सुबह टेलीफोन की घंटी बज उठी , उस वक्त मैं आंख बंद कर आधे नींद में था। शायद सुबह के 10 बजने वाले थे । रात को कुछ ज्यादा ही समय तक एक लेखन पर जुटा हुआ था इसलिए अब तक सो रहा था ।
फोन उठाया उधर पत्रिका सम्पादक दिवाकर चटर्जी जी थे बोले ,
" प्रशांत जल्दी से ऑफिस आ जाओ एक जरूरी काम करना है । "
" ओके सर "
यह कहकर फोन रख दिया । अब क्या हुआ कौन सा बादल फट गया । मैंने आंख मलते हुए बड़बड़ाया । वैसे भी पत्रिका ऑफिस में ऐसा क्या काम आ गया । मैं प्रशांत बसु कोलकाता में एक पत्रिका में लेखक हूँ । मेरा पत्रिका में अपना एक कॉलम है जिसमें मैं कईरहस्यमय घटनाओं व कहानियों को लिखता हूँ । मेरे इस भाग को लोग काफी पसंद भी करतें हैं इसलिए कुछ सालों में पत्रिका बिक्री की संख्या में आश्चर्यजनक बढ़ोत्तरी भी हुई है । कई लेटर मुझे प्रतिदिन आतें हैं कि मेरे रहस्यमय घटना की कहानियां उन्हें पसंद है ,आगे और भी ऐसी कहानियां लिखूं । इसी एक कॉलम में लिखने के मुझे जो पैसे मिलतें हैं उसी से अपना गुजारा कर रहा हूँ । इसलिए अपने काम में बहुत ध्यान भी देता हूँ ।
ऑफिस पहुंचा दिवाकर चटर्जी के चेहरे को देखकर मैं समझ गया कि इनके मन में क्या चल रहा है ।
मैं बोला –
" चटर्जी सर फिर कहीं भेजने का प्लान तो नही है ।"
दिवाकर जी हँसकर बोले – " तुम तो मन के बात भी जानजाते हो । पुरुलिया का नाम सुना है । "
मैं हँसतें हुए बोल गया – " बंगाली होने का क्या फायदा , जब मैं पुरुलिया के बारे में ही नही जानता । "
दिवाकर जी बोले – " मजाक कर रहा हूँ , तो बात ये है कि पुरुलिया के पास ही एक स्टेशन है बेगुनकोडोर। "
मैं दिवाकर चटर्जी की बात काटते हुए बोला – " हाँ कुछदिन पहले पेपर में आर्टिकल पढ़ी थी कि कई साल बाद वहां ट्रेन रुक रही हैं । "
दिवाकर बोले – " हाँ सही कहा , उस स्टेशन को लोग भूतिया मानते हैं । पर उसके बारे में किसी पत्रिका में कुछ कहानी छपा है , मुझे यह नही लगता । तुम जाकर वहां के लोगों से सही तथ्य का पता करो और रहस्य कॉलम में एक बेहतरीन कहानी लिखो । "
" ठीक है , मैं कल निकलता हूँ । "
इतना कह मैं चला आया ।
वैसे आपको उस स्टेशन के बारे में बता दूं तो वह स्टेशन पुरुलिया और बोकारो की लाइन में पड़ती है । वहां के सब मानतें थे कि वह एक भूतिया स्टेशन है इसीलिए इस स्टेशन को 1967 में बंद कर दिया गया था और इस साल 2009 में 42 साल बाद चालू किया गया और रांची - हटिया एक्सप्रेस की हाल्ट तय हुई । सुना एक ट्रेन के हाल्ट के लिए वहां के गांव वालों ने कड़ी मेहनत कर भाग दौड़ की और अन्त में ममता बनर्जी ने इस ट्रेन की हाल्ट तय की ।
अगले दिन पुरुलिया पहुँच गया और एक होटल में ठहरगया दोपहर का भोजन कर साइंस म्यूजियम व जिला लाइब्रेरी और अन्य जगह घूमने चला गया । फिर ट्रेन से बेगुनकोडोर पहुंच गया , आदिवासी के हड़ताल की वजह से आज यह ट्रेन देर से आई थी बेगुनकोडोर पहुँचतें - पहुँचतें रात के 10 बज गए । ट्रेन 6 घंटे देरी से आई थी । तभी इतनी रात हुई । जब स्टेशन पर उतरा तो देखा मेरे अलावा और कोई भी इस स्टेशन पर नहीं उतरा ।
