समझौता करते करते,
एक उम्र के बाद
आदी हो गए हम
ऐ ज़िन्दगी!
तेरे इम्तिहान के।
अरीज और अज़ीन के बाबा इब्राहिम ख़ान श्यामनगर के एक एक्साईड मैनूफ़ैक्चारिन्ग कम्पनी में एक अच्छे ओहदे पे काम करते थे और मां इन्शा ज़हूर एक छोटे से प्राइवेट स्कूल की टीचर। दोनों कोलकाता में गोयनका काॅलेज ऑफ काॅमर्स एंड बिज़नेस एडमिनिस्ट्रेशन में पढ़ते थे। इब्राहिम ख़ान एम्.काॅम कर रहे थे और इन्शा ज़हूर बी.काॅम। इन्शा पूरे काॅलेज में सबसे ख़ूबसूरत और हसीन लड़की थी। सुनहरा रंग, बड़ी बड़ी काली आंखें और उन आंखों को साया देती लम्बी घनी पलकें, भरे ख़ुबसूरत होंठ, काले लम्बे बाल, पतली खड़ी नाक, म्याना क़द, इकहरा बदन। जो गलती से भी उसकी तरफ़ एक बार देख लेता तो दूसरी दफा देखने की ख्वाहिश खुद बखुद जाग जाती, तो दूसरी तरफ़ इब्राहिम खान भी कुछ कम ना थे। वह दोनों जब साथ होते तो उनके दुश्मन भी अपने दिल में इस बात की गवाही देते की वह जैसे एक दूसरे के लिए ही बने हों।
इब्राहिम ख़ान अपने ख़ानदान की रिवायत को जानते हुए भी इन्शा ज़हूर को अपना दिल दे बैठे थे और इन्शा ज़हूर भी उसे दिलोजान से चाहने लगी थी। दोनों अपने मां बाप की इकलौती औलाद थे। इब्राहिम ख़ान को अपने इकलौते होने का मान था कि मां-बाप अपनी इकलौती औलाद की ख़ातीर अपनी ख़ानदानी रिवायात बदल देंगे, तो इन्शा ज़हूर ने भी यही सोचा था, मगर ऐसा हुआ नहीं। दोनों के परिवार इस रिश्ते के सख़्त खिलाफ थे।
दोनों ने परिवार की मर्ज़ी के खिलाफ़ जाकर निकाह कर लिया था। इब्राहिम ख़ान के वालिद (बाप) सुलेमान ख़ान ख़ालिस (pure, बिना मिलावट वाला) पठान थें तो दूसरी तरफ़ इन्शा के वालिद शेख़ मैराजुल, बंगाली मुस्लमान। इब्राहिम ख़ान के ख़ानदान में पठानों में ही शादी की जाती थी। इस मामले में उनका ख़ानदान इतना सख़्त, इतना कट्टर था कि अगर किसी रिश्तेदार के रिश्तेदार भी ग़ैर पठान ( जो पठान नहीं है) होते तो उन्हें रिश्तेदारी से बाॅयकाॅट कर दिया जाता। अगर किसी महफ़िल में सामना भी हो जाता तो उन्हें गिरी नज़रों से देखा जाता।
दूसरी तरफ़ शेख़ मैराजुल भी अपनी आन में घिरे हुए थे, जब तक सुलेमान ख़ान उनकी चौखट पर आकर उनकी बेटी का हाथ अपने बेटे के लिए नहीं मांगते तब तक वह इस रिश्ते के खिलाफ़ रहते। सुलेमान ख़ान तो ख़ुद ही अड़ियल पठान थें, उन्हें तो मरकर भी उनके यहां रिश्तेदारी नहीं बढ़ानी थी, वह क्योंकर आते।
