आठ
इस सब से बढ़ कर साहित्यिक परिदृश्य को मैला किया उन तथाकथित साहित्यकारों ने जो साहित्य लेखन को समाज में अपने व्यक्तित्व को उभार लाने का जरिया समझने लगे। वैसे इसमें कुछ गलत तो नहीं है। आप जन सरोकारों पर लिखेंगे तो लोग ध्यान देंगे ही। और अगर आप पर ध्यान दिया जाएगा तो आपका व्यक्तित्व सार्वजनिक होगा ही।
लेकिन इस सामान्य सी प्रक्रिया में भी एक मैला तत्व ये आया कि अधिकांश लेखक राजनैतिक दलों से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ कर खुलेआम किसी राजनैतिक दल को लाभ पहुंचाने वाली बातों का समावेश साहित्य में करते हुए दिखाई देने लगे। इससे साहित्य का मूल प्रयोजन ही ढह गया। सत्य के अन्वेषण की बात पीछे छूट गई। ये महत्वपूर्ण हो गया कि आप शासन सत्ता के जितने नज़दीक हैं उतने ही आप अधिकारों के भी नज़दीक होते चले गए। समाज के प्रति आपके कर्तव्य, आपके अपने ज़मीर के प्रति आपकी जवाबदेही जैसी बातें गर्त में चली गईं। आप भाषा के प्रकांड पंडित, शब्दों के तिलिस्मी खिलाड़ी, नारों के जोशीले पोषक तो बन गए किंतु साहित्य तत्व आपके आभामंडल से हट गया। आप बड़े तो हो गए पर आपकी बातें, सोच, विचार ओछे हो गए।
यहीं पाठकों का मोहभंग इन तथाकथित साहित्यकारों से होने लगा। उन्हें ये स्वनामधन्य कलमकार किसी मेले में डुगडुगी बजाते मदारी जैसे ही दिखने लगे।
ऐसे में किसी संवेदनशील पाठक, समाज के प्रति चिंतित अध्येता के सामने तीन रास्ते थे।
पहला विकल्प तो ये था कि जैसे हम सिनेमा देखने जाते हैं, कठपुतली का तमाशा देखने जाते हैं, मेले - ठेलों में जाते हैं, वैसे ही साहित्यिक आयोजनों में भी जाने लगें। जो किताबें जबरन अपने पाठ्यक्रम अथवा इतर कारणों से पढ़नी पड़ती हैं उन्हें ही येन केन प्रकारेण पढ़ लें, पलट लें। और ये मान लें कि जैसे देश- दुनिया नेताओं द्वारा चलाई जा रही है, वैसे ही साहित्य भी चला लिया जाएगा।
दूसरा विकल्प ये था कि हम अपने वर्तमान को धता बताएं और वेद पुराण रामायण महाभारत गीता या कबीर मीरा तुलसी सूर के रचे हुए साहित्य को ही पीढ़ी दर पीढ़ी दोहराते, घोटते, रटते, जपते रहें और आधुनिक साहित्य के नाम पर विदेशी पुरस्कारों से सज्जित मंचस्थ महानुभावों से ही ओतप्रोत होते रहकर अपने को धन्य मान लें।
लेकिन एक तीसरा विकल्प भी था। ये विकल्प ऐसा था कि जिस तरह किसी खाली सीडी या कैसेट में पहले से भरे हुए माल को डिलीट करके उसमें अपने को भला लगने वाला कर्णप्रिय संगीत भर लिया जाता है वैसे ही पड़ताल करके उस साहित्य को खोजा जाए जो वर्तमान में लिखा जा रहा है। जिसकी बुनियाद वर्तमान समस्याएं, मौजूदा सरोकार, आधुनिक जीवन पद्धति हो।
तसल्ली देने वाली बात ये है कि ऐसा लगातार लिखा जा रहा है। बहुत सारे जेनुइन, वास्तविक लेखक चुपचाप इस रचनाकर्म में निरंतर लगे हुए हैं। उनका ध्यान इस बात पर नहीं है कि उन्हें कौन पढ़ रहा है, कब पढ़ रहा है, क्यों पढ़ रहा है, क्यों नहीं पढ़ रहा!
शायद वे भी जानते हैं कि हम अतीतजीवी लोग हैं, किसी के मरने के बाद ही उसके प्रति सचेत होना हमारा कर्तव्य है। हम सामने दिखते आदमी की काबिलियत को पचा नहीं पाते, हम उसे तभी मानें जब वो सिद्ध हो ले। और सिद्ध होने के हमारे मानदंड भी बेहद हास्यास्पद हैं। हम उसे तब देखेंगे जब उसे कोई विदेशी पुरस्कारों का तमगा हासिल हो जाए, हम उसे तब स्वीकारें जब वो कोई पद प्रतिष्ठा पा ले, हम उसकी बात तब करें जब वो बोलने के काबिल न रहे।
हमें एक उजाला दिखा।
हमें लगा कि चलो, ऐसे लोगों को ढूंढें। ऐसी रचनाओं को ढूंढें, ऐसी किताबों को तलाश करें जिनमें समाज के लिए टॉर्च बन जाने लायक दमखम हो। जिनमें उगती हुई नई बातें हों। जिनमें जीवन को स्पंदित करने का माद्दा हो। जिनमें कोई ऐसी इबारत हो जिसमें आतिश हो, शरारे हों, बीज हों, सुगंध हो, ज़िंदगी के मैल को काट सकने वाला शक्तिशाली डिटर्जेंट हो!