प्लेटफार्म पूरी तरह निर्जन है क्या पता ठीक जगह ही तो उतरा हूँ या नहीं । पीछे घूम कर देखा नही कोई भूल नही हुई है । प्लेटफार्म के खम्बे पर एकमात्र जलते लाइट में साफ दिखा कि एक पीले बोर्ड पर लिखा हुआ है, बेगुनकोडोर । और कुछ न सोचकर मैं सीधा स्टेशन मास्टर के केविन की तरफ गया लेकिन वहां जाकर भी हताश होना पड़ा आसपास के किसी भी केविन में लाइट नही जल रही ।
' गए कहाँ सब , तो क्या रात में यहाँ कोई स्टेशन मास्टर नहीरहते ।' खुद के मन में ही यह सब कह रहा हूँ । समझा यहां किसी को बुलाने से कोई लाभ नही । आसपास भी किसी घर के चिन्ह तक नही हैं । बहुत दूर दो - चार लाइट दिखी , शायद वहां लोग हो सकतें हैं । इसके अलावा चारों तरफ खेत व पेड़ । मैं भयभीत व डरने वालों में से नही हूँ लेकिन पूरी रात इस स्टेशन पर रहने को मन राजी ही ना हुआ । इसका एक कारण यह है कि इस जगह के आसपास लूटपाट की घटनाएं अक्सर ही पेपर में पढ़ता हूँ । इसीलिए इस सुनसान जगह ऐसे किसी मुसीबत में पड़ने का मेरा कोई प्लान नही है । मेरे बैग में रात का खाना और पानी है इसलिए निश्चिंत हूँ, अब केवल एक रात रुकने के लिए जगह मिल जाये । यह सब सोच ही रहा हूँ कि किसी ने पीछे से बुलाया ।
" कहाँ जाओगे "
इस सुनसान जगह मनुष्य के गले की आवाज सुनने के कारण चहक उठा था । तुरंत पीछे मुड़ कर देखा तो एक आदमी लुंगी और बनियान पहन कर खड़ा है । स्टेशन के जलते धीमे लाइट में जो समझा आदमी का उम्र , यही कोई 60 के आसपास है । मध्यम ऊँचाई , सिर टकला और शरीर का रंग काला ही बोल सकतें हैं । पर चेहरा ठीक से देख नही पाया ।
" आप जाओगे कहाँ ? " फिर प्रश्न किया आदमी ने ।
इसबार मैं बोला – " यहां कहीं रहने का कोई जगह है? "
" यहां पर तो नही है पर आपको आपत्ति न हो तो रात आप मेरे घर में रात काट सकतें हैं । "
यह बात सुनकर मैं निश्चिंत हुआ । मन ही मन में सोचा चलो रात में कम से कम किसी दुष्ट के हाथ नही पडूंगा ।
मैं बोला – " आपने बचा लिया , खड़े होकर यही सोच रहा था कि रात कहाँ गुजारूं । आपको कैसे धन्यवाद दूँ समझ नही पा रहा । "
बात समाप्त होने पर वह आदमी थोड़ा सा हँसकर बोला –" समझ जाएंगे , आइये आप मेरे साथ । "
यही बोलकर मेरे आगे आगे वह आदमी चलने लगा मैंने भी उन्हें अनुशरण किया । लेकिन फिर एक बात मेरे मन में आ रही थी कि इस आदमी ने जिस घर के बारे में बात की वह कहाँ है? आसपास तो कुछ नही है । तथा अब तक जिस बारे में ध्यान नही दिया वह अब याद आया कि यह आदमी आया कहाँ से, मैं जब ट्रेन से उतरा तब तो स्टेशन पूरा खाली था । क्या पता रहस्य व रोमांच लेकर हर वक्त सोचने की वजह से ऐसे प्रश्न मन में आ रहें हैं । मन के सभी आशंका को फेंक कर मैंने अपना परिचय देते हुए उनका नाम पूछा ।
