Tamacha - 8 in Hindi Fiction Stories by नन्दलाल सुथार राही books and stories PDF | तमाचा - 8 (दुविधा)

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तमाचा - 8 (दुविधा)

सूरज की किरण धीरे-धीरे धरा की तरफ अपने कदम बढ़ा रही थी । विक्रम अपनी बेटी को आँख खुलते ही जन्मदिन की शुभकामनाएं देने के लिये उसके कमरे में जा रहा था तभी उसके फ़ोन की घंटी बजती है।
"हेलो , विक्रम जी गुड मॉर्निंग। "
"गुड मॉर्निंग , मालिक आज जल्दी कैसे कॉल किया।"
कॉल विक्रम के मालिक सुनील का था । विक्रम पहले से ही तनाव में था ऊपर से मालिक का कॉल जो तनाव को और बढ़ाने वाला था।
" मैं ये बोल रहा था कि आज आप जल्दी से आ जाओ । गुजरात वाली पार्टी को जल्दी 'सम' जाना है। वो तैयार हो रहे है , आप भी जल्दी तैयार होकर आ जाओ। "
विक्रम ने सोचा था, सुबह जल्दी बेटी को विश करके , उसको फुसलाकर जैसे - तैसे हॉटेल चला जायेगा। पर अब जल्दी आने का दबाव और बढ़ गया।
"पर मालिक कुछ तो समय दीजिए । मैं अपनी बेटी को विश तो कर सकूँ आराम से और उसको घुमाने नहीं ले जा सकता फिर उसे मनाना भी तो पड़ेगा।" विक्रम इस उम्मीद से बोला कि मालिक द्वारा कुछ दया मिल जाये।
"आपको मैंने कल भी बोला था विक्रम जी , अभी सीजन चल रहा है और इस पार्टी को आप को ही संभालना है। इस सीजन के बाद उसे घुमाने ले जाना । अभी आप जल्दी से हॉटेल आ जाओ।"
"ठीक है, मालिक ! आता हूँ।" विक्रम ने निराशा भरी आवाज में बोला।

विक्रम जो बेटी को जन्मदिन की विश करने जा रहा था। वहीं पर रुक गया । बिंदु के कमरे में जाने की उसकी हिम्मत न हुई। क्या जवाब देगा उसको। उसको इतने सपने दिखाकर अब उन सपनों को तोड़ना उसको मन ही मन कचोट रहा था।
विक्रम बिंदु के रूम जाने की जगह बाथरूम में चला गया और नहाने लगा। जब हम किसी तनाव में हो और कोई कार्य करते है, तो वह बेहोशी में ही करते है। हमें कोई होश नहीं रहता कि कार्य कब शुरू करते है और कब पूर्ण । सिर्फ उस बात में खोये रहते है जो तनाव को उत्पन्न करती है।
विक्रम कब नहाया कब तैयार हुआ सब बेहोशी में ही करता रहा। कभी मालिक को कोसता, कभी गुजरात से आई पार्टी को, तो कभी अपनी जिंदगी को। कभी ऊपर वाले से शिकायत करता और उसके होने में भी संदेह कर लेता तो कभी उसमें असीम आस्था के भाव से दया की भीख मांग लेता।
विक्रम को होश तब आया जब उसके जाने का वक्त आ गया। उसने सोचा अब तो एक बार बिंदु के पास जाना ही होगा । कम से कम उसको जगा के विश तो कर दूँ। अगर उसको बोला कि तुम्हे घुमाने नहीं ले जा सकता तो बेचारी का मूड सुबह-सुबह ही खराब हो जाएगा।
विक्रम अपने पैर कभी बाहर की तरफ बढ़ाता तो कभी बिंदु के रूम की तरफ । कभी सोचता सीधा हॉटेल चला जाये और बिंदु को फ़ोन पर विश करके कोई बहाना बता दे तो कभी सोचता एक बेटी ही तो है उसकी अपनी, उसको विश न करना और मिले बिना चले जाना बहुत गलत बात होगी।
इसी कशमकश में उलझा विक्रम बड़ी हिम्मत करके आखिरकार उसके रूम के पास पहुंच जाता है और दरवाजा खोलने लगता है। ऐसी स्थिति में अक्सर व्यक्ति तब तक मानसिक दुविधा में होते है जब तक उस दुविधा से रूबरू नहीं हो जाते। वही मिलने और न मिलने की दुविधा में आखिर वो बिंदु के रूम का दरवाजा खोल देते है।
विक्रम सोच रहा था कि बेटी को जगाकर उसको जन्मदिन का विश करेंगे और सरप्राइज देंगे। लेकिन जब उसने रूम में प्रवेश किया तो देखा कि बिंदु अपनी नवीन ड्रैस पहने तैयार बैठी थी और अपने पिता का ही इंतजार कर रही थी।
कई बार हम किसी को सरप्राइज देना चाहते है लेकिन उल्टा हमें ही वापस सरप्राइज मिल जाता हैं और वही हुआ विक्रम के साथ। विक्रम बिंदु को विश करता उससे पहले ही बिंदु ने बोल दिया "पापा, मैं तैयार हूँ , चलो चलते है, कहाँ चलेंगे ? अब तो बताओ !

क्रमशः ....