अब तो सुलेमान ख़ान की ज़ुबान का भी सवाल था, उन्होंने अपने दोस्त को ज़ुबान दी थी के उनकी बेटी इब्राहिम खान की दुल्हन बनेंगी जब इब्राहिम को इस बात का पता चला तो उन्होंने साफ़ इंकार कर दिया और अपनी पसंद भी बता दी। फिर होना क्या था? बाप बेटे में जंग चली। सुलेमान ख़ान जो जाने माने राईस बिज़नसमैन थे, करोड़ों की जायदाद के मालिक थे, इब्राहिम ख़ान को अपनी जायदाद से बेदखल करने की धमकी दी मगर इब्राहिम ख़ान के दिलो-दिमाग पर इश्क का नशा छाया हुआ था, उन्होंने बाप की दौलत को ठोकर मारी और इन्शा से मस्जिद में निकाह कर लिया। इन्शा के बाप शेख़ मेराजुल ने भी बेटी को अपनाने से इन्कार कर दिया था।
शादी तो जल्द बाज़ी में कर ली थी लेकिन पेट और भूख हालात नहीं देखते। दोस्त कितने दिन खिलाते और अपने घर में आसरा देते। इब्राहिम ख़ान ने जल्दी से नौकरी ढूंढी, काफ़ी कोशिशों के बाद उन्हें कलकत्ता से बाहर श्यामनगर में नौकरी मिली, सो दोनों ने कलकत्ता शहर छोड़ दिया और अपनी नई दुनिया श्यामनगर में बसा ली।
शादी के तीन साल के बाद अरीज हुई, दोनों ने सोचा कि बच्चे को देख के दोनों खानदान का गुस्सा उतर जाएगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं, सुलेमान ख़ान ने तो अरीज का मुंह तक देखना गवारा नहीं किया और इब्राहिम ख़ान से यह तक कह दिया कि वह उनके लिए मर चुके हैं। इन्शा ज़हूर जब अपने मां बाप के घर गयी तो पता चला कि उन लोगों ने तीन साल पहले ही घर बेचकर जाने कहां चले गए थे। यूं दोनों अपनों के होते हुए भी अकेले रह गये ।
ज़िंदगी मिल मिलाकर अच्छी चल रही थी। अरीज के पैदा होने के तीन सालों के बाद इन्शा फिर से उम्मीद से हुई लेकिन इस दफ़ा इन्शा का मिसकैरेज हो गया, उसके छह सालों के बाद अज़ीन ने जन्म लिया, यूं अरीज और अज़ीन के उम्र में नौ साल का फ़ैसला आ गया। जब अरीज मैट्रिक में थी, तभी इब्राहिम ख़ान को अचानक से दिल का दौरा पड़ गया। सीने में तकलीफ़ उन्हें अक्सर रहती थी मगर उन्होंने कभी किसी पर ज़ाहिर होने नहीं दिया। यूं उनकी अचानक मौत ने इन्शा को गहरे सदमे में डाल दिया। सदमा की वजह से वह अपने होंशो हवास से बेगाना हो गई। इब्राहिम खान के ग़म ने उन्हें अंदर से खोखला कर दिया था।
सोलह साल की छोटी सी उम्र में अरीज को बड़ी बड़ी ज़िम्मेदारियां उठानी पड़ी। कल तक जो बेफ़िक्री की निंद सोती थी, खाने के लिए नख़रें दिखाती थी, बाप के मरते ही अचानक से वह बड़ी हो गई थी। बाप की मौजूदगी में वह उस इलाके के सब से अच्छे इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ती थी लेकिन अब उसका पढ़ पाना भी मुश्किल था।
बिस्तर से लगी मां और सात साल की अज़ीन अब उसकी ज़िम्मेदारी हो गई थी। अपनों के होते हुए भी उसका कोई अपना नहीं था। दोस्त और पड़ोसी भी कुछ दिन ही मदद कर सकते थे लेकिन मुफ़्त के मशवरे के लिए हमेशा हाज़िर रहते थे।
"मां को इस डाक्टर से दिखाओ.... वहां इलाज कराओ...."यही सारे मशवरे उसे हर कोई देता रहता था।