उस आदमी ने कहा – " हितेशचंद्र "
यह बोलकर हाथ उठा सामने की तरफ इशारा किया।
" वह देखिए वही मेरा घर है । "
देखा तो सही में कुछ दूरी एक छोटे से घर के आगे एक लालटेन जल रहा है । ये स्टेशन के पीछे होने के कारण , शायद तभी नही दिखाई दिया । घर का दरवाजा खोलकर हितेश जी मुझे अन्दर आने को कहे । मेरी एक आदत है कि कहीं से आकर हाथ पांव ना धोकर घर के अंदर नही जाता। वो चाहे किसी का घर क्यों न हो और वैसे भी ट्रेन सफर के कारण चेहरे पर पानी के दो छींटे जरूरी हैं ।इसीलिए बोला – " अच्छा हाथ पैर धोने का पानी मिलेगा । "
" हाँ हाँ जरूर "
बोलकर हितेश बाबू घर के बाएं तरफहाथ से इशारा करके बोले –
" उधर देखिए एक कुआं है थोड़ा कष्ट करके से पानी उठाना पड़ेगा । "
" अरे नही नही परेशानी किस बात की मैं अभी आता हूँ । "
बोलकर घर के दरवाजे पर बैग को रखकर कुएं पर हाथ- पैर धोने गया । फिर बैग से गमछा निकाल हाथ पैर पोंछकर घर के अंदर गया । घर के अंदर वैसे कुछ ज्यादा नही है । दो खटिया , एक स्टील का बॉक्स और रस्सी में झुलाए गए प्रतिदिन के कपड़े । घर के दाहिने तरफ बेड़े से बनाया एक और कमरा था शायद खाना बनाने का घर था ।
मैंने हितेश जी से पूछा – " आपके घर में और कोई नही हैं ?"
" नही , मैंने शादी नही की अकेला ही रहता हूँ , स्टेशनमास्टर का काम कर देता हूँ व खाना बना देता हूँ । उसी से मेरा चल जाता है । "
इतने देर बाद वह बात मुझे याद आया , बोला – " अच्छा यहां के स्टेशन मास्टर को तो कहीं नही देखा । कहीं गए हैं क्या ?"
यह सुन हितेश जी हँसकर बोले – " जाएंगे और कहाँ ,हम क्या कहीं जा सकतें हैं । आसपास ही कहीं हैं ।इधर चोरी डैकती बहुत बढ़ गया है । स्टेशन के गोदाम में माल रखे होते हैं शायद वहीं देखभाल करने गए होंगें ।अच्छा आप इतनी रात को यहां क्यों आएं हैं ? "
खराब वक्त में जो मनुष्य आपकी मदद करतें हैं उसके साथ कुछ छुपाना ठीक नही इसीलिए मैंने भी सब खुलकर बता दिया । सब कुछ सुनकर कुछ क्षण के भीतर ही हितेश जी का चेहरा गंभीर हो गया लेकिन फिर भी चेहरे पर शांत भाव लाकर बोले –
" देखिए बात ही बात में आपसे खाने पीने की बात तो भूल ही गया । "
मैं उन्हें रोकते हुए बोला – " अरे नही नही हितेश जी रातका खाना मेरे पास है मैं खा लूंगा । आप बल्कि इस स्टेशनके बारे में मुझे कुछ बताइए । मतलब इस स्टेशन को लेकर जो सब भूतिया कहानी सुनाई जाती है , क्या वह सच है? सुना है किसी लड़की की आत्मा ट्रेन लाइन के ऊपर इधर उधर चलती है । आपने देखा है कभी?"
हितेश जी ने एक बार मेरे चेहरे को देखा फिर सिर झुकाकर बोले – " कहानी हो सकता है , लेकिन मेरे लिए यह ऐसा है मानो अभी कुछ दिन पहले की घटी घटना। मैंने उसको खुद के आंखों से देखा है ।यह लगभग आज से 40 वर्ष पहले की घटना है "…..
