soi takdeer ki malikayen -15 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | सोई तकदीर की मलिकाएँ - 15

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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 15

 

सोई तकदीर की मलिकाएँ 

 

15

 

भोले ने सपने में भी नहीं सोचा था कि केसर हाल पूछने आए उससे यूं लिपट जाएगी । उसने घबराकर दरवाजे की ओर देखा । कहीं कोई अचानक कोठरी में आ जाए तो उसे तो डूब मरने की जगह भी नहीं मिलेगी । बाहर गेजा घूम रहा है । किसी भी समय इस कोठरी में चला आएगा । चौके में उसकी ब्याहता , इस घर की मालकिन बैठी रसोई का काम कर रही है और यह केसर ...

इस समय इस पर पागलपन का दौरा पङा हुआ है । उसने एक झटके से केसर को अपने से जुदा किया और झपट कर कोठरी से बाहर आ गया ।

केसर अचानक लगे धक्के से चारपाई पर गिर गयी । पर भोला उसे देखने के लिए एक पल भी नहीं रूका । आंगन में से साइकिल दौङाता हुआ हवेली से बाहर हो गया । वह पहले चौपाल में गया । वहाँ कुछ लोग अखबार पढ रहे थे तो अधिकांश लोग बातों में व्यस्त थे । वह भी सबका अभिवादन करके उनमें शामिल हो गया पर किसी की कोई बात उसके पल्ले नहीं पङी । रह रह कर केसर की निमंत्रण देती आँखें उसकी आँखों के सामने आ जाती । उसका गले से लग जाना , फिर रोने लग जाना उसे सब फिर से याद आ गया । जब वह दृश्य असहनीय हो गया तो वह वहाँ से उठ गया ।
क्या हुआ जवान , अभी अभी तो आ कर बैठा था । अब कहाँ चल दिया – अंदरले बेहङे के करम सिंह ने टोका ।
कुछ नहीं हुआ ताया । बस एक काम याद आ गया । कर आऊँ , नहीं तो रह जाएगा । चलते चलते भोले ने कहा ।
कोई न बेटे , कर आ । काम तो करने ही हुए । किये बिना गुजारा कहाँ है । यहाँ आ जाया कर । दो घङी भाई बंधुओं में बैठेगा । दो चार बातें कहेगा सुनेगा तो गम से निकलने में मदद मिलेगी – सोहन सिंह ने समझाइश दी ।
जी । आया करूंगा । सत श्री अकाल । वह बिना एक पल गंवाये वहाँ से भाग खङा हुआ ।
वहाँ से वह अड्डे पर पहुँचा । बस अड्डा सुनसान पङा था । ग्यारह बजे वाली बस सवारियाँ लेकर जा चुकी थी । वह एक मिनट रुका । इधर उधर देखा । सूनेपन से उसे डर लगा तो वह अपने खेतों की ओर चल दिया । खेत वहाँ से छ सात किलोमीटर तो रहे होंगे । आकाश में सूरज पूरी तेजी से चमक रहा था । धूप में साइकिल चलाकर पसीनोपसीने हुआ वह खेत में जा पहुँचा । खेत में आज कोई काम था ही नहीं । वह शीशम की छांव में चारपाई बिछाकर लेट गया । पर चैन उसे वहाँ भी नहीं मिला । दो आँखें उसे अपनी ओर बुला रही थी ।
वह हार कर उठा । ट्यूबवैल चला कर होदी में नहाने घुस गया और देर तक नहाता रहा मानो आज देह की सारी गरमी मिटा देना चाहता हो । अब तक भूख से उसकी आंतें कुलबुलाने लगी थी । सुबह से उसने पानी की एक घूंट तक न निगली थी । सुबह उठते ही वह मुँह धोते धोते केसर की कोठरी में जा पहुँचा था । वहां से निकला हुआ अब एक डेढ बजे तक भूखा प्यासा भटक रहा था । एक तो भूख बेहाल किये दे रही थी । ऊपर से साइकिल चलाने के श्रम से उसे थकावट हो गयी थी । आखिर उसने अपने भीतर की हिम्मत बटोरी । अब हवेली जाना ही होगा । उसने अपनी सोच को उलटा पलटा -
