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आज हमें चुग्गु से झैदी तक ज़ाना था | मानस परिक्रमा का आँखरी दिन | पानी के ऊपर बैठे पंछी देखकर अचरज हुआ | उनको क्या मिलता होंगा यहाँ खाने के लिए ? गुर्लामांधाता पर्बत के दर्शन, रास्ते में नजदीक से हो गए | गुलाबकी पंखुडीयोंकी तरह पर्बत का रंग था | अब सफ़र में नदी प्रवाह, झरनों की कमी दिखाई दी | सब यात्री पुरे उत्साह में हँस हँस के बात कर रहे थे | आज हमारी यात्रा पूरी होने वाली थी | सालों से जो सपना देखा था वह प्रत्यक्ष में आज पूरा होने वाला हैं इस बात से सबके चेहरे खिले हुए थे | बीच में गाडी एक जगह रूक गई। वहाँ मानस की नितलता साफ दिखाई दे रही थी। नीचे का तल रंगबिरंगी और नानाविध आकारों के पत्थरों से भरा हुआ था। वह दृश्य मन को लुभावने लगा। इन पत्थरों को बाणलिंग कहाँ जाता हैं। कुछ पत्थरों पर ओम, त्रिशूल,स्वस्तिक चिन्ह दिखाई देते हैं। यहाँ पानी कम होने के कारण आसानी से पत्थर उठा सकते हैं। रंगबिरंगी पत्थरों की राशी जमा करते हुए सब गाडी में बैठ गए। मन अभी भी कैलाश से वापिस आने के लिए तैयार नही था। मैंने भी उसपर रोकथाम नही लगाई ।जब भी मन कैलाश की यादों में डुबने लगता तब हम एक साथ रहते थे। नही तो मन और तन बहुत कम समय के लिए एक साथ रहते हैं। गाडी अब झैदी पहुँच गई। चार बजे होंगे। तरोताज़ा होकर हम फिर से मानस किनारे घुमने लगे। दूर तक टहलते हुए बातों बातों में देर हो गई। संधिप्रकाश की छाया सर्वदूर फैल चुकी थी। किनारे पर बैठे ही भजन संध्या चालू हो गई। सबके स्वर भक्ती रस में डूब गए। अचानक मन में खयाल आ गया की ,घर की याद बहुत कम आ रही हैं। कही ऐसा तो नही की उनसे बाते नही हो पाने के कारण अपने आप अंदर जो भावभावनों की यंत्रणा हैं, उन्होंने इस बात का स्विकार किया और याद आने की मात्रा कम होती गई। कृतघ्नता महसुस होने लगी। क्षणमात्र में दुसरे विचार मन में चालू हो गए, यह आनन्द का भंडार मैं किसके सामने खोलनेवाली थी ? उन्ही के सामने । उनके लिए तो मुझे यह सब अनुभव लेने ही थे। जो नही आ सके उनको यहाँ का वर्णन सुनाते हुए मन के साथ मैं फिर से यात्रा करनेवाली थी।
सर्वत्र अंधेरा छा गया। अंदर खाना तैयार था। मानस किनारें की राते बहुत गूढता से भरी होती हैं। यह ज़ानते ही सबके मन इस अनुभव को पाने की ईच्छा मन में रखते हुए जल्दी सोने गए। मध्यरात्री उठना जो था। मुझे नींद नही आ रही थी। आधी नींद, अर्धज़ागृतता, सपने ऐसी स्थिती से गुजरते आधी रात बीत गई। देढ दो बजे उठकर बैठ गई। आँसमान में तारे झिलमिला रहे थे। मंद प्रकाश से मानस की गूढता बढ़ रही थी। आँसमान के तारों का प्रतिबिंब मानस के पानी में झगमगा रहा था। धरती पर तारें उतर आए हो ऐसे चारों तरफ झिलमिल चालू थी। कही पढ़ने में आया था की एक जगह स्थिरता से पैरों को जरा ऊँचा करते हुए खड़े रहो तो सामने के दृश्य या वस्तू में कुछ नया जरूर दिखेगा। अपने कानों से सजगता से सुनो ,कुछ नया ध्वनी सुन पाआगे। जोरजोरसे साँस लेते हुए छोड़ दो, कितनी आनन्द की लहरे निकलती हुई आप महसूस करोगे। अपनी जगह से थोडा आगे पिछे हो ज़ाओ तो सामने के दृश्य प्रति दृष्टिकोन बदल ज़ाएगा। दृश्य का अलग पहलू देख पाओगे। अभी वह पढ़ा हुआ सब याद आने लगा। क्षणक्षण दृश्य में बदलाव आ रहा था। अनाहत नाद कैसा होता हैं यह तो मैं नही ज़ानती पर कोई नाद ना होना इस बात का अनुभव कर रही थी। पता नही कितना काल बीत गया। देखा तो सुबह के 4 बज गए थे। इतनी देर तक एकही स्थिती में हम कैसे बैठे रहे ? मानस ने हमसे ध्यान साधना करवा ली थी। नादविरहीत अवस्था के सौंदर्य का रसपान कराते हुए कब आँख लगी पता ही नही चला। आँख खुली तो सुवर्ण जगत में सृष्टी पर से एक परदा उठ गया था।
