चरित्रहीन.......(भाग -9)
हम जो सोचते नही वो जब हो जाता है तो समझ ही नहीं आता कि ये सच है या सपना। मुझे भी ऐसा लग रहा था कि ये एक बुरे सपने से ज्यादा नही है, अभी सब ठीक हो जाएगा...झूठी दिलासा देने वाला भी कोई नहीं था...! अगले दिन मम्मी पापा का अंतिम संस्कार किया गया। मेरे दिमाग में बस यही था कि मैं वरूण से बड़ी हूँ, मुझे उसको संभालना है। बहुत बिलख बिलख कर रो रहा था वो बिल्कुल बच्चों के जैसे....! वो बार बार यही कहता जा रहा था कि," दीदी हमने किसी का क्या बिगाडा था, जो हमारे साथ ये हो गया"। इसका जवाब किसी के पास कहाँ था...विकास भैया भी चौथे दिन पहुँच गए थे। एम्बुलेंस से मम्मी जी, पापा जी और आकाश का पार्थिव शरीर लाया गया। दूर और पास के रिश्तेदार भी पहुँच गए थे। आरव और अवनी वैसे ही दोनो घरों में लोगों के आने जाने से चिड़चिड़े हो रहे थे। मुझे तो अपने दुख पर दुखी होने का टाइम ही नही मिल रहा था।एक्सीडेंट वाले दिन से ले कर हम बहन भाई एक मिनट के लिए आँखे बंद नहीं कर पा रहे थे....आँखों के आगे से वो भयानक मंजर हट ही नहीं रहा था.....विकास भैया के आते ही रोके हुए आँसुओं का बाँध टूट गया। अगले दिन तीनों का दाह संस्कार विकास भैया ने ही किया। कुछ रिश्तेदारों ने कहा, "आरव से आकाश का अंतिम क्रिया करवानी चाहिए"! आकाश की बुआ और मामाजी ने "आरव बहुत छोटा है, छोटा भाई भी बेटे समान है, उसी को करने दिया जाए", ने कहा तो वरूण को भी यही ठीक लगा। दोनो परिवारों में ब्रह्रामण भोज तक रिश्तेदारों का आना जाना लगा रहा। आकाश के साथ बिताए 8 साल हमेशा आँखों के सामने तैरते रहे। बच्चे अपने पापा के बारे में बार बार पूछते रहते.....दादा दादी का मिस करते, उनकों समझाना मुश्किल हो जाता था।
विकास भैया भी तीन हफ्ते की छुट्टी ले कर आए थे, पर यहाँ आकर उन्हें फैक्टरी के बारे में भी फैसला लेना था तो उन्होंने अपनी छुट्टियाँ बढवा ली। उधर वरूण का मन उचाट हो गया था। काम देखने की इच्छा ही नही हो रही थी उसकी....बाहर जाने से डरने लगा था। न खुद जाना चाहता न ही नीला को.....!! नीला चाहती थी कि कुछ दिन मैं उनके पास आ कर रहूँ। विकास भैया यहाँ थे तो बच्चों को ले कर वहाँ जाना मैं टालती रही। कुछ दिन वो लगातार फैक्टरी जाते रहे, पर उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि पापा जी के कैम को कैसे संभाला जाए? न मुझे समझ थी इस काम की न विकास भैया को। जब बुरा वक्त आता है तो रिश्तेदारों और दोस्तों की असली पहचान होती है। हमारी फैक्टरी के मैनेजर अच्छे और ईमानदार निकले। उन्होंने विकास भैया को सारा हिसाब किताब बताया और किन से कितना पेमेंट आना है? सब डिटेल्स थी हमारे पास तो धीरे धीरे वो सारी पेमेंटस ला कर वो हमें देते रहे, पर दो लोग ऐसे भी निकले जिन्होंने कहा कि वो तो पैसा दे चुके हैं आकाश को.......!
मैनेजर का कहना था कि वो लोग झूठ बोल रहे हैं, पर किया कुछ नहीं जा सकता था क्योंकि उनका कहना था कि कैश दिए हैं। विकास भैया और मैंने घर मैं चेक किया पर पैसा नही था। हम कुछ नहीं कर सकते थे क्योंकि उनका कहना था,"आकाश जी ने बोला था कि पैमेंट की रसीद वो हरिद्वार से आ कर भिजवा देंगे"।हम दोनो ही समझ गए थे कि हम ये काम नहीं संभाल पाएँगे तो हमने फैक्टरी को बेचने का मन बना लिया। जब फैक्टरी बेचने की बात मार्किट में फैली तो खरीदार भी आने लगे......एक महीना लग गया था फैक्टरी बेचने में। सब कुछ सैटल कर विकास भैया वापिस चले गए। फैक्टरी पर उनका भी आधा हक बनता था तो मैंने उन्हें पैसा दो हिस्सों में करने को कह दिया। वो मना कर रहे थे,पर मैं नहीं चाहती थी कि विकास भैया को को उनका हक न मिले.....जिस घर में हम रह रहे थे, मैंने उनसे इसे भी बेचकर आधा हिस्सा लेने को कहा तो उन्होंने ये कह कर मना कर दिया कि ये आपका घर है, अगर मैं कभी वापिस आया तो इसी घर में ही आऊँगा.....पापा जी और आकाश के इंश्योरेंस के पैसे भी कुछ महीनो की औपचारिकताओं के बाद मिल गए। सब पैसा मैंने आरव और अवनी के लिए फिक्सड कर दिया उनके भविष्य के लिए।विकास भैया के जाने के बाद घर सूना हो गया। बच्चे स्कूल चले जाते तो उसके बाद का टाइम काटे नहीं कटता। उनके आने के बाद फिर से बिजी हो जाती। बच्चों की जब भी स्कूल की छुट्टियाँ होती मैं उन्हे मामा मामी के पास ले जाती। वरूण धीरे धीरे नार्मल हो रहा था। मैंने काम में उसकी थोड़ी बहुत घर से ही मदद करनी शुरू कर दी। नीला ने बहुत समझदारी से सब कुछ संभाल लिया था। मम्मी पापा की फोटो दिवार पर लगी देख मन कचोटने लगता। मामा के घर आ कर बच्चों का मन बहल जाता और वैभव भी खुश रहता। पापा के होते हुए वरूण को बड़े बड़े फैसले अकेले नहीं लेने पड़ते थे, हर काम पापा से सलाह ले कर करने की आदत होने से वरूण का आत्मविश्वास अपनी काबलियत पर डगमगाने लगा था। वरूण अब हर छोटी बड़ी बात मुझसे शेयर करने लगा था। मैं कई बार कहती भी की नीला को बताया कर तो वो कहता, "नहीं दीदी, अगर मुझे कुछ हो जाए तो आप सब संभाल लोगी, नीला नहीं कर पाएगी"! मम्मी पापा के जाने के बाद उसे लगने लगा था कि मौत का पता नहीं चलता इसलिए तैयार रहना होगा, जिसकी वजह से मैं उस पर बहुत बार खीज भी उठती थी।जब हमें पता चला कि नीला फिर से माँ बनने वाली है,तो हम बहुत खुश हुए। वरूण ने उसी दिन से कहना शुरू कर दिया था, "दीदी देखना हमारी मम्मी ही आएँगीं वैभव की बहन बन कर"! समय बहुत बलवान होता है, हर जख्म तो भर देता है,बस निशान छोड़ जाता है। वाकई नीला ने बेटी को जन्म दिया और वरूण ने उसका नाम अनुभा ही रखा। मेरी भतीजी आ गयी और तीनो बच्चों को बहन मिल गयी। सबसे बड़ा बदलाव वरूण में आया। वो बहुत खुश रहने लगा था। घर आते ही वैभव और अनुभा के साथ खेलता रहता। मैं खुश थी अपने भाई के लिए। काम के प्रति जिम्मेदार तो वो हमेशा से था, पर उस वक्त वो जी जान से एक प्रोजेक्ट में लगा हुआ था। मैं भी उसकी हेल्प कर रही थी, भीकाजी कामा प्लेस मैं एक बिल्डिंग बन रही थी और उसमें सब ऑफिस बन रहे थे। मैं अपना काम देख रही थी आर्किटेक्ट का और वो बाकी सब काम देख ही रहा था। मैं भी उसके साथ जिनसे मिलना रहता था मिलती रहती थी, उनकी डिमांड के हिसाब से डिजाइन किया जा रहा था स्पेस को क्योंकि जितने ऑफिस बन रहे थे, उनकी प्री बुकिंग हमने कर ली थी और एक ऑफिस का स्पेस मेरे कहने पर उसने अपने लिए रख लिया था.....! सब कुछ नार्मल करने की कोशिश थी मेरी पर जो चाहो वो होता नहीं। एक आदमी से मुझे अकेले मिलने जाना पड़ा, उसे मैंने बताया कि मुझे वरूण जी ने भेजा है, वो आदमी पहली बार देखने में ही ठीक नहीं दिख रहा था। वरूण अगर उस आदमी से पहले मिला होता तो मुझे अकेले नही आने देता। पूरी मीटिंग के दौरान उसकी नजरे मुझे और मेरे शरीर को तौलती सी लगी मुझे....बार बार मुझे देख कर मुस्कुरा रहा था। ऐसे क्लाइंटस से मेरा वास्ता कभी नहीं पड़ा था, पर काम भी तो करना ही है सोच कर, जैसे तैसे मीटिंग खत्म कर मैं उठ गयी, उसने मुझे लंच के लिए ऑफर किया तो मना कर दिया। "वो बोला मिस्टर वरूण आपको कितनी सैलरी देते हैं मिस वसुधा"? "क्यों सर, आपने क्यों पूछा"? मुझे लगता है कि आपको कुछ और काम करना चाहिए, ये काम आपको बोरिंग नहीं लगता? मेरे ख्याल से आपको P.R.टाइप जॉब करना चाहिए....आप इतनी ब्यूटीफुल हैं और टेलेंटिड भी".... जी सर ये सब मुझे पता है, पर क्या है कि मैं "वरूण डोवेल्पर्स" में पार्टनर हूँ और अपना काम खुद करना मुझे पसंद है, लड़कियाँ शो पीस ही नहीं होती हैं, जिन्हें कोई भी छू कर देख ले। मैंने आपकी रिक्वायरमेंट्स नोट कर ली हैं, आपका काम जल्दी ही शुरू हो जाएगा"! वो वहीं खड़ा हुआ मेरे पलटने के बाद भी मुझे घूरता रहा, उसकी गड़ी हुई नजरों को मैंने अपनी पीठ पर महसूस
की थी। ये मेरा पहला अनुभव था, जब लड़की होने का दुख हुआ था और आदमी ऐसे भी होते हैं, इस बात की समझ भी। पापा शायद इन्हीं सभी बातों से ही तो बचाया करते थे, बाहर देर तक न घूमने दे कर, आने जाने पर नजर रख कर ऐसी बुरी नजरों से मम्मी पापा ने बचाया, पर तब तो लगता था कि पापा जैसे स्ट्रिक्ट पापा किसी के भी नहीं होंगे। आकाश भी तो हमेशा ध्यान रखते रहे हैं। पापा के होते हुए मैंने काम के लिए अकेली मिली भी नहीं थी.....!
क्रमश: