Achhut Kanya - Part 17 in Hindi Fiction Stories by Ratna Pandey books and stories PDF | अछूत कन्या - भाग १७  

Featured Books
  • નિતુ - પ્રકરણ 64

    નિતુ : ૬૪(નવીન)નિતુ મનોમન સહજ ખુશ હતી, કારણ કે તેનો એક ડર ઓછ...

  • સંઘર્ષ - પ્રકરણ 20

    સિંહાસન સિરીઝ સિદ્ધાર્થ છાયા Disclaimer: સિંહાસન સિરીઝની તમા...

  • પિતા

    માઁ આપણને જન્મ આપે છે,આપણુ જતન કરે છે,પરિવાર નું ધ્યાન રાખે...

  • રહસ્ય,રહસ્ય અને રહસ્ય

    આપણને હંમેશા રહસ્ય ગમતું હોય છે કારણકે તેમાં એવું તત્વ હોય છ...

  • હાસ્યના લાભ

    હાસ્યના લાભ- રાકેશ ઠક્કર હાસ્યના લાભ જ લાભ છે. તેનાથી ક્યારે...

Categories
Share

अछूत कन्या - भाग १७  

विवेक की बात सुनते ही गंगा ने अपनी आँखों की पलकों को उठाकर उसकी तरफ देखा। उसकी आँखों से भी आँसू बह रहे थे। वह दोनों कुछ देर तक एक दूसरे की तरफ देखते रहे और उसके बाद गंगा विवेक के सीने से लिपट गई। अपनी आँखों से प्रस्फुटित होते ना जाने कितने आँसुओं को उसने विवेक की कमीज पर बहा दिया।

विवेक गंगा के सर पर हाथ फिरा कर बार-बार कह रहा था, “गंगा शांत हो जाओ, गंगा मत रोओ। अब तुम मुझे मिल गई हो ना, मैं ईंट से ईंट बजा दूंगा। मैं वीरपुर गाँव को बदल दूंगा। मैं बाबूजी को मजबूर कर दूंगा। उन्हें इस बात का एहसास करा दूंगा कि गंगा-अमृत उनके अकेले की जागीर नहीं है।” 

गंगा बहुत देर तक विवेक के सीने से लिपटी उसकी बातें सुनती रही।

विवेक ने कहा, “धीरज रखो गंगा अब तुम्हें मेरी पूरी बात सुनना होगा। उसके बाद ही यहाँ से जाना। गंगा तुम्हारे माता-पिता क्या तुम्हें मुझसे विवाह करने की अनुमति देंगे?”

“विवाह…ये क्या कह रहे हो विवेक? तुम्हारे घर के लोग हमें गंगा-अमृत के पास फटकने तक नहीं देते और तुम विवाह… क्या तुम मेरे लिए अपने माता पिता को छोड़ दोगे?”

“कोई किसी को नहीं छोड़ेगा गंगा। माता-पिता यदि झुकते हैं तो अपनी संतान और उसकी ज़िद के आगे ही झुकते हैं। तुम जानती हो गंगा मैं उनका इकलौता बेटा हूँ, उनका खून, उनकी जान। जब तुम्हारी गोदी में हमारा बच्चा देखेंगे ना तो स्वयं को रोक ही नहीं पाएंगे। कहते हैं ना माता-पिता को अपने स्वयं के बच्चों से ज़्यादा अपने नाती पोतों से प्यार होता है। हो सकता है हमें थोड़ा इंतज़ार करना पड़े, हो सकता है हमें उनकी नाराज़ी का सामना भी करना पड़े किंतु वह मानेंगे ज़रूर यह मैं सौ फीसदी जानता हूँ। मैं ऐसे किसी मौके की तलाश में था गंगा कि कुछ तो ऐसा मुझे मिल जाए जिसकी मदद से मैं बाबूजी का हृदय परिवर्तन कर सकूँ। अब मुझे तुम मिल गई हो और मुझे लगता है तुमसे ज़्यादा अच्छा साथ मेरा इसमें कोई भी नहीं दे सकता। क्योंकि जाति बिरादरी के साथ ही साथ यह हम दोनों के परिवार का मामला है और इसे निपटायेंगे भी हम दोनों ही। गंगा यदि मेरे बाबूजी की मानसिकता बदल गई तो फिर तो सभी की बदल जाएगी क्योंकि लोग उनकी बहुत इज़्जत करते हैं।”

गंगा को विवेक की आँखों में सच्चाई साफ-साफ नजर आ रही थी। वह उसके ऊपर पूरा-पूरा विश्वास कर रही थी।

विवेक ने आगे कहा, “गंगा मैं आज अभी इसी समय तुम्हारे साथ तुम्हारे घर चलना चाहता हूँ।” 

गंगा ने कहा, “क्या कहोगे मेरे अम्मा बाबूजी से?”

“तुम मुझे लेकर चलो ना, चलो ना गंगा। हम अपना यह प्लान उन्हें बताएंगे, यमुना को इंसाफ़ दिलाने वाली पूरी बात उन्हें बताएंगे।” 

गंगा ने कहा, “चलो विवेक मेरे अम्मा बाबूजी हमारी यह बात ज़रूर सुनेंगे और समझेंगे भी।”

बात करते-करते गंगा ने गाँव छोड़ने से अब तक की सारी कहानी विवेक को सुना दी।

घर पहुँच कर गंगा ने दरवाज़ा खटखटाया। गंगा की अम्मा ने दरवाज़ा खोला और विवेक को देखते ही कहा, “विवेक बेटा, आओ बैठो।”

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात) 

स्वरचित और मौलिक  

क्रमशः