Ishq a Bismil - 18 in Hindi Fiction Stories by Tasneem Kauser books and stories PDF | इश्क़ ए बिस्मिल - 18

Featured Books
Categories
Share

इश्क़ ए बिस्मिल - 18

उसने कभी नही सोचा था उसकी शादी ऐसे होगी। जल्दबाज़ी की बात अलग वह उस लड़की को जानता नहीं होगा, उस से पहले कभी मिला नहीं होगा यहां तक कि तस्वीर में भी नहीं देखा होगा। उसे उस लड़की पर बहुत गुस्सा आया था जिसने उस से निकाह के लिए हां की थी। उसने अपने बाबा को ज़बान दी थी कि अगर वह लड़की शादी के लिए राज़ी हो जाती है तब वह भी तैयार हैं। वह अपनी ही कहीं बातों में फंस गया था। अब पीछे कोई रास्ता नहीं था।
ज़मान ख़ान बहुत ख़ुश नज़र आ रहे थे। वह उसे लेकर पेशे इमाम के पास गए थे और उन्हें निकाह के बारे में बता रहे थे।
थोड़ी ही देर में ज़मान ख़ान के दो दोस्त भी पहुंच गए थे। सब कुछ बहुत जल्दी हो रहा था और उमैर ना चाहते हुए भी सब बर्दाश्त कर रहा था। ज़मान ख़ान सबको लेकर अरीज के पास पहुंच गए थे। अरीज ने ग्रीन कलर की सलवार कमीज़ पहन रखी थी लम्बे घने बालों की एक चोटी बनाई हुई थी जो सर पर दुपट्टा रखने के कारण छुप गया था। बहुत ही सादा सा हुलिया था फिर भी चेहरे पर मासूमियत की ख़ुबसूरत थी। उमैर इस जल्द बाज़ी पर ना ख़ुश था इसलिए हुजरे में दाख़िल होने के बावजूद उसने चीढ़ से अरीज की तरफ़ नहीं देखा वरना वह इतनी आम सी शक्लो सूरत की नहीं थी के उसे नज़र अंदाज़ कर दिया जाए। अगर सब कुछ नार्मल तरीके से होता तो वह ज़रूर उसे पसंद कर सकता था।
अरीज ने सर अदब से झुका लिया था। दो कुर्सियां साथ लगाई गई थी जिसमें अरीज और उमैर को बैठा दिया गया था। बाकी सारी कुर्सियों पर ज़मान ख़ान, उनके दो दोस्त इरशाद हुसैन और गुलज़ार करीम, ड्राइवर नदीम और इमाम साहब थे।
क़ाज़ी साहब ने पहले अरीज को कलमा पढ़ाया उसके बाद निकाह....”अरीज ज़हूर वल्द इब्राहिम ख़ान आपका निकाह उमैर ख़ान वल्द ज़मान ख़ान के साथ किया जा रहा है, रहाइशी बंगला जिसकी क़ीमत ६० करोड़ रूपए है, हक़ मेहर के तौर पर आपको दिया जाता है, क्या आपको यह निकाह कुबूल है?” अरीज को अपने कानों पर यक़ीन नहीं हुआ था। क्या उसने सही सुना था? वह बेयक़ीनी से सर उठाकर ज़मान ख़ान को देखने लगी, तो दुसरी तरफ उमैर को भी झटका लगा था, उसे भी यक़ीन नहीं हो रहा था उसके बाबा एक अनजानी लड़की के साथ ना सिर्फ उसका निकाह कर रहे थे बल्कि हक़ मेहर के तौर पर ६० करोड़ का बंगला भी दे रहे थे। ज़मान ख़ान हाथ बांधे अरीज को देख रहे थे। तभी क़ाज़ी साहब ने अपने अल्फ़ाज़ को फिर से दोहराया था।
“अरीज ज़हूर वल्द इब्राहिम ख़ान आपका निकाह उमैर ख़ान वल्द ज़मान ख़ान के साथ किया जा रहा है, रहाइशी बंगला जिसकी क़ीमत ६० करोड़ रूपए है, हक़ मेहर के तौर पर आपको दिया जाता है, क्या आपको यह निकाह कुबूल है?”