आज ग्यारा बजे के बाद मानस में नहाकर पुज़ा करने की अनुमती दी गई थी। तब तक क्या करे ? हम सहेलियाँ घुमने के लिए निकल पडी। 7-8 बज गए होगे ,पुरब दिशा में सुरज का कालक्रमण चालु था। इतने में बारिश चालु गई। छुपने के लिए कोई जगह तो थी नही, तो बारिश का मज़ा लेने लगे। यकायक सामने इंद्रधनुष फैला हुआ नजर आने लगा। बहुत बडा, स्पष्ट, तजेलदार इंद्रधनुष था ।एक दिखाई दे रहा था ,की दुसरा सामने आ गया। एक साथ दो इंद्रधनुष मैंने तो जीवन में पहली बार देखे। इतने में ही यह सौंदर्य का खज़ाना रूका नही ,बारिश के बुंदों में भी सुरज के किरणोंने रंग बिखेर दिए। सारा वातावरण रंगों से खिल उठा। हम सहेलियाँ यह देखते दंग रह गई। ना बारीश की फिक्र थी ना ठंड़ की। बस साक्षी बनकर नज़ारे का लुत्फ उठाने लगे। बारिश रूक गई और रंगीन दुनिया लुप्त हो गई। ग्यारा बजे कपडे लेकर नहाने के लिए निकले । मि. नायरजी तो भोर की बेला में ही नहा धोकर पुज़ा करने बैठ गए थे। मानस को प्रणाम करते ठंडे पानी में प्रवेश किया। आज हम मानस से विदाई लेने वाले थे यह बात ज़ानते हुए मानस ने भी बडे प्यार से अपने आगोश में लिया। उछलते हुए लहरों के हाथ तन बदन पर फेरते हुए आशिर्वाद दिया। कैलाश की ओर अंजुली से अर्घ्य देते हुए मेरी भक्ती, मानस में अर्पण कर दी। डॉ.चिंगळे रूद्र पठण का अभ्यास करते हुए आए थे। जोत्स्ना ,सुहास ढासाळकर चिंगळे और मैं पुज़ा करने बैठ गए। रेती का शिवलिंग तैयार करते हुए पुज़ा आरंभ की। रूद्र पठण के साथ दो घंटे तक होमहवन,नामस्मरण सत्संग किया। सुखा मेवा ,मिश्री शक्कर का प्रशाद चढाकर ग्रहण कर लिया ।बाद में खाना खाकर सब सोने के लिए चले गए ,आधी रात ज़ागरण के कारण जल्दी नींद आ गई।
शाम होते ही फिरसे मानस किनारे शिवरात्र बाती का दिप जलाया। स्तोत्र मंत्र पठण होने के बाद तेरा ही दिया हुआ तुझे ही अर्पण ऐसे भाव के साथ रेती का शिवलिंग पानी में विसर्जित कर दिया। अब बिछुड़ने की भावना से मन में बेचैनी ऊत्पन्न होने लगी। इस जन्म की यह पहली और आखरी मुलाकात थी। कैलाश परिक्रमा बार बार करने वाले बहुत लोग होते हैं। लिपुपास में जो बॅच हमको मिली थी उसमें बंबई के एक बिझनेसमन थे। वह 11 महिने कारोबार संभालते और एक महिना कैलाशयात्रा के लिए निकल ज़ाते ऐसी उन्होंने नो बार परिक्रमा की थी। यात्रा में दो तरह के लोग आते हैं एक तो श्रध्दालू और दुसरे, जिनको ट्रेकिंग का शौक हैं। जो व्यक्ति जिस भाव से आता हैं उसे वैसेही आनन्द की प्राप्ती होती हैं। कुछ लोग सेवा के लिए भी आते हैं। यहाँ अनेक लोग अपने अपने व्यक्तित्व के अनुसार अलग अलग तरीके से यात्रा संपन्न करते हैं। पालमपूर के स्वामीजी ने सिर्फ कॉफी पिते हुए कैलाशयात्रा पुरी की थी। प्रेरणा गांधी नामक 45 वर्षीय औरत ने पैर में बीना चप्पल या शुज पहने यात्रा की। नागपूर के तेल के व्यापारी चंद्रशेखरजीने पुरे यात्रा के लिए घोडा तय किया तो था लेकिन उसपर एक मिनिट के लिए भी सवाँर नही हुए। सिर्फ घोडेवालों की रोजीरोटी के लिए घोडा तय किया था। कोई पुरे सफर में मौन का पालन करता हैं, तो कोई नामस्मरण करता हैं। कोई सफर का मज़ा लेता हैं, तो कोई अपनों की याद में रोता हैं। कोई ईश्वर के लिए भक्तीभावना के आँसू बहाता हैं , तो कोई उनकी तरफ देखते हुए तुच्छता का व्यवहार करता हैं। कोई चिल्लाता हैं ,झगड़ता हैं, तो कोई दुसरे के पैर दबाते हुए सफर के साथी बन ज़ाते हैं। कही देशों के बीच कटूतापुर्ण बाते, तो कही जवानों के गाँव के लोग मिल ज़ाते तो उनका अपना आनन्द ।कही ईश्वर का रंगबिरंगा अस्तित्व ,तो कही वैज्ञानिकता से भरे गुढ रहस्य, कही भौगोलिक संपदा ,तो कही उसी इलाके में रहनेवाले गरीब लोग । प्रतिकूल वातावरण से झुंजनेवाले लोग ,तो कही ज्ञानतपस्वी लामा। कही फुलों की कालीन(carpet) तो कही पत्थरों से भरा रास्ता। ऐसे कितनी बाते थी जो मनुष्य से लेकर प्रकृति तक वैविध्यता से भरी हुई थी। वहाँ एक कथा सुनने में आ गई। एक दिन गुरू अपने दो शिष्यों को कैलाश से शिवलिंग लाने के लिए प्रस्थान करने की आज्ञा देते हैं। कैलाश मार्ग पर जो भी पत्थर हैं वह सब शिवलिंग समान ही माने ज़ाते हैं। लेकिन गुरूं ने कहाँ”कैलाश पर्बत पर से जो पत्थर गिर ज़ाएगा। वही लेकर आना। नीचे पड़ा हुआ लिंग मत लाना।“
(क्रमशः)