Ramnika Gupta: The Translation Series - Part 2 in Hindi Book Reviews by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | रमणिका गुप्ता: अनुवाद की श्रंखला - भाग 2

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रमणिका गुप्ता: अनुवाद की श्रंखला - भाग 2

रमणिका गुप्ता

श्रंखला -2

“गुजराती स्त्री विमर्श कहानियां”

सारे विश्व की औरतों के पुरुष व्यवस्था के कारण दुःख के सामांतर कारण हैं सिर्फ़ परिस्थितियां भिन्न हैं. इसी बात को प्रमाणित करने में लगी थीं सुप्रसिद्ध लेखिका रमणिका गुप्ता जी ने रमणिका फ़ाउंडेशन परियोजना के तहत कहानी श्रंखला से. उन्होंने बहुत कठिन व्रत का संकल्प किया था -चालीस भाषाओ की स्त्री विमर्श की लेखिकाओ ने जो औरत के जीवन के दर्द को इंगित किया है उसे वह अनुवादित करके हिन्दी में प्रकाशित करके एक दस्तावेज तैयार कर रही थीं कि पुरुष व्यवस्था की आँखें उस दर्द को देख पाये व इसको बदलने की कोशिश करे जो आरंभ तो हो चुकी है. हिन्दी के तीन खंड प्रकाशित हो चुके हैं. अन्य भाषाओं के "हाशिये उलांघती औरत 'के हिन्दी अनुवाद में गुजराती लेखिकाओ की कहानियों के अनुवाद ने मुझे किंचित अश्चर्य चकित कर दिया है क्योंकि इसमे गुजराती औरत की वह तस्वीर दिखाई नहीं दे रही जो मैं सन् 1976 से गुजरात में रहने के कारण देखती आ रही हूँ. 

इस खंड में आदरणीय रमणिका जी, अर्चना जी, किरण जी व प्रज्ञा जी ने इन गुजराती कहानियों का विश्लेषण व प्रबुद्ध आंकलन कर ही दिया है. मैं क्योंकि यूपी से आकर यहाँ बसी हूँ व अपनी स्वतंत्र पत्रकारिता के कारण मैंने जो गुज्रराती विशिष्ट महिलाये देखी हैं व अब तो मेरी पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी है "वदोदरा नी नार "तो मैं उन्हें ध्यान में रखते हुए अपने विचार इन कहानियों के विषय में सामने रख्नना चाह्ती हूँ. 

तब मैं आगरा में 'धर्मयुग'में कुन्दनिका कापड़िया की कहानियों व उपन्यास के हिंदी अनुवाद पढ़ती थी. मेरे मस्तिष्क में उंनकी कहानी "न्याय 'एक अमिट छाप छोड़ गई थी या कहिये गुजरात से निकला एक नारीवादी संदेश था कि औरत क्योंकि घर में अपनी उर्जा खर्च करती है तो पुरुष की कमाई के आधे हिस्से पर उसका ह्क बनता है. आज इतने बरस गुज़र जाने के बाद भी ये लड़़ाई औरत जीत नहीं पाई है हालाँकि 'न्याय 'की नायिका जब घर छोड़ती है तो पति की कमाई में से आधा पैसा लेकर बाहर निकलती है व कानून भी यही कहता है. गुजरात की कुछ पूर्व की एक तस्वीर दिखाती हूँ. उस सभाग्रह में अहमदाबाद दूरदर्शन गिरनार का एक कार्यक्रम था " बेटी बचाओ ". देश के सर्वश्रेष्ठ कहे जाने वाले नगर में दर्शकों से एक सवाल पूछा गया कि स्त्री पुरुष बराबर हैं क्या ? विश्वास मानिये खचाखच भरे हॉल में सन्नाटा छा गया. सिर्फ़ दस पन्द्रह हाथ उठे होंगे. 

