Apne sath mera safar - 9 in Hindi Motivational Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | अपने साथ मेरा सफ़र - 9

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अपने साथ मेरा सफ़र - 9

नौ
ये सोच और ऐसी तलाश की ख्वाहिश कोई आसान काम नहीं था। पहले तो अपने इरादे में गंभीर होना था। फिर काम का एक रोड मैप बनाना था। कम से कम एक छोटी सी टीम तैयार करनी थी जिसकी सोच में साम्य हो न हो, पर एक जिज्ञासा और निष्पक्षता हो। और एक दूसरे से निश्छल सहयोग करने की निस्वार्थ भावना हो।
इस टीम में कैसे कौन लोग हों, ये सोचते हुए मुझे हमेशा ऐसा लगता था कि हम किसी को भी लाएं या आमंत्रित न करें। हम तो एक छोटे से टीले पर जा बैठें और चारों तरफ़ से हमें देख कर जो भी टीला चढ़ कर हमारे पास आ जाए उसी का स्वागत। बल्कि हम कुछ आत्मीय मित्र लोग तो मज़ाक करते हुए एक दूसरे से ये भी कहते थे कि "हम तो एक गड्ढे में जा गिरें, और चारों ओर से जो भी लुढ़क - लुढ़क कर हमारे पास आकर गिरता जाए उसका स्वागत। वो हमारा।"
हमारे इस अनौपचारिक समूह में लेखक, पाठक, विद्यार्थी, शोधार्थी, शिक्षक, समीक्षक, संपादक, प्रकाशक, पुस्तकालय कर्मी, पुस्तक विक्रेता ही नहीं बल्कि नियमित रूप से साहित्य पढ़ने वाली गृहणियां तक शामिल हुईं। बाद में हमने कुछ युवा कर्मठ इंटरनेट सर्फर्स व कंप्यूटर कर्मियों को भी जोड़ लिया जो सोशल मीडिया पर अपनी सक्रियता के चलते ऐसे लोग हमारे लिए काफी सहायक सिद्ध हुए।
हमें विभिन्न संस्थाओं, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों से भी सहयोग मिला। कई संस्थागत अभिलेख भी उपलब्ध हुए। कुछ सरकारी व गैर सरकारी अकादमियों से जुड़े लोगों, पत्र पत्रिकाओं से भी सहयोग मिला, कहीं संस्थागत रूप में सहयोग की सीमा रही तो कुछ लोगों ने व्यक्तिगत स्तर पर साथ दिया। आर्थिक सहायता भी। इस प्रयोजन के लिए एक छोटा सा स्वतंत्र कोष भी हम बना पाए। हमें कार्यालय के लिए स्थान और संसाधन भी सहज ही मिलते चले गए लेकिन अपनी निष्पक्षता, गोपनीयता, प्रयोजन की शुचिता के हित मानकर हम ख़ुद इस दृष्टि से सीमित और रिजर्व से रहे। कुछ एनजीओ भी आगे बढ़कर हमारा साथ देने आए।
हमने विधिवत 2014 से कार्य शुरू कर दिया। आरंभ में यह निश्चय किया गया कि हम सबसे पहले कुछ ऐसे रचनाकारों की एक सूची बनाएं जो गंभीरता से लिख रहे हैं, पढ़े जा रहे हैं, पसंद किए जा रहे हैं।
इस सूची की लंबाई की कोई सीमा नहीं थी। हो भी नहीं सकती। हिंदी विश्व में दूसरी सबसे अधिक लोगों की भाषा है। कई भाषा - भाषी इससे जुड़ते हैं, जुड़ना चाहते हैं। भाषा पर थोड़ा सा भी अधिकार रखने वाला व्यक्ति आगे पीछे अपने को साहित्यकार के रूप में देखने लग ही जाता है।
यदि आप नाराज़ न हों तो मैं अपने मन में समय समय पर आते रहे एक अदृश्य विश्वास की बात आपको बताता हूं। मुझे न जाने क्यों ऐसा लगता था कि जो "साहित्यकार" हैं वो तो इस प्रयास के पक्ष- विपक्ष में कुछ भी नहीं कहेंगे, कुछ नहीं सोचेंगे ( यद्यपि सोचने पर किसी का वश नहीं होता) केवल निस्पृह भाव से हमारे सरोकारों को देखते रहेंगे।
हां, बाक़ी का पता नहीं!
हमने आरंभ में अपने काम को आसान बनाने के लिए इसे राज्यवार संपन्न करना उचित समझा। किसी एक राज्य के प्रमुख साहित्यकारों को आंक पाना अपेक्षाकृत आसान होता है। अपनी बात के समर्थन में मैं आपको अपने शैक्षणिक जीवन का एक उदाहरण देकर अपनी बात आसानी से कह पाऊंगा।
प्रायः प्रोफेसर्स कहा करते हैं कि बहुत बुद्धिमान लोगों को पढ़ाना अपेक्षाकृत आसान होता है। क्योंकि वो आपको बोलने ही नहीं देते। एक दूसरे की मेधा को आपस में ही साध लेते हैं।
जबकि कमज़ोर छात्रों के सामने आपको निरंतर कुछ न कुछ बोलते रहना पड़ता है जिसके लिए आपको पर्याप्त तैयारी चाहिए।
हमें भी बड़े साहित्यकारों की बात ही तो करनी थी। उम्मीद थी कि वो आपस में ही एक दूसरे का कद नाप कर या तो आपको बता देंगे या नहीं भी बताएं तो कम से कम मौन समर्थन या विरोध से आपके कार्य का मूल्यांकन तो कर ही देंगे। ऐसा समर्थन या विरोध जिसे आप किसी न किसी भांति चीन्ह ही लें।
मुश्किल हमें उन लोगों के साथ आने वाली थी जिन्हें हम एक सीमित सी सूची में नहीं रख पाएंगे!