"अरे ! अरे! जरा पल भर रुक तो सही।" विक्रम ने अपनी बेटी के उतावलेपन को शांत करने के लिहाज से बोला।
" और जन्म दिवस की बहुत - बहुत बधाई हो मेरी बिटिया रानी, तुम हमेशा खुश रहो। तुम्हें कभी कोई मुसीबत न आये।" विक्रम ने अपनी बेटी को जन्मदिन की शुभकामनाएं तो दी पर उसके मुख पर वह प्रसन्नता नहीं दिखाई दी । वह अभी तक इसी दुविधा में था कि क्या बोलूँ इसको।
"थैंक यू , पापा। अब बताओ कहाँ चल रहे हो और आज खाना बाहर ही खाएँगे।" बिंदु ने अपने उत्साह को चरम स्थिति पर लाते हुए बोला।
"हाँ !हाँ ! चलेंगे , चलेंगे। पहले ये तो बताओ तुम कब उठी और इतनी जल्दी तैयार भी हो गयी।" विक्रम की अब भी हिम्मत नहीं हो रही थी बिंदु को यह बताने की, कि वह उसको घुमाने नहीं ले जा सकते है। व्यक्ति जब किसी को ऐसे जवाब देने की दुविधा में हो तो अक्सर वह इधर-उधर की बातें करता है और मुद्दे पर आने से बचता है। यही विक्रम कर रहा था।
"पापा, मुझे तो रात भर सही से नींद भी नहीं आई । सोचती रही पता नहीं कहाँ घूमने जाएंगे। और सुबह मैंने सोचा कहीं मेरी वजह से देरी न हो जाये और आप मुकर जाए इसलिए मैं जल्दी ही तैयार हो गयी।" बिंदु का यह वाक्य विक्रम के हृदय की पीड़ा को और बढ़ाने वाला था।
"अरे अब वादा किया है तो मुकर थोड़ी जाऊँगा, अब तो चलना ही पड़ेगा।" विक्रम बेहोशी में बोले जा रहा था और उसकी यह बेहोशी फिर टूट पड़ी जब पुनः उसके मालिक का कॉल आ गया। विक्रम को लगा जैसे वो किसी गहरी नींद से जाग गया उसको याद आया कि उसको जल्दी हॉटेल जाना था।
"सुनो विक्रम जी मैं उस पार्टी को गाड़ी में गड़ीसर रोड़ की तरफ भेज रहा हूँ। आप सीधे उधर आके उनके साथ चले जाना।" विक्रम कुछ बोलता उससे पहले ही सुनील बाबू ने कॉल कट कर दिया।
कभी - कभी हमें किसी उलझन की सुलझन उस उलझन में ही मिल जाती है। अचानक विक्रम को खयाल आया कि वह जिस पार्टी को 'सम' ले के जा रहा है क्यों न उनके साथ ही अपनी बेटी को ले चले और सम के धोरो की सैर करा दे।
" तुम्हारी इच्छा थी न 'सम' चलने की तो हम 'सम' ही जायँगे और ऊँट की सवारी भी करेंगे। अब चलो जल्दी वरना देरी हो जाएगी।" विक्रम अब हल्का महसूस करते हुए बोला।
"सच्च ! पापा। आप चलो मैं अभी आई।" यह कहकर बिंदु अपने फ़ोन को चार्ज पॉइंट से निकालकर अपने पर्स में रखती है और जाने से पहले आईने में खुद को निहारती है। विक्रम अपने कमरे से कुछ रुपये लेकर कमरे का दरवाजा बंद करके बाहर आता है और बिंदु के साथ निकल पड़ता है गाड़ी की तरफ।
विक्रम गड़ीसर रोड़ पर पहुँचा तो एक सफेद तूफान गाड़ी उसके इंतजार में खड़ी थी। उसके ड्राइवर मदन ने उन्हें सलाम किया और बोला, "आइए साहेब, आपका ही इंतजार था। आज आपके साथ ये बच्ची ! आपकी है क्या?" विक्रम बहुत संदेही व्यक्ति था और ड्राइवर द्वारा यह कहने पर उसे अचानक खयाल आया कि जिस फूल को वो हमेशा घर में छुपा के रखते है, आज वो उसको बाहर ले के आया है। उसके मन में डर बैठ गया और हकलाते हुए कहा "हाँ, हाँ मेरी ही है तुम चलो अब फटाफट।"
गाड़ी में ड्राइवर के पास मयंक बैठा था । जो हाथ में एक कागज की प्लेट में जलेबियों का स्वाद ले रहा था और अपने पेट की प्रगति के लिए पूरी तरह डटा हुआ था। विक्रम ने उन्हें नमस्कार किया तभी मयंक बोला, " आइए -आइए , आपका ही इंतजार था । अब जल्दी से ले चलो हमें उस रेत के समुद्र पर ; प्रातः जल्दी ही वहाँ घूमने में मजा है।"
" हाँ जी ! चलते है सीधा वही पे। आपको कोई एतराज न हो तो यह मेरी बेटी है इसको भी गाड़ी में साथ ले लूँ। क्या है न कि इसका आज जन्मदिन है और वहाँ घूम भी लेगी।" विक्रम ने मयंक को विनती करते हुए बोला।
श्वेत वर्ण एवं मुलायम देह की एक लड़की बिंदु, जिसने कुछ क्रीम एवं कुछ सफेद दिखने वाला फ्रॉक स्टाइल सलवार सूट पहन रखा था। पैरों में सैंडल एवं सिर पर डिजाइनिंग कैप के साथ ही कानों में सिंपल दिखने वाली पतली सोने की बालिया पहनी हुई थी। दिखने में नवयौवना और व्यवहार से अभी चंचल ,अपने इत्र की भीनी - भीनी महक से वातावरण को महका रही थी। उसके रूप लावण्य को देखकर शायद ही कोई व्यक्ति हो जो आकर्षित न हो पाए।
उसको देखते ही मयंक बोला, " हाँ क्यों नहीं! आओ बैठो।" मयंक की लार गिर रही थी और यह बताना मुश्किल था कि वह लार जलेबियों के कारण निकली या बिंदु के कारण।
ड्राइवर के पीछे वाली सीट पर मयंक की पत्नी रेशमा और उनके बच्चे नीता और सुनील बैठे हुए थे। गणेश और आर्या दोनों सबसे पीछे थे उनको अभी विभिन्न प्राकृतिक नजारों से ज्यादा एक - दूजे को देखना और बाते करना ज्यादा सुहा रहा था।
बिंदु और विक्रम दोनों गाड़ी में बैठ जाते है और शुरू होता है उन सबका और साथ ही बिंदु के जीवन का नया सफर जहाँ से उसका जीवन अंगड़ाई लेने वाला था।
क्रमशः....