मुझे भी इस अंक के दिल्ली में विमोचन के समय किसी का वक्तव्य ' युद्धरत आम आदमी' में पढ़कर आश्चर्य हुआ था कि गुजराती कहानियों में वह नारी चेतना नहीं है. जो चेतना गुजराती औरत के जीवन के हिस्से का अंश है. गुजरात की स्त्री धर्म हो या समाज सेवा या संगीत व न्रत्य कला ये, राष्ट्रीय स्तर या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना स्थान बना चुकी है. मैं स्त्रियों को बड़े बड़े अपने बूते पर कार्यालय स्थापित किए हुए देख चुकी हूँ. कुछ महिला मंडल स्त्री संस्थाओ के करोड़ों के टर्नओवर देख चुकी हूँ. तो पता नहीं क्यो विश्व के दायरे फलांगती स्त्री प्रगति साहित्य में क्यों नहीं बड़े परचम लहरा पाई है?. इस संग्रह में वह भव्य व विशिष्ट गुजराती महिला गायब है जो समाज के एक हिस्से [उदाहरण लें तो अनेक ग्रामों की सह्कारी महिला दूध देरी को संचालित करती महिला या किसी के घर में घुस आए साँप को पकड़ने जा सकती है बतौर समाज सेवा] को प्रभावित करती है. मैं इस बात से ये परिणाम निकाल रही हूँ कि गुजरात में भी औरत की स्थिति लगभग वही है जो अन्य प्रदेशों में है क्योंकि लेखिका सुधा अरोड़ा ने एक स्त्री संस्थाओं के सम्मेलन में शामिल होने के बाद कहा था कि गुजरात से सबसे अधिक रिपोर्ट प्रस्तुत की गई थी. 

प्रथम अखिल भारतीय महिला परिषद की स्थापना पूना में सन् 1927में हुई थी जिसमे वड़ोदरा में महारानी चिमनाबाई भी सम्मिलित हुई थी. उन्होंने वड़ोदरा यानि गुजरात में सन् 1928 में अखिल भारतीय महिला परिषद की स्थापना की थी. इसका ही प्रभाव है कि यहाँ अनेक स्त्री संस्थाये काम कर रही है. पुरुष व्यवस्था से लड़ती, भिड़ती कभी सफ़ल होती, कभी विफ़ल होती एन. जी. ओ'ज़ की भूमिका है -जो इन अंकों में शामिल नहीं है. हाँ, और प्रदेशों के मुकाबले कुछ अधिक प्रगतिशील परिवार हैं जो अपनी बेटियों को मौका दे रहे हैं. हिंदी -खंड -२ में मेरी कहानी 'रिले रेस 'इसी विषय पर है, हो सकता है मैं इन नारी संस्थाओं के बतौर पत्रकार सम्पर्क में रहीं हूँ ये भी एक कारण हो। आपको जानकर आश्चर्य होगा बहुत से कार्यालय अपने यहाँ उत्तर भारत की लड़कियों को काम देना पसंद करते हैं क्योंकि वे मेहनती होती हैं. 

हर इमारत में एक आम औरत माता की चौकी बिठाने में व भजन मंडली में व्यस्त रह्ती है. इसलिए भी 'पिंजरे की मैंना '[सरोज पाथक], 'दुविधा'[भारती र. दवे]नई सुबह [सुहास ओझा], 'दहलीज़ से '[निर्झरी मेह्ता], चालीस प्लस आथ [चंदाबेन श्रीमाली] 'हुकुम की रानी '[जसुमती परमार ], मंगल सूत्र [बिन्दु भट्ट], उल्ते फेरे [भारती राने], 'देवता आदमी '[जयश्री जोशी], 'मैं अहिलया '[रीता त्रिवेदी], न्याय [कुंदनिका कापदिया ], 'न्यूज़ रूम '[पन्ना त्रिवेदी] नहीं मैं नौकरी नहीं करूंगी '[ज्योति थानकी], 'नाम रसिक मेहता'[वर्शा अदालजा] यानी कहानियाँ दाम्पत्य जीवन पर आधारित है. यहाँ के समाज में तलाक यानि कि' छुट्टा छेड़ा 'होना एक सहज बात है, वही बात नब्बे प्रतिशत कहानियों में चित्रित है. इस अंक का सबसे बड़ा द्वन्द है कि औरत अपनी माँ के घर में 'पराया धन' होती है व ससुराल में दूसरे घर की बेटी. इन दोनों के बीच उसका जीवन झूलता रहता है. हिन्दी भाषी प्रदेशों की तरह आम लड़की पोस्ट गेजुएशन करने को बाध्य नहीं है क्योंकि मध्यम श्रेणी के रोजगार यहाँ उपलब्ध हैं. शायद ये भी एक कारण हो सकता है बहुत जुझारू औरतें बहुत बड़े मानदंड स्थापित कर रही है, सृजन से ना जुड़कर. 

