Mere Ghar aana Jindagi - 14 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | मेरे घर आना ज़िंदगी - 14

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मेरे घर आना ज़िंदगी - 14


(14)

नंदिता अंदर से बहुत हल्का महसूस कर रही थी। शादी के बाद उसने मकरंद पर कभी जाहिर नहीं होने दिया था पर अपने मम्मी पापा की नाराज़गी से वह बहुत आहत थी। आज कुछ ही घंटों में सब बदल गया था। ऐसा लग रहा था कि जैसे सबकुछ किसी परी कथा का हिस्सा हो। किसी देवदूत ने अचानक जादू कर दिया हो और सबकुछ ठीक हो गया हो। उसका देवदूत मकरंद ही था। उसने ही नंदिता को अपने पापा को फोन करने के लिए प्रेरित किया था।
मकरंद उसके बगल में लेटा था। नंदिता ने उसे अपनी बाहों में भरकर चूम लिया। मकरंद ने कहा,
"इतना लाड़ क्यों आ रहा है मुझ पर।"
नंदिता ने उसके सीने पर अपना सर रखकर कहा,
"थैंक्यू मकरंद....आज तुम्हारी वजह से मुझे इतनी बड़ी खुशी मिली है। मैं तो सोचती थी कि शायद पापा मुझे कभी माफ नहीं करेंगे।"
"नंदिता तुम्हारे पापा सिर्फ तुमसे नाराज़ थे। तुमने उनकी बात नहीं मानी थी। उन्हें लगता था कि तुम्हारा फैसला गलत है। लेकिन उनके मन में तुम्हारे लिए वही प्यार था। जब तुमसे बात हुई तो उनकी नाराज़गी दूर हो गई।"
"फिर भी सब इतनी जल्दी हो गया कि मुझे अभी भी सपने जैसा लग रहा है।"
नंदिता यह कहकर चुप हो गई। कुछ देर बाद नंदिता ने कहा,
"अगर तुम्हारे मम्मी पापा होते तो वह भी इसी तरह खुश होते।"
"हाँ बिल्कुल....."
"तुम्हारे मौसा जी और मौसी जी ने तुम्हें पाला था। पर उन्होंने कोई खास खुशी नहीं दिखाई। मौसी जी तुमसे नाराज़ क्यों रहती हैं ?"
"मौसी के मन में एक डर बैठ गया था कि मौसा जी मुझे अपनी बेटी से भी अधिक प्यार करते हैं क्योंकी उन्हें बेटा चाहिए था। यह बात उनके मन में घर कर गई थी कि मैं उनकी बेटी का हक मार रहा हूँ। जबकी सच यह था कि भले ही मौसा जी बेटा चाहते थे लेकिन कभी भी मुझे अपने बेटे की जगह नहीं देते। पर मौसी के मन में एक डर बैठ गया था। इसलिए वह पूरी कोशिश करती थीं कि मैं घर से चला जाऊँ। कॉलेज में आने के बाद उन्होंने साथ रखने से मना कर दिया। मौसा जी कॉलेज की फीस देते थे। बाकी इंतज़ाम मुझे करना पड़ता था।"
नंदिता कुछ सोचकर बोली,
"तुम्हें कभी मौसी के व्यवहार पर गुस्सा नहीं आया।"
मकरंद ने नंदिता की तरफ देखकर कहा,
"तुम्हें बताया था कि मेरे ताऊ शिमला में हैं। वहाँ उनका होटल बिज़नेस है। मेरे मम्मी पापा के ना रहने पर वह मेरी ज़िम्मेदारी ले सकते थे। पर उन्होंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। मौसा जी और मौसी की तरफ कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती थी। पर उन्होंने मुझे अपनाया। मुझे इस लायक बनाया कि अपने पैरों पर खड़ा हो सकूँ। मैं उनका एहसानमंद हूँ। नाराज़ होने का मुझे हक नहीं है।"
मकरंद की बात सुनकर नंदिता उसके मन को समझने की कोशिश करने लगी। छोटी उम्र में एकसाथ माता पिता को खो देना एक गहरा सदमा था। उसके बाद उसे दूसरे के घर में रहना पड़ा। मौसी अपनी गलकफहमी के कारण उससे सही व्यवहार नहीं करती थीं। इसका उसके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा होगा। जिसके कारण वह खुलकर जी नहीं पाता था। नंदिता ने एकबार फिर मकरंद को अपनी बाहों में भर लिया।

समीर मनोचिकित्सक के क्लीनिक पर था। कांउसलर दीपक कुमार ने उसके मन को समझने के लिए उससे बड़े इत्मीनान के साथ सीधा सवाल किया,
"समीर तुमको लगता है कि अगर तुम लोगों से मिलोगे। घर से बाहर निकलोगे तो तुम्हारे साथ गलत होगा। ऐसा क्यों ?"
समीर ने अपनी नज़रें दूसरी तरफ करके कहा,
"क्योंकी उन्हें लगता है कि मैं इसी तरह के व्यवहार के लायक हूँ।"
"लोग तुम्हारे बारे में ऐसा ही सोचते हैं यह तुम्हें कैसे पता चला ? क्या किसी ने कुछ कहा ?"
"हरीश सर ने कहा था कि अंत में मुझे वही सब करना होगा जो मंजीत सर करने की कोशिश कर रहे थे। नमित और चेतन ने भी मेरे साथ गलत किया। अब तो सबको पता चल गया है कि मैं लड़कियों की तरह हूँ। सब मेरा मज़ाक उड़ाएंगे। मेरे साथ वही करने की कोशिश करेंगे।"
"लेकिन तुमने तो बहुत बहादुरी दिखाई थी। तभी तो लॉज में तुम बच पाए थे। फिर डरते क्यों हो।"
समीर ने कोई जवाब नहीं दिया। दीपक ने कहा,
"अच्छा तुमने कहा कि तुम लड़कियों की तरह हो। ऐसा क्यों लगता है तुमको ?"
"क्योंकी मुझे लड़कियों की तरह रहना अच्छा लगता है। मुझे उनकी तरह कपड़े पहनने का मन करता है। उनकी तरह बाल बनाने का मन करता है। बचपन से ही मुझे उनके खेल पसंद थे।"
"तुम लड़कियों की तरह रहना चाहते हो ?"
"हांँ.....अग अगर मेरा बस चले तो मैं अपना नाम भी बदल दूँ।"
"तुम अपने हिसाब से जीना चाहते हो।"
बातचीत में पहली बार समीर ने बिना झिझके कहा,
"हाँ....मैं वैसा दिखना चाहता हूँ जैसा मैं महसूस करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि लोग मुझसे लड़की की तरह पेश आएं।"
दीपक ने कहा,
"तुमने अपनी ज़िंदगी का कोई उद्देश्य सोचा है।"
"मैं चाहता हूँ कि एक सफल फैशन डिज़ाइनर बनूँ। मेरा नाम हो। मेरे पास पैसे हों ताकी अपने हिसाब से जी सकूँ।"
"बहुत अच्छा है। पर तुम जानते हो कि अपने हिसाब से वही जी सकता है जिसमें आत्मविश्वास हो। डर आत्मविश्वास को कम कर देता है। इसलिए तुम्हें अपने डर को खत्म करना होगा।‌ लोगों से भागने की जगह उनका सामना करो। नए दोस्त बनाने का प्रयास करो। तुम कर सकते हो। इसलिए डर को निकाल दो। सबसे पहले तो हरीश गुप्ता ने जो बात तुमसे कही थी उसे अपने मन से बाहर निकाल कर फेंक दो। तुम बहुत कुछ कर सकते हो। मेरी बात पर गौर करना। कुछ दिनों के बाद हम फिर मिलेंगे। तब आगे बात करेंगे।"
दीपक का दोस्ताना व्यवहार समीर को अच्छा लगा था। उसके मन में नए लोगों से बात करने में जो झिझक थी वह कम हुई थी।
दीपक के साथ कुछ और काउंसिलिंग सेशन होने के बाद समीर में अब बदलाव आ रहे थे। पहले उसे अपने व्यक्तित्व के विषय में एक झिझक थी। वह झिझक अब धीरे धीरे खत्म हो रही थी। उसने खुद को स्कूल जाने के लिए तैयार करना शुरू कर दिया था। समीर में बढ़ता ‌आत्मविश्वास अमृता के लिए एक शुभ संकेत था।

दूसरी कीमियोथैरिपी के बाद योगेश बहुत कमज़ोर हो गए थे। एक डर उनके मन में बैठ गया था कि पता नहीं स्वस्थ होकर घर जा पाएंगे या नहीं। उन्हें उर्मिला की बहुत फिक्र रहती थी।‌ सोचते थे कि अगर उन्हें अस्पताल में कुछ हो गया तो उनका क्या होगा। उन्हें तो अपना ही होश नहीं है। यह‌ फिक्र उन्हें परेशान करती रहती थी।
सुदर्शन उनसे मिलने के लिए आया था। उसने उन्हें कुछ फल खाने के लिए दिए। योगेश ने कहा,
"कुछ खाने पीने की इच्छा नहीं करती है।"
"अंकल डॉक्टर ने कहा है कि आपको थोड़ा थोड़ा करके दिन में कई बार खाना है। तभी आपकी कमज़ोरी दूर होगी।"
योगेश ने प्लेट हाथ में पकड़ ली। उन्होंने उदास स्वर में कहा,
"पता नहीं मैं ठीक हो पाऊँगा या नहीं। बस उर्मिला की चिंता है जो मुझे चैन से मरने भी नहीं देगी।"
"अंकल ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं। आप ठीक हो जाएंगे। फिर आंटी के साथ अपने घर पर रहेंगे। डॉक्टर ने भी आपको समझाया है कि अंदर से खुद को प्रेरित करते रहिए।"
"कैसे प्रेरित करूँ। अब लगता है शरीर टूट रहा है।"
"आंटी के लिए खुद को प्रेरित कीजिए।‌ आपको ठीक होकर उन्हें संभालना है।"
योगेश कुछ सोचकर बोले,
"बस उसके बारे में सोचकर ही किसी तरह यह सब सह पा रहा हूँ। मैं सोच रहा हूँ कि थोड़ा ठीक हो जाऊँ तो अजीवन उर्मिला के वहाँ रहने की व्यवस्था कर दूँ। एक डर सा लगा रहता है कि कहीं कुछ हो ना जाए।"
उन्होंने सुदर्शन की तरफ देखकर कहा,
"बेटा मान लो मुझे कुछ हो जाता है तो उर्मिला को अकेला मत छोड़ देना। बीच बीच में जाकर उससे मिलते रहना।"
"अकल पहली बात तो आपको कुछ होने वाला नहीं है। पर अगर आप आश्वासन चाहते हैं तो फिर निश्चिंत रहिए। मैं आंटी के हालचाल लेता रहूँगा।"
सुदर्शन के आश्वासन से योगेश को तसल्ली मिली। वह चुपचाप फल खाने लगे।

‌लंच के समय नंदिता और भावना दोनों ने अपने टिफिन खोले। नंदिता के टिफिन से आती हुई खुशबू ने भावना को खुश कर दिया। वह बोली,
"आज भरंवा बैगन बनाकर लाई हो। मुझे बहुत पसंद हैं।"
"मैंने नहीं बनाया। दरअसल कल ऑफिस से मम्मी के पास चली गई थी। मुझे भी पसंद हैं इसलिए मम्मी ने बनाकर दिया है।"
"तुम्हारे मम्मी पापा के साथ सब ठीक हो गया यह जानकर अच्छा लगा।"
"मम्मी पापा साथ हैं सोचकर मन बहुत हल्का हो जाता है।‌ पहले मन में एक डर सा रहता था। सोचती थी कि कुछ गड़बड़ी हो गई तो कैसे निपटूँगी। अब तो मम्मी हर चीज़ का खयाल रखती हैं।"
"बीच में जो प्रॉब्लम्स हुई थीं सब ठीक हैं।"
"हाँ अब ठीक हैं। डॉ. नगमा सिद्दीकी ने दवाएं लिखी थीं। मम्मी के पास भी अपने नुस्खे हैं। अभी तो सब ठीक चल रहा है। नहीं तो बीच में ऐसा लगता था जैसे कि जल्दी ही ऑफिस आना बंद करना पड़ेगा। लेकिन अब तो लगता है जैसे कि आखिरी महीने तक काम कर पाऊँगी।"
दोनों सहेलियां खाना खाते हुए बातें कर रही थीं। नंदिता बहुत खुश लग रही थी। बात करते हुए बीच बीच में हंस रही थी। भावना को उसमें आया बदलाव अच्छा लग रहा था।