हितेश बाबू बोलते रहे – " यह लगभग आज से 40 साल पहले की घटना है। हमारे ही गांव की एक लड़की आरती , उसके साथ शादी हुई थी यहीं पास के गांव के एक लड़के के साथ , उसका नाम रतन था । दोनों को ही मैं पहचानता था । आरती को तो मैं बचपन से जनता था , मुझे काका काका कहकर बुलाती थी । शादी के कुछ महीने तो ठीक रहे लेकिन फिर इस घटना का जड़ शुरू हुआ । रतन रतन दारू पीकर आने के बाद आरती को मारता । बचपन से ही आरती को देख रहा हूँ अगर मेरी बेटी होती तो शायद उतनी बड़ी ही होती ।इसीलिए उसकी यह दशा देखकर बहुत बुरा लगता था । मां स्वर्गवासी लड़की और बाप का भी शरीर ठीक नही था , कब मर जाये क्या पता । इसीलिए किसी तरह उसकी शादीकर दी थी ।
लेकिन हुआ उल्टा बाप बच गया मर गई लड़की । …….. उस रात स्टेशन मास्टर गोदाम के सामान देखने गए थे और मैं स्टेशन के बेंच पर लेटकर इधर - उधर कर रहा था बाहर अच्छी हवा थी इसीलिए नींद से आंख भी बंद हो रहा था और उधर मालगाड़ी आने का भी समय हो गया था । ठीक उसी वक्त मैंने सुना कि कोई लड़की रो रही है । इतनी रात में एक लड़की यहां क्या कर रही है? यही सोचकर जल्दी से उठा तो देखा कुछ ही दूरी पर आरती बैठकर रो रही है । मैंने जल्दी से पास जाकर पूछा ' तुम यहाँ इतनी रात को क्या रही हो बेटी और रो क्यों रही हो '
वह बोली कि ' तपन मुझे गलत रास्ते पर उतरना चाहता था यही सुनकर मैंने उसे गली दे दी और उसने मुझे बहुत मारा मैं और नही जिऊंगी काका, मैं अब मरूँगी । '
मैंने बोला ' नही नही ऐसी बात नही करते , तुम्हारी भाग्य ही खराब है सब ठीक हो जाएगा । 'इसी बीच मैंने देखा स्टेशन मास्टर भी वहां आ गए हैं।यह सुनकर वह तो बहुत गुस्सा हो गए और बोले -' इन सब बदमाशों को तो जेल में भेजना चाहिए , हरामी जानवर कहीं के । तुम मत रोओ बेटी जाओ घर जाओ। कल एक बार मैं खुद ही तुम्हारे यहां जाऊंगा, अभी तुम घर जाओ । वैसे तुम अकेली जाओगी कैसे , हितेश तुम उसको घर छोड़ आओ । 'यही बोलकर स्टेशन मास्टर चले गए। मैंने आरती को बोला कि तुम यहीं बैठी रहो मैं लालटेन लेकर आता हूँ। यह बोलकर मैं घर की तरफ आ रहा हूँ तब मालगाड़ी की आवाज सुनाई दी । क्या कहूँ आपको एक डर सीने के अन्दर दौड़ गई मैं फिर जल्दी से स्टेशन की तरफ भागा। जाकर देखा आरती मालगाड़ी की तरफ जा रही है । मैं उसे पकड़ने के लिए चिल्लाते हुए पीछे से भागा लेकिन वह सीधे कूद गई मालगाड़ी के सामने फिर बहुत तेज एक चिल्लाहट ।
हे भगवान ! वह क्या दृश्य था आपको कहकर नही समझा सकता। मालगाड़ी के डिब्बे में तब भी उसके सफेद साड़ी का टुकड़ा उड़ रहा है । "
हितेश जी ने जब इतनी बात समाप्त की इसी बीच लालटेन के उस प्रकाश में पूरा परिवेश कुछ बदल सा गया था । हितेश जी के कहानी सुनाने की वजह से ही हो या चाहे मेरे ट्रेन यात्रा के कारण ही हो पर मुझे अन्दर से ऐसा लग रहा था कि मैं सिमटा जा रहा हूँ । ठीक उसी वक्त मैंने देखा घर के अन्दर एक लंबा सा परछाई दिख रहा है । मैं चौंक कर बाहर की तरफ देखा ।