जिस ने जो जो कहा उसने मां को बचाने के लिए सब कुछ किया, मां के इलाज के लिए उसे लेकर कलकत्ता भी गई, मगर कलकत्ता से जुड़ी पुरानी यादें, उनका बचपन, मां बाप, काॅलेज और इब्राहिम ख़ान के साथ कलकत्ता की गलियों और सड़कों में गुजारे हसीन पल उनके दिलो-दिमाग में बिजली की शाॅक की तरह लगते, उन्हें दौरा उठने लगता इसलिए वह वापस श्यामनगर ही आ गई थी और दुबारा मां को लेकर कभी कलकत्ता नही गई।
धीरे धीरे इलाज में सब कुछ बिक गया यहां तक की उनका अपना घर भी। ऐसी हालत में भी उसने पढ़ाई नहीं छोड़ी, घर पर रह कर प्राइवेट से उसने आई.ए. की तैयारी की, साथ ही आस पास के बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी, मगर ट्यूशन की कमाई इतनी नहीं होती थी के सारे मुश्किलें हल हो जाते, बड़ी मुश्किल से गुज़ारा करना पड़ता था। इन्शा गुमसुम बैठी रहती, कभी बोलती तो कभी कईं दिनों तक चुप रहती, किसी दिन घर के काम करती, तो कभी हफ्तों बिस्तर से उठ भी ना पाती। वह बहुत गहरे डिप्रेशन में थी। ऐसे ही दिन गुज़रते गये। अरीज ने आई.ए. पास कर ली थी और अब बी.ए. की तैयारी कर रही थी, अज़ीन सरकारी स्कूल में क्लास 3 में पढ़ती थी तभी अचानक से इन्शा की हालत पहले से बेहतर होने लगी, अरीज के मन में एक उम्मीद की किरन जागी थी उसे लगा था कि अब उसके इम्तिहान की घड़ी ख़त्म होने वाली है। अब अच्छे दिन आने वाले हैं।
इन्शा नाॅर्मल लोगों की तरह कुछ ना कुछ लिखती थी, कभी कुछ ढुंढती थी, वह लोग अपने घर को बेचकर अब किराए के घर में शिफ़्ट हुए थे, नयी जगह में, घर की नयी सेटिंग में कौन सी चीज़ कहां रखी थी उन्हें पता नहीं था, सो वह घंटों चीज़ें ढुंढती रहती अरीज के पुछने पर बहाना बना देती। फिर एक दिन उन्हें एक एक करके सब कुछ मिल गया था जो वह इतने दिनों से ढुंढ रही थी। उन सबको एक बड़े से लिफ़ाफे में डालकर उन्हें सील कर के उसके उपर पता लिखकर इंशा ने उसे अरीज को थमा दिया था और कहा था अगर उन्हें कभी कुछ हो जाए तो इस लिफ़ाफे को डाक घर में लगा देना।
अरीज को तभी महसूस हो गया था कि यह उसकी और अज़ीन की ज़िन्दगी में आने वाले तूफ़ान का इशारा है। उसकी हिम्मत नहीं हुई के वह मां से कुछ पूछती क्योंकि वह मौत से पहले मरना नहीं चाहती थी। भीगी आंखों के साथ उसने मां के हाथ से वह लिफ़ाफ़ा लिया था मगर बर्दाश्त ने हिम्मत तोड़ दी थी वह मां के सीने से लग कर ज़ोर ज़ोर से रोने लगी थी और उसे देखकर अज़ीन भी। मां ने दोनों के आंसू पोंछे थे और दोनों की पेशानी को चुमा था। इन्शा की आंखें भीगी थी मगर होंठ मुस्कुरा रहे थे,
क्या चल रहा था उनके मन में?
क्या था उस लिफ़ाफे में?
क्या होने वाला था आने वाले कल में?