अरीज ने कुछ ग़लत नहीं सुना था, उसकी आंखें आंसुओ से भर गई थी, कुछ देर पहले ही उसने ज़मान ख़ान को कितना गलत समझा था कि वह उसे बोझ समझकर उसका निकाह करवाना चाहते हैं, उससे छुटकारा पाना चाहते हैं मगर हक़ीक़त में उन्होंने उसे अपने घर की इज्ज़त बनाना चाहा था। अपने बेटे से निकाह करवाना चाह रहे थे और देन मेहर में उसे उसके नाम की छत भी देना चाह रहे थे। अरीज ख़ामोश थी उसकी खुद्दारी आड़े आ रही थी। उसे आसरा चाहिए था, छत चाहिए थी, तहफ़्फ़ुज़ चाहिए थी मगर दौलत नहीं चाहिए थी। किसी की अच्छाई का फ़ायदा उठाना नहीं चाहती थी।
“बेटा जवाब दिजिए।“ ज़मान ख़ान उसे चुप देख कर बोल पड़े थे। उमैर को उसकी ख़ामोशी ने एक उम्मीद दिलाई थी कि वह इस आज़माइश से बच जाएगा।
अरीज कशमकश में थी उसने ड्राइवर नदीम की गोद में सोई हुई अज़ीन को देखा। एक तरफ खुद्दारी थी तो दूसरी तरफ़ ज़िम्मेदारी।
“अरीज ज़हूर क्या आपको यह निकाह कुबूल है?” क़ाज़ी साहब ने फिर से दोहराया।
“कुबूल है।“ उसने सर झुकाकर कहा। उमैर की उम्मीद पर पानी फिरा था। उसे महसूस हो रहा था कि उसके गले में कोई फंदा लगा है।
“क्या आपको यह निकाह कुबूल है?”
“जी।“ फंदे में एक के बाद दूसरी गीरह लगी थी।
“क्या आपको यह निकाह कुबूल है?”
“जी।“ तीसरी गिरह, उसे अपनी सांसे भारी लगने लगी।
“मुबारक हो! मुबारक हो!” क़ाज़ी साहब ने मुबारक का नारा लगाया।
अब उमैर की बारी थी। क़ाज़ी साहब ने निकाह पढ़ा था। उमैर ने बाप को देखा, उनका चेहरा ख़ुशी से दमक रहा था। उमैर की आंखें नम होने लगी तो उसने सर झुका लिया और कुबूल है कह दिया। उसके तीसरी बार कुबूल है कहते ही ज़मान ख़ान अपनी कुर्सी से उठे थे और उसे कस कर गले लगाया था और मुबारकबाद दी थी। उसके बाद सब ने उसे, अरीज को और ज़मान ख़ान को मुबारकबाद देने लगे। ख़ुशी की गहमागहमी से अज़ीन की नींद टूट गई थी।
निकाहनामा पर दोनों ने बारी बारी दस्ताख़त की और फिर दुआ के लिए सबने हाथ उठाएं थे।
एक दिन में क्या से क्या हो गया था। सुबह तक दोनों इस बात से बेखबर थे कि उनकी ज़िंदगी इस तरह करवट बदलेगी।
निकाह से फ़ारिग होकर ज़मान ख़ान ने एलान किया था कि वह हक़ मेहर इसी वक़्त अदा करना चाहते हैं। उनकी बात सुनकर सभी ने एक साथ सुब्हान अल्लाह कहा था, जबकि उमैर चुपचाप अपने बाबा को देखते रह गया था। उसके बाबा को आज हर चीज़ की जल्दी थी, वह ऐसा क्यों कर रहे थे उमैर की समझ से बाहर था।
ज़मान साहब ने फ़ाइल से कागज़ात निकाली थी और क़ाज़ी साहब की तरफ़ बढ़ाया था, क़ाज़ी साहब ने कागज़ात को अच्छे से पढ़ा था और काफ़ी ख़ुश भी हुए थे।
“अपनी ३० साल के पेशे में मैंने पहली दफ़ा ऐसा देन मेहर देखा है, शाबाश मियां!” उन्होंने ज़मान ख़ान को सराहा था। उमैर सिर्फ़ अपना गुस्सा पी कर रह जा रहा था।
क़ाज़ी साहब ने काग़ज़ात उमैर की तरफ़ बढ़ाया था और उस पर दस्तखत करने को बोल रहे थे। उमैर ने काग़ज़ात लेकर पढ़ना शुरू किया और जैसे जैसे वह पढ़ रहा था वैसे वैसे उसके दिमाग़ की नसें जैसे फटती जा रही थी। उसने काग़ज़ात से नज़रें उठाकर गुस्से में अपने बाप को देखा था।