soi takdeer ki malikayen - 14 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | सोई तकदीर की मलिकाएँ - 14

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

Categories
Share

सोई तकदीर की मलिकाएँ - 14

 

सोई तकदीर की मलिकाएँ

 

14


वक्त नदी की धारा जैसा होता है । निरंतर प्रवाहमय । चिरंतन गतिशील । हमेशा आगे की ओर बहता हुआ । अब यह लोगों पर निर्भर होता है कि वे बहती नदी में नहाना चाहेंगे या किनारे से सूखे लौट जाएंगे । चुल्लू में पानी भर कर अपनी प्यास बुझाएंगे या उस नदी के बहते पानी में डूब मरेंगे । नदी का काम बहना है । वह सदियों से इसी तरह बह रही है । लोग आते हैं । नदी के पानी से किलोल करते है पर नदी पर कोई प्रभाव नहीं पङता । वह अपनी मस्ती में बहती जाती है । किनारे कटते हैं तो कटे । किनारे पर उगे पेङ जङ से उखङते हैं तो उखङ जाये । कोई अपने खेत और बाग सींच लेता है तो सींच ले । कोई बहती धारा के साथ तैरना चाहे तो तैरने का मजा ले ले । नदी की गति पर इस सबसे कोई अंतर नहीं आता । वह निसंग भाव से निरंतर बहती रहती है । बिल्कुल वैसा ही समय का प्रभाव और स्वभाव होता है । समय को अपनी गति से आगे बढना है । किसी को सुख मिले या दुख । कोई रोये या गाये । समय अपनी रफ्तार से चलता रहता है । पर एक बात तय है कि यहाँ कुछ भी स्थिर नहीं है न सुख न दुख । जब कोई बात हमारे मनपसंद की हो जाती है । हम खुश हो जाते है । नाचने गाने लगते हैं । फिर अचानक कुछ ऐसा हो जाता है जो हमें अच्छा नहीं लगता तो हम समय की आलोचना करते हैं । दुखी होते हैं । रोते कलपते हैं । भाग्य को कोसते हैं फिर कुछ दिनों बाद वह बुरा वक्त भी गुजर जाता है ।
बेबे का अचानक स्वर्गसिधार जाना भोला सिंह के लिए किसी भूचाल के आ जाने से कम भयानक नहीं था । खास तौर पर बेबे का केसर को लेकर फिक्रमंद होना और उसी चिंता में बीमार पङ जाना । वह यह सब सोचता और सोच सोच कर गुमसुम हो जाता पर बारह तेरह दिन तो लोगों का इतना आना जाना लगा था कि उसे एक पल के लिए भी न अकेले रहने का समय मिला न कुछ सोचने का । लगा जिंदगी मशीन हो गयी । लोग आते । अपने साथ बीते तरह तरह के हादसे बयान करते । या किसी रिश्तेदार की जिंदगी में अचानक आई किसी त्रासदी का बखान करते । वह बैठा खाली हूं हां करता रहता । कोई बात उसके दिल दिमाग तक पहुँचती ही नहीं थी । आखिर तेरह दिन बीत गये । भोग डला । पंडित जिमाए गए और सब लोग अपने अपने घर लौट गये ।
सब कुछ अच्छे से निपट गया पर अभी एक बङा काम बाकी था । अभी दोनों भाइय़ों ने हरिद्वार जाकर माँ की अस्थियां गंगा में विसर्जित करनी थी । वहाँ घाट पर उनकी गति करवानी थी । तो दोनों भाइयों ने सलाह मश्वरा किया और यह तय किया कि अमावस्या के दिन वे हरिद्वार में क्रिया कर्म सम्पन्न करेंगे । रख्खी पंडित के पास गयी और पत्रा बंचवाया । पंडित ने बताया कि सोमवार को सबसे बङी अमावस है । उस दिन गति करवाने से प्राणी सीधे बैकुंठ धाम जाता है । सोमवार यानि चार दिन बाद । तो इतवार की गाङी से जाना तय हुआ । और नियत समय पर दोनों भाई बेबे जी का अस्थिकलस लेकर हरिद्वार जाने वाली गाङी में सवार हुए । हरिद्वार पहुँच कर उन्होंने टांगा किया और सीधे सती घाट चले गये । वहाँ कनखल में गंगा के घाट पर पंडित ने पूरे विधि विधान से पूजा करवाकर जब अस्थियाँ गंगा के पवित्र जल में प्रवाहित करवाई तब उन्हें माँ के सचमुच चले जाने का अहसास हुआ । वे पंडितों के कहे अनुसार सारे कर्मकांड करते गये । दान दक्षिणा देने . पाँच साधुओं को भोजन खिलाने , गरीबों को कपङे देने जैसे सारे काम उन्होंने निपटाये और अच्छे से निपटाये पर दिमाग से पैदल रह कर । फिर वे रिक्शा में सवार होकर हर की पौङी आए । हर की पौङी में स्नान करके गोले ने गंगाजल से बोतल भरी तो उसने भी भर ली ।
