... “भगवान के लिए गांववालों पर तरस खाओ! उन्हे अनाज की सख्त जरुरत है! मां बाबूजी रहते तो वे गांववालों के लिए अन्न-धान्य की कहीं कोई कमी न होने देते! विनती करती हूँ तुम सबसे, उनपर तरस खाओ!!”- श्यामा ने कहा जिसके बांह पकड़कर द्वारपाल हवेली से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा था।
एक झटके से श्यामा ने उन मुस्टंडे द्वारपालों से हाथ छुड़ाया और हवेली से बाहर निकल आयी। शोरगुल सुनकर हवेली के बाहर गांववालों की भीड़ जमा हो चुकी थी। सबने सुना कि अपने मान-सम्मान की परवाह किए बगैर श्यामा गांववालों की भलाई के लिए हवेली के भीतर गई थी जिसने वर्षों पहले हवेली में आना-जाना तक छोड़ दिया था और जिसे आज अनाज तो नहीं मिला उल्टे उसके ससुरालवालों ने उसे धक्के मारकर हवेली से बाहर फेंकवा दिया।
हवेली में अनाज के भरपूर भंडार होने की बात श्यामा के कानों तक पहुंचने पर हवेलीवालो का गुस्सा सातवें आसमान पर था। हवेली के नौकर बंशी को बोलकर उन्होने गांव के मुखिया को बुलावा भेजा। हाथ जोड़े मुखिया भगीरथ हवेली आ पहुंचा और किसी कसूरवार की भांति सिर झुंकाकर तीनों बहनों और उनके पतियों के समक्ष खड़ा हो गया।
“नाम के मुखिया हो तुम इसे गांव के भगीरथ! रत्ती भर की औकात नहीं तुम्हारी!! कैसे तुम्हारे रहते कोई भी ऐरा-गैरा मुंह उठाकर हवेलीवालों को धमकाने चला आता है और तुम्हारे कानों पर जू भी नहीं रेंगते!” – सुगंधा ने भौवें उचकाते हुए कहा।
“क क कौन मालकिन? किसकी इतनी जुर्रत हुई जो आपसे बद्तमीजी करे! मैं उसकी खाल उधेड़वा दुंगा! आप एकबार हुक्म तो करें!” – मुखिया भगीरथ ने अति आत्मविश्वास दिखाते हुए कहा।
“अजी रहने दो!! तुमसे आजतक कुछ भी हो पाया है जो अब करोगे! तुम्हारी नाक के नीचे गांव में लोग कैसे-कैसे अनैतिक कार्य कर रहे हैं! तुमसे कुछ हो पाया है?? जो आज हो पाएगा!” – अमृता के पति ने कहा तो मुखिया को समझ में सारी बातें आ गई।
“व व वो, श्यामा! पर वो तो, हवेली की बहू है! इसिलिए कुछ नहीं किया मैंने! नहीं तो किसी की क्या मजाल जो......!!” – मुखिया ने कहा।
“क्या बहू-बहू लगा रखा है तुमने!! श्यामा का इस हवेली से अब दूर-दूर तक कहीं कोई ताल्लूक नहीं! वो कुल्टा समाज के नाम पर केवल कलंक है कलंक! इतना कुछ हो जाने के बाद भी तुमने उसे इस गांव में रहने की अनुमति कैसे दे दी, मुझे अभी तक यह बात समझ में नहीं आयी! कहीं तुम्हारा भी उसके साथ कुछ सम्बंध...!!” – बिफरते हुए नंदा के पति ने कहा।
“नहीं नहीं बड़े मालिक!! ऐसी कोई बात नहीं! उस जैसी औरत का तो मैं कभी शक्ल भी न देखूं! मैंने तो केवल इंसानियत के नाते उसे इस गांव में रहने दिया। फिर अपना बढ़ा हुआ पेट लेकर वह कहाँ जाएगी! ऊपर से उसका इस हवेली....” – कहते हुए मुखिया चुप हो गया जब संझला दामाद यानि अमृता का पति चिल्लाते हुए बोला – “कितनी बार कहा... उस श्यामा का इस हवेली से कोई सम्बंध नहीं! तुम्हे समझ में नहीं आती मेरी बात!!!”
“माफी....माफी हुज़ुर! मैं तो, बस इतना ही कह रहा था कि अगर वो इस गांव से बाहर जाएगी तो आपकी और इस हवेली की बदनामी होगी! क्या कहेंगे सब कि कैसे हैं हवेलीवाले और उसका परिवार सारा! अब आप भले ही श्यामा को इस हवेली का न माने! पर उसका सम्बंध तो इस हवेली से कभी भी खत्म नहीं होने वाला!” – मुखिया ने झिझकते हुए कहा। उसकी बातों में दम था जिसे सुनकर हवेली वालों से कुछ बोलते न बन पड़ा।….
“ठीक है, ठीक है! पड़े रहने दो उसे इस गांव में! पर देखना... ज्यादा होशियार बनने की कोशिश न करे!! तुम जा सकते हो अब!” – नंदा ने कहा तो मुखिया वापस जाने के लिए पलटा।
“भगिरथ, रुकना जरा!” – नंदा के पति ने कहा तो मुखिया के बढ़ते कदम रुक गए।
“ये क्या तुमलोगों ने हवेली के गोदाम पर नज़र गड़ा रखी है!” – नंदा के पति ने कहा।
“न न नहीं हुज़ुर! हमारी या गांववालों की कहाँ इतनी मजाल जो हवेली की तरफ नज़र उठाकर भी देखे! वो तो श्यामा मेरे घर पर आयी थी। जब मैंने उसे भगा दिया तो वह सीधे यहाँ आ धमकी! फिर उससे तो हवेली के भीतर की कोई भी स्थिति छिपी नहीं है वर्ना गांववालों को इस बारे में ज्यादा जानकारी भी नहीं!” – मुखिया ने कहा और अपने हाथ जोड़ लिए।
“हाँ... बता देना गांववालों को! इस हवेली की तरफ सिर उठाकर भी देखा तो शायद धरती पर से भी उठना पड़े! जा सकते हो तुम अब!! द्वारपाल दरवाजे पर कुंडी लगा दो और भीतर कोई न आने पाए वर्ना तुम सबकी शामत आ जाएगी!” – नंदा के पति न कहा।
इधर धीरे-धीरे ही सही, पर गांव में एक कान से दूसरे कान तक यह खबर फैलने लगी कि श्यामा गांववालों की भलाई के लिए अपने जान की परवाह किए बगैर हवेली के भीतर गई थी और जिसे हवेलीवालो ने धक्के मारकर निकाल दिया।
पर श्यामा कहाँ इतनी आसानी से हार मानने वालों में से थी। उसने हिम्मत नहीं हारी और गांव के लोगों को भुखा मरने से बचाने के लिए एक-एक करके ही सही उन्हे इकट्ठा करने लगी। अपने कोख में गर्भ लिए और लोगों के तरह-तरह के ताने सुनकर भी उसने हैजे से पिड़ित मरीजों की देखभाल में कोई कोर-कसर न छोड़ा। हालांकि उसे नहीं पता था कि उसी गांव में भेष बदलकर विजेंद्र भी हैजे की रोकथाम में जी-जान से जुटा है। हाँ वो बात अलग थी कि वह कभी भी श्यामा के सामने खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा पाया और पूरे तन-मन से रोगियों की सेवा-शुश्रूषा में जुटा रहा।...