सात
मुझे ये जानकर बहुत अच्छा लगा कि मेरे कुछ और मित्रों व परिचितों का भी ऐसा ही मानना है जैसा कि मैं सोच रहा था। अर्थात -
1. यदि कोई लेखक लिख रहा है तो उसे वर्षों बाद पढ़ने से बेहतर है कि उसे तत्काल तभी पढ़ा जाए। ये भावना बिल्कुल उस मां की तरह पवित्र और मासूम थी जो सोचती है कि उसका परिवार उसकी बनाई हुई रोटी गर्म - गर्म ही खा ले। यद्यपि इस बात को साहित्य लेखन से जोड़ कर देखने पर एक दुविधा यह भी आती है कि ताज़ा भोजन करते समय भोजन की किस्म में उपस्थित कमियों को हम तत्काल नहीं पहचान पाते क्योंकि अपनी ताज़गी में वो अपने कुछ दोष ढक भी लेता है। फिरभी बात केवल भोजन के गुण दोष चीन्हने की ही नहीं है बल्कि उसका आनंद लेने की भी तो है। तो क्यों न लोगों को इस बात के लिए उकसाया जाए कि वो वर्तमान में लिखी जा रही रचनाओं को ज़्यादा पढ़ें। ये ठीक है कि रामायण महाभारत वेद पुराण गीता आदि को पढ़ते समय उन्हें मिलने वाला कौतूहल आनंदित करता है किंतु इस आनंद का पाठक के मौजूदा जीवन से कोई संबंध नहीं है। यद्यपि प्राचीन साहित्य के कुछ पक्षधर इस विचार को एक नकारात्मक दृष्टिकोण के रूप में लेकर कुपित हो सकते हैं पर वास्तव में हमारी कोई अवज्ञा या उपेक्षा अपने महान प्राचीन साहित्य को लेकर नहीं है। हम तो केवल यह कहना चाहते हैं कि उस समय के तमाम महान साहित्य को पढ़ कर, बार - बार पढ़ कर, लगातार पढ़ते रह कर जो समाज बना वह कैसा है, इस बात पर भी नज़र रखी जाए और बारीकी से ये देखा जाए कि वर्तमान साहित्यकार उसी साहित्य को अलग- अलग दृष्टि से दोहराते जा रहे हैं या फिर उनमें कोई मौलिक चिंतन के बीजों का प्रस्फुटन हुआ है। ऐसा तभी संभव है जब लोग उन्हें पढ़ें। उदाहरण के लिए मैं कहना चाहूंगा कि आज जब कहीं भी अच्छी कहानियों की बात होती है तो अधिकांश लोग "ईदगाह", "उसने कहा था" आदि का ज़िक्र करते देखे जाते हैं किंतु मेरा दावा है कि हमारे मौजूदा कहानी - कारों में से कई ने इनसे बेहतर कहानियां लिख रखी हैं किंतु हम विभिन्न कारणों से ये बात कहने से बचते हैं। इसका एक कारण ये भी हो सकता है कि अधिकांश लोगों ने नई रचनाओं को पढ़ ही न रखा हो।
2. यहां एक बात और आ जाती है। प्रायः यह देखा जाता है कि दक्षिणपंथी कहे जाने वाले रचनाकारों की स्वाभाविक रुचि अतीत में हुए कार्यों व सरोकारों में अधिक होती है। इसका सीधा सा कारण यही है कि वो रचनात्मकता में संस्कृति, परंपरा, संस्कार आदि तत्वों को जोड़ते हैं और ये बातें एक दिन में नहीं बनतीं बल्कि समय के साथ- साथ सदियों में जाकर आ पाती हैं। इसलिए उनका मानना है कि जो कुछ प्राचीन काल में होकर गुज़र गया उसकी छाया या प्रभाव वर्तमान पर होना स्वाभाविक है।
जबकि वामपंथी विचारधारा के अंतर्गत हम देखते हैं कि विश्व के एक हिस्से में घटी बातों को दूसरे हिस्से के संदर्भों से जोड़ कर, और उसे काल निरपेक्ष बना देने में कोई कोताही नहीं बरती जाती।
ये दोनों ही बातें कालांतर में एक जड़ता को पोसती हैं। वहीं ये भी देखने में आया कि कुछ चिंतकों ने प्रगतिशील आंदोलन के रूप में इन बातों से बचने के प्रयास किए लेकिन आधुनिक साहित्य में इन सभी बातों का एक घालमेल पैदा हो गया और इसके लिए सीधे सीधे राजनीति को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। यहां ये ध्यान देने की बात है कि हम "ज़िम्मेदार" ठहराने की बात कर रहे हैं, "दोषी" ठहराने की नहीं। इन दोनों बातों में बड़ा अंतर है। समय ने बुद्धिजीवियों के तरकश में और भी कई नामों के तूणीर भर दिए जिन्हें अपनी अपनी सुविधा जीविता के प्रकाश में मौक़े - बेमौके चलाया जा सकता है। उदाहरणार्थ - उदारवादी, अवसरवादी, जनवादी, निरपेक्ष, अतिवादी, प्रतिक्रियावादी आदि।