मैं जो कहना चाह रही हूँ वह अब स्पष्ट है क्यों रमणिका जी की आवाज़ पर सारे देश के कोने कोने की स्त्री वो कथायें हिंदी में अनुवादित करके तमाम दूसरी औरतो को प्रोत्साहित कर रही है कि देखो !हाशिये सही बात के लिए ऎसे उलांघे जाते हैं. 

'पिंजरे की मैना " यानि कोठी में धान 'शैली की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ कहानी है. डॉ. नीरा देसाई [जिनके प्रयासो से विश्वविद्ध्यालय में नारी शोध केन्द्र की स्थापना हुई थी ] ने सन 1952 में शोध करके ये पाया था कि घर स्त्री के लिए पिंजरे जैसे है, उसी बात की तस्दीक करती है ये कहानी. एक स्त्री किस तरह पति के अनैतिक समबंधो को ढोने, के लिये मजबूर की जाती है तब एक पिंजरे से निकल कर अस्पताल में हिस्टीरिया की मरीज़ हो दूसरे पिंजरे में उसे कैद कर दिया जाता है. इन्ही सोने के पिंजरों में मन प्राण तड़फड़ाने के कारण औरत निरंतर हाशिये उलांघ रही है. 

शैली की दृष्टि से दूसरे नम्बर पर कहानी आती है "नाम नयना रसिक मेहता "जिसमे सच में हाशिये उलांघती स्त्री दृढ़प्रतिज्ञ है कि अपराधी चाहे पति हो या सास क़ानून की नज़र से बच नहीं पाये, चाहे ये निर्णय उसे कँटीले रास्ते तक ले जाए. इसमे तो स्त्री शादी के सात साल बाद विद्रोह करती है लेकिन समाज का सच ये है कि सालों साल वह मुंह बंद करके हर ज़ुल्म बर्दाश्त करती है कि शायद उसकी स्थिति सुधर जाए. अपनी संतानों का मुंह देखते हुए जिये जाती है. कोई कह सकता है कि घरेलु  हिंसा अधिनियम -2006 बन गया है लेकिन भारत के समाज का स्त्री पर शिकंजा तो एसा कसा है कि कुछ जज तक फरियाद सुनने को तैयार नहीं होते. वे कहते है, 'जो स्त्री अपने पति के साथ नहीं रहना चाह्ती उसे कोर्ट से धकके देकर बाहर निकाल दो. " मैं ये गुजरात की घटना ही बता रही हूँ . 

यही भय औरत को आतंकित किए रहता है जो पति के किसी दूसरी औरत के प्रेम में पड़ जाने पर भी औलाद के कारण उसे छोड़ने की बात नहीं सोच पाती., चुप समझौता करती जाती है लेकिन वह प्रेमिका अपने प्रेमी की जालसाजी को सूँघकर यानि कि वह दो औरतों के साथ का मज़ा लेना चाह रहा है, उसे छोड़ देने का साहस करती है. 'दुविधा 'आज की इस बात को बखूबी रेखांकित करती है कि 'वर्क प्लेस 'पर स्त्री पुरुषों की मुलाकात होती है, कभी सम्बन्ध बन जाते है तो सोचना औरत को है कि वह सबकी व खासकर अपनी भलाई के विषय में सोचकर कदम उठाये. 

'खड़ी फ़सल -सन् 1047 से पहले ' में सुहास ओझा की 'नई सुबह 'में जैसे खूबसूरती से चित्रण है दुनिया के कारोबार में व्यस्त दुनिया की नजर उस औरत पर नहीं पड़ी है जिसके बलबूते इस सृष्टि का संचालन हो रहा है. वह् पुरुष सता के पीछे मुड़ी तुड़ी निढाल पड़ी है. ये वाक्य मैंने चुने हैं सुहास ओझा की कहानी "नई सुबह 'से ---------' यही भाव लगभग हर पुरुष के चेहरे पर दिखाई देता है--- माथा अभिमान से ऊँचा --दबे हुए होठों पर दृढ़ता ---स्थिर आँखों में निडरता --- ----यही है पुरुष सत्ता का चेहरा एक ग्रीस योद्धा की मूर्ति की मानिंद. 'लेकिन हठी रमणिका जी इसी कहानी की जानकी की मानसिकता की तरह इस मूर्ति के