वह सात पेटियाँ राजा की हो जाएगी। लेकिन इन सात सालों में उन पेटियों को खोला नही जाएगा। अगर वह खोलकर देखते हैं तो उनके गंभीर स्वरूप परिणामों का सामना राजा को करना पड़ेगा। राजा ने यह बात स्विकार की और ऋषी की वह सात पेटियाँ खजाने में संभालकर रख दी। बाद में वह बात भुल भी गया। सात साल बाद खजिनदार ने याद दिलाई तब पेटियाँ खोली गई ,देखा तो वह सोने से लबालब भरी हुई थी। अब इतने सोने का क्या करे ?अपना तो हैं नही । तब राजा ने सोच समझकर फैसला लिय़ा की राम लक्ष्मण सीताजी की मुर्तियाँ बनवाई जाए। लेकिन उनका मंदिर कहाँ बनवाया जाए ,इस बात पर निर्णय नही हो पा रहा था। एक दिन राजा नगर के बाहर घुमने निकलते समय घोडा एक जगह पर रूक गया। घोडा जहाँ रूका हुआ था वह स्थान, पाताल लोक संबंधित जगह मानी जाती थी। उस बात को संकेत समझकर वही मंदिर बनवाने की योजना करते हुए मंदिर बंधवाया। कालांतर के बाद इन मुर्तियों का संबंध बौध्द अवस्था से जुडे गया। बुध्द की तीन अवस्था माया ममता, करूणा, बुध्दी इस बात का प्रतिक ज़ाना जाता हैं। मैं थोडी असमझ में पड़ गई। अगर यह बुध्द प्रतिमा से निगडीत हैं तो रामायण अखंड़ पाठ क्यों चलता हैं ? आशिर्वचन देते वक्त लामा, राम के नाम का क्यों उच्चारण करते हैं? थोडी बात समझ में आने लगी। पहले आशिया खंड़ में हिंदु संस्कृति हुआ करती थी। अपने अपने मान्यताओं के अनुसार गणपतीजी और अन्य देवताओं की मुर्तियाँ पूरे एशिया में देख सकते हैं।
खोजरनाथ मंदिर के प्रवेशव्दार पर रंगबिरंगी पताका लगाई हुई थी। एक जगह ओम मणि पद्मे हुँ का चक्र दिखाई दिया, उसे पुर्ण रूपसे घुमाते ही मंत्र की एक माला पूरी हो ज़ाती हैं। मंदिर देखने बाद सब गाडी में ज़ा बैठे। अब हमारा वापसी का सफर था तो पहले के दृश्यों की पुनरावृत्ती होने लगी। एक घंटे बाद कँम्प आ गया। रास्ते में इतनी धुल मिट्टी थी की आने के बाद फिरसे नहाना जरूरी हो गया। नहा धोकर बॅग जरा ठीक कर दी। यहाँ पहुँचते ही मानवी जगत चालू हो जाता हैं। यात्रियों को यहाँ के बाज़ार में लेकर ज़ाते हैं। उनकी वैशिष्ट्य पुर्ण चीज वस्तूओं को याद के तौर पर खरीदा जाता हैं। कोई भी चीज दिखते ही उस संबंधित याद ताज़ा होने लगती हैं और तब बिताए हुए पल व्यक्ति फिरसे जीता हैं। खाना खाकर थोडा आराम करने के बाद हम बाज़ार चले गए। रंगबिरंगी दुनिया देखते ही व्यावहारिकता का दौर अब चालू हो ज़ाएगा यह बात ध्यान में आ गई। हिमाचल में गहरे रंगों का ज्यादा इस्तमाल होता हैं। उष्ण रंगछटाओं से गर्म लहरे निकलती हैं। अति ठंड़ के कारण वह रंग भी गर्मी बढाने में सहायक हो जाता हैं। बाज़ार ज़ाते ही मैं हमेशा सबके लिए कुछ ना कुछ लाती हुँ इस कारण खरीदारी में मुझे बडा आनन्द आता हैं। व्यक्ति हमेशा नए की ओर आकर्षित हो जाता हैं। विविध मालाएँ,गर्म कपडे,स्वेटर ऐसे वहाँ की खासियतवाली चीजे खरीद ली। कमरें में आने के बाद गपशप लगाते खरीदा हुआ सामान बॅग में भरना चालू किया। अब अपना साथ थोडे दिन का रहा इस बात से वाकिफ हो गए, इस कारण सब एक दुसरे से और करीब आने लगे। कठिनाईयों से भरे सफर में एक दुसरे का जो साथ निभाया था उसके प्रति कृतज्ञता भाव से अपनों से भी अपना रिश्ता तैयार हो गया था।
(क्रमशः)