ओए हमने सती के मंदिर में दर्शन तो किये ही नहीं , न महादेव पर जल चढाया – अचानक गोले को ध्यान आया ।
हाँ वह तो रह ही गया । कोई न , अगली बार कर लेंगे । अब तो गाङी चलने में सिर्फ एक घंटा बचा है । चल स्टेशन चलें ।
स्टेशन जाते हुए रास्ते में गोले ने रख्खी के लिए चूङियाँ खरीदी तो उसने भी बसंत कौर और केसर के लिए चूङियाँ खरीद ली और साथ में थोङा सा प्रशाद भी । रेल का समय हो चला था तो वे स्टेशन की ओर चल दिये । गाङी स्टेशन पर लगी खङी थी । वे गाङी में चढे और खिङकी के सामने की सीट पर बैठ गये । गोला नीचे जाकर पूरियाँ और सब्जी ले आया तो उन्हें भूख का अहसास हुआ । दोपहर के दो बज गये थे और उन्होंने अभी तक अनाज का एक दाना तक नहीं खाया था । तो वे भोजन करने बैठ गये । वे खाने लगे तो दो दो दोने पूरी सब्जी खा गये । ऊपर से दो दो कप चाय पीकर उन्हें कुछ तसल्ली हुई तो नींद ने आ घेरा । रात दस बजे गाङी कोटकपूरा पहुँची तो उन्होंने एक परिचित से जीप उधार मांगी और ग्यारह बजे संधवा पहुँच गये ।
धीरे धीरे ही सही फिर से जीवन की गाङी पटरी पर आने लगी थी । भोला सिंह ने खेत का काम संभाल लिया था । बीस दिन इकट्ठे रह कर गोला और रख्खी अपने घर चले गये थे । बसंत कौर अपने चूल्हे चौंके में व्यस्त हो गयी थी । केसर और गेजा अपनी गाय भैंसों में । बसंत कौर और केसर को बेबे की कमी बहुत खलती पर वे तो उस रस्ते की राही हो गयी थी जहाँ से लौटने का कोई रास्ता नहीं है । रख्खी दिन में एक दो बार उनसे मिलने , दुख सुख करने आ जाती फिर उसका आना कम हो गया । केसर ने भी अपने आप को इस सदमे से बाहर निकाला । वह ज्यादा से ज्यादा घर के काम धंधे में व्यस्त रखने की कोशिश करती ।
धीरे धीरे तीन महीने बीत गये । बेबे जी बस एक याद बन कर रह गये । केसर अब पंद्रह साल की हो चली थी । यौवन अंगङाई ले रहा था । बचपना बहुत पीछे छूट रहा था । सदमे से बाहर आते ही उसे याद आया कि छोटे सरदार को उसके पास आए चार महीने से कुछ दिन ऊपर होने को आए । बेबे की बीमारी मे सारा परिवार इस कदर उलझा हुआ था कि इस सब के बारे में सोचने का समय ही नहीं था । फिर उनकी मौत हो गई और उसका मातम । अब तो यह सब खत्म हो चुका पर सरदार अब भी कोठरी में सोने नहीं आया । उस रात वह सारी रात करवटें बदलती रही । एक पल के लिए भी उसकी आँखें नहीं बंद हुई । सुबह उससे उठा ही नहीं गया । पलकें इतनी भारी हो चुकी थी कि खुलने में ही नहीं आ रही थी । गेजा दो बार उठाने आया पर वह उठी नहीं तो उसने फावङे से सारा गोबर एक तरफ इकट्ठा करके दूध निकाला ।
दूध की बाल्टी रखने रसोई में गया तो बसंत कौर चौके में ही थी । – भाभी , केसर आज अब तक सो रही है । दिन कितना चढ आया है । मैंने उठाने की कोशिश की पर वह उठ ही नहीं रही ।
बसंत कौर दूध बिलो रही थी । मधानी की घुर्र घुर्र में उसे गेजे की बात सुनाई नहीं दी । भोला नलके पर हाथ मुंह धो रहा था । यह सुनते ही वह कोठरी में जा पहुँचा – केसर तू ठीक है ? आज उठी क्यों नहीं ? उसने केसर के सिरहाने जाकर माथा छूकर देखा ।
जैसे ही भोले ने केसर के माथे को छुआ । केसर उछल कर उठी और भोले के गले से लिपट कर फूट फूट कर रो पङी ।
क्या हुआ , रोती क्यों है ?
भोले के इतना कहते ही केसर शर्मा गयी । उसने अपनी हथेलियों से अपना मुँह छिपा लिया । भोले ने केसर का मुँह ऊपर उठाया । झील जैसी आँखें कुछ और ही संकेत दे रही थी ।

 

 

बाकी फिर ...