हितेश जी खटिए से उतरकर बाहर की तरफ देखते हुए हँसकर बोले – " अरे आइये स्टेशन मास्टर जी , इन्ही के साथ बात कर रहा था । "
इतना कहते ही घर के भीतर हितेश जी के उम्र के ही एक लोग ने प्रवेश किया । उनके पोशाक को देखकर ऐसा लगा कि यही स्टेशन मास्टर हैं ।
घर के अन्दर आते ही उस आदमी ने मुझसे बोला – " इतनी रात को आप यहां क्या कर रहें हैं? " क्या करूँ फिर पहले से उन्हें सब कुछ बताना पड़ा ।इसके बाद दो तीन और कुछ बातों के बाद स्टेशन मास्टर ने हितेश जी से कहा – " हितेश चलो देखतें हैं आज क्या होता है? गाड़ी का समय तो हो ही गया है । "
हितेश बाबू ने मुझसे कहा – " चलिए आप भी हमारे साथ।"
हितेश जी और स्टेशन मास्टर दोनों स्टेशन की तरफ चलने लगे । कहाँ जा रहें हैं दोनों लोग? यह बात मन के भीतर आने पर भी मैंने मंत्रमुग्ध होकर उनका अनुशरण किया ।
स्टेशन पर आकर देखा कोई भी कहीं नही हैं । गए कहां दोनों? दो - तीन बार बुलाया भी ' हितेश जी ' ' हितेश जी 'लेकिन कहाँ किसी ने कोई जवाब ही नही दिया । केवल एक मालगाड़ी के आने की आवाज आ रही है । इसी बीच मैंने देखा जिस तरफ से मालगाड़ी आ रही है ठीक उसके विपरीत दिशा से एक सफेद साड़ी रेल लाइन के ऊपर से चली आ रही है । मेरे सामने पास आने पर देखा, मानो साड़ी किसी के शरीर पर लपेटा हुआ हो ।पर कुछ ही देर में देखा वो और कुछ नही वह एक लड़की की शरीर है । सही शरीर नही छिन्न भिन्न शरीर , सिर तो कंधे के पीछे कट कर झूल रहा है । कमर के नीचे का भाग किसी तरह चमड़े के साथ लगा हुआ है । पर वह शरीर हवा में ही मालगाड़ी की तरफ बढ़ रही है । यह दृश्य देख मैं मानो पत्थर सा हो गया। मानो मेरे ज्ञान बुद्धि सब शून्य हो गए । क्या यह वास्तव में है या कोई स्वप्न है। केवल मैंने समझा कि चाहते हुए भी जगह से मैं हिल नही पा रहा । मेरा धड़कन बहुत ज्यादा बढ़ गया है मानो अभी फट जाएगा ।लेकिन इसी बीच एक और दृश्य ने मुझे भय के अंतिम सीमा को पार करने पर मजबूर कर दिया । मैंने देखा कि ना जाने कहाँ से हितेश जी और स्टेशन मास्टर भी आकर उस कटे लड़की की शरीर के पीछे पीछे चल रहें हैं । तुरंत ही वह मालगाड़ी आकर उनके ऊपर से गुजरने लगी । ऐसा दृश्य और मालगाड़ी की आवाज यह सब कुछ मिलकर मेरे दिमागी संतुलन को निगलने लगे । मैं वहीं पर बेहोश होकर गिर पड़ा । उसके बाद और कुछ याद नही ।