ऐसा क्या हो गया आज कि वह खुद से ही भागता हुआ इधर उधर डोल रहा है । केसर को इस घर में आये हुए साल होने को है । तब से लेकर आज तक कई बार उसकी कोठरी में गया होगा । उसको बांहों में लेकर उसका रस पिया होगा । पर ये सब रात के अंधेरे में ही किया था । वह भी एक तरफा । केसर हमेशा पत्थर की सिल की तरह अडोल पङी रहती रही थी । कोई प्रतिक्रिया नहीं । कोई हाय तौबा नहीं । न कोई नफरत, न घृणा । प्रेम प्यार तो उसने कभी जाना ही नहीं । कभी इसकी उम्मीद भी नहीं की थी ।
बंसत कौर के साथ भी उसके संबंध औपचारिक अधिक थे । बस उसी तरह कि भूख लगी है , भोजन की थाली परोसी हुई सामने आ गयी तो खा लिया । स्वाद लगा तो मन भर कर वरना जितना शरीर को चाहिए उतना । देह की भूख जब भी जागती , बसंत कौर सहज उपलब्ध हो जाती । भूख मिट जाती तो वह करवट बदल कर सो जाता । इन सात सालों में प्यार जैसा कोई अहसास मन में जागा ही नहीं पर आज केसर की आँखें उसे चैन लेने ही नहीं दे रही । ऐसे में बसंत कौर का सामना वह कैसे करेगा ।
यह भी सच है कि बसंत कौर उसके और केसर के रिश्तों का सच जानती है पर आजतक न उसने कभी जताया कि वह सब कुछ जानती है , न भोला सिंह ने कभी बताने की जरूरत समझी । पर अब घर तो जाना ही पङेगा । बाहर कब तक घूम सकता है कोई । आखिर हार कर वह होदी से बाहर निकला । बदन पौंछ कर कपङे पहने । पैर में जुत्ती फंसाते हुए साइकिल पर सवार होकर घर की ओर चल पङा ।
केसर ने जब तक चारपाई से उठ कर खुद को सम्हाला , भोला सिंह साइकिल उठा कर गेट से बाहर जा चुका था । उसे अपने आप पर बहुत शर्म आई । ये आज उसे हो क्या गया था । इतने हल्के स्तर पर वह कैसे उतर गयी । अपनी मन की वासना का यूँ इजहार कैसे कर बैठी । भोला सिंह रूठ कर बाहर चला गया तो उसका क्या होगा । न भी रूठा हो तो वह अब उसकी नजरों का सामना कैसे करेगी । बसंत कौर के सामने कैसे जा पाएगी । जितना वह सोचती उतना ही उसका रोना निकल जाता । रोते रोते उसकी हिचकियां बंध गयी । बसंत कौर ने उसकी सिसकियाँ सुनी तो दौङ कर कोठरी में आई – क्या हुआ री केसर ।
इतनी बुरी तरह से रोये जा रही है । कहीं दर्द हो रहा है क्या ?
नहीं सरदारनी ।
बेबे जी की याद आ रही है ? मुझे भी उनकी बहुत याद आती है पर क्या करें । जिस रास्ते वे चली गयी , वहाँ से कोई रास्ता वापिस नहीं आता । . चल उठ बाहर आ जा ।
आप चलो सरदारनी । मैं आती हूँ । बसंत कौर चली आई ।
केसर ने अपने आप को संभाला । नलके पर जाकर हाथ मुंह धोया फिर नौहरे में जाकर गोबर तसले में डालने लगी ।
पथकन में उपले बना कर एक घंटे से अधिक समय बिताकर जब वह आँगन में आई तब तक वह बहुत संयत हो चुकी थी और सबसे बङी बात कि अभी तक भोला सिंह बाहर से लौटा नहीं था ।

बाकी फिर ...