Apang - 49 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | अपंग - 49

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अपंग - 49

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भानु को चिंता होना स्वाभाविक ही था यदि माँ-बाबा आए तो राजेश को कहाँ से लाएगी ?ऐसे आदमी के पाँव भी तो नहीं पड़ा जा सकता जो इस स्वभाव व ख़राब नीयत का हो जिसके इरादों में ही खोट हो, बेवक़्त का भौंपू बजा सकता हो, किसी को समझना उसके लिए छोटा बन जाना होता हो, उसे कहाँ तक बर्दाश्त किया जा सकता है ? भानु के लिए वह जैसे अब था ही नहीं | अपने बच्चे के लिए जिसके मन में कोई प्यार न हो, वह और किसी से कैसे प्यार करेगा ? उसका केवल अपना स्वार्थ हो तभी वह किसी के पास दिखाई देता अन्यथा वह भला, उसकी रुक भली !

भानु के मन में यह भी उठता था क्या वह रुक के साथ भी अपने ही किसी स्वार्थ के लिए रह रहा होगा अथवा --? फिर वह अपने सर को झटका दे देती, आखिर वह क्यों ये सब बातें सोच रही है ? शायद इसलिए कि माँ-बाबा के आने की चिंता से मन में धुकर-पुकर चल रही थी जबकि अभी तो वह ही आई थी और आई भी क्या थी उसे आना पड़ा था | वहाँ रहती तो बाबा कितने निश्चिन्त रहते लेकिन उन्हें पहले से ही शक था कि न जाने उनकी बेटी का वैवाहिक जीवन कैसा चल रहा होगा ? ऎसी भी क्या व्यस्तता कि इतने दिनों में एक बार भी राजेश उन लोगों से बात नहीं कर सका था !! ख़ैर --

रिचार्ड के हाउस से यह एपार्टमेंट पास ही था | वह लगभग हर रोज़ ही आ जाता, नहीं आ पाता तो फ़ोन तो ज़रूर ही कर लेता | बच्चे की आवाज़ सुनना उसे बहुत अच्छा लगता था जैसे किसी पिता को ! ये कैसा नाता बन गया था एक अमरीकी बंदे का एक पक्की भारतीय व उसके बच्चे से ! रिचार्ड हर बार यह जानने का इच्छुक रहता कि वह क्या लिख रही है ? उसकी एक पुरानी डायरी भी वह अपने साथ ले गया था | उसके लिए कविता समझना आसान नहीं था, वो भी हिंदी की लेकिन कई बार पढ़-पढ़कर वह समझने का प्रयास करता | फिर भी न समझ में आती तो फ़ोन करके भी शब्दों के अर्थ पूछता |

भानु ने अमरीकियों के बारे में न जाने क्या-क्या सुना था लेकिन रिचार्ड के बारे में सब कुछ गलत ही महसूस हो रहा था | एक दिन रिचार्ड आया, दोनों में बातें होने लगीं और बातें इतनी गहरी हुईं कि आध्यात्म तक पहुँच गईं | दोनों की बोली, भाषा, संस्कृति भिन्न लेकिन फिर भी इतनी आसानी से एक-दूसरे की बातों को समझ पाना, बहुत बड़ी बात थी |

"तुम मुझसे उम्र में तो काफ़ी छोटी हो भानु ----" रिचार्ड बात करते हुए बोला |

"मतलब ---तो --?" भानु ने आश्चर्य से पूछा |

"फिर भी इतनी मैच्योर कैसे हो --?" रिचार्ड गंभीर था |

"मैं मैच्योर लगती हूँ तुम्हें ?" भानु ने हँसकर पूछा |

"ओ !यस ---" रिचार्ड ने मुस्कुराकर उत्तर दिया |

"कैसे ? बताओ भला --? "भानु ने पूछा | उसके मन में उत्सुकता भर गई थी |

"हर चीज़ में तुम्हारा डिसीज़न बड़ा ठहरा हुआ होता है तुम्हारा ---" रिचार्ड ने भानु को प्रशंसा की दृष्टि से देखते हुए कहा |

"तुम मुझे अभी तक समझे ही नहीं रिचार्ड ---" भानु ने पलकें झुकाकर कहा | उसकी आँखों के आँसू पलकों तक सिमट आए थे जिन्हें उसने आँखों की कोरों में समाए रहने दिया था |

"क्या हुआ भानु ? कुछ गलत बोला क्या ?"  रिचार्ड बेचारा घबरा गया था |

"अगर मैं मैच्योर होती तो वो सब करती जो करके आई हूँ ? माँ-बाबा ने कितना कहा था कि राजेश ठीक आदमी नहीं है --मैं कहाँ पहचान पाई उसे और अब देखो --" भानु की आँखों की कोरों में सिमटे हुए आँसू अब उसके गालों पर लुढ़क आए थे |

"इधर न तो मैं राजेश के साथ रह पाई न ही अपने माँ-बाप के पास, बस त्रिशंकु सी लटकी रह गई ---" उसने अपने आँसू पोंछते हुए कहा |

"प्लीज़, डोंट क्राई ---" फिर वह अचानक बोला ---

"व्हाट डिड यू से ? कू ---व्हाट कू ---?"

"मैंने कहा --त्रिशंकु ----" भानु को उसके कू कहने पर हँसी आ गई |

"मीन्स ---न --ऊपर, न नीचे --बीच में लटके हुए ------" भानु बोली |

"मीन्स यू आर नो व्हेयर ---मीन्स, तुम्हें राजेश के साथ न रहने का दुःख है ?" रिचार्ड ने चौंककर पूछा | वह जानता था कि भानु उससे परेशान है |

"नहीं, उसके साथ न रहने का नहीं, अपने बाबा के पास न रहने का, उनकी बात न मानने का |" भानु ने उत्तर दिया |

"भानु ! तुम उससे डायवोर्स क्यों नहीं ले लेतीं ? बेकार बीच में लटकी हुई हो !" रिचार्ड ने कहा |

"हाँ, ले तो लेना चाहिए लेकिन मैं चाहती हूँ कि राजेश की तरफ़ से डायवोर्स का प्रपोज़ल आए और माँ-बाबा को तकलीफ़ न हो |"

भानु न जाने कहाँ खो गई थी शायद उन्हीं दिनों में जब माँ-बाबा उसे समझाने में लगे हुए थे कि राजेश उसके योग्य नहीं है लेकिन कहते हैं न प्रेम अँधा होता है, बस वही चल रहा था उन दिनों उसके दिल में ! कहाँ पता चलता है, जब तक कुछ गंध आती है तब तक तो बहुत देर हो चुकी होती है |