जब होश आया तब सुबह हो गया था । मैं वहीं पर गिरा हुआ था । एक - एक कर रात की सभी बातें मुझे याद आयी । लेकिन तब भी सब कुछ कल रात की एक भयानक स्वप्न ही लग रहा था । किसी तरह उठकर हितेश जी के घर की तरफ गया । आश्चर्य वह घर कहाँ है यह तो झाड़ी व जंगल से घिरा एक जगह है। उसके ठीक बाएं तरफ कुएं के पास जाकर देखा तो वहां एक बहुत पुराना टूटा फूटा कुआं । भीतर झांककर देखा उसमें पानी की एक बूंद भी नही है । कल रात को मैं , मेरा सिर फिर घूमने लगा ।किसी तरह खुद को सम्हाल कल रात के घर के पास आकर देखा तो कुछ दूर ही मेरा बैग रखा हुआ है । बैग को हाथ में लेकर देखा खाना ,पानी ,तौली सब जैसे के तैसे ही हैं । कहाँ था मैं रात को कल , अच्छा क्या सब कुछ ही स्वप्न था या मैं भी अब बचा नही हूँ क्या मैं भी मर गया । कुछ भी सोच नही पा रहा मैं। खुद को किसी तरह स्टेशन पर ले गया और वहां एक बेंच पर बैठा । कुछ देर बाद पैंट शर्ट पहना एक आदमी साइकिल से उतरकर स्टेशन घर में जाएगा , उसी वक्त मुझे देखकर मेरे तरफ आये । मेरे आंख और चेहरे का क्या हाल हुआ है वह मैं नही जानता , हो सकता है कल रात के उस विभक्त घटना की छाया अभी भी मेरे चेहरे पर हो ।
वही देखकर उस आदमी ने मुझसे पूछा – " कौन हैं आप कहाँ जाएंगे? "
प्रश्न पूछने के कुछ देर बाद मैंने अपना परिचय देकर सब बात खुल कर बताया । सब कुछ सुनकर वह आदमी तो हतप्रभ हो गया ।
" सर्वनाश कल रात आप यहां थे । आपका भाग्य अच्छा है साहब । उफ्फ ! मेरा तो यह सब सुनकर ही हाथ पांव ठंडा होता जा रहा है । चलिए आप मेरे केविन में । "
यह बोलकर वह आदमी मुझे पकड़कर केविन में ले गया । पता चला यह आदमी ही यहां का स्टेशन मास्टर है नाम दिनेश रॉय ।उसके मुंह से ही यह बातें सुनी …..
" लगभग 40 वर्ष पहले उस लड़की की मौत के बाद और दो लोग मर गए थे । एक आदमी का नाम हितेश दास और एक उस वक्त के स्टेशन मास्टर । उसके बाद बहुतों ने उन तीनों को इस स्टेशन में घूमते देखा है ।यहां रात को कोई भी नही रहता । कल ट्रेन ने बहुत देर किया था इसलिए मैं भी यहां से चला गया था । मालगाड़ी के इंजन ड्राइवरों ने भी कई बार देखा है कि उस लड़की के पीछे वह दो आदमी भागे चले आ रहें है मानो वह उस लड़की को बचाना चाहतें हैं ।बहुत दिन से ऐसा होता रहा है इसलिए यहां किसी ट्रेन का हाल्ट नही था। वो तो हमारे रेलमंत्री ममता बनर्जी के कारण इस स्टेशन को फिर शुरू किया गया ।"
जो भी हो मेरे कई सवालों को छोड़ प्रमाण मुझे मिला ।दिनेश के अच्छे आचरण के चलते उनके रेल क्वार्टर में ही नहाना खाना हुआ । यह आदमी सच में ही बहुत अच्छे हैं। उसके ऊपर कोलकाता के रहने वाले , रोजगार के चलते ही यहां पर हैं । इसीलिए मेरे प्रति उनकी सहानुभूति में कोई त्रुटि नही रही । वहां से शाम के ट्रेन से पुरुलिया फिर सीधा अपने घर ।
अगले दिन यह सब कुछ सुनकर दिवाकर जी चिंतित होने से ज्यादा खुशी हुए और बोले – " क्या हुआ देखा तो एक रोमांचकता का विषय मिला । जाओ अब कुछदिन तुम्हारी छुट्टी जाकर एक बढ़िया सा रहस्यमयी लेख लिखो । "
उनके इस बात पर क्या बोलू वह सब न सोचकर सीधे बाहर निकल गया । …
।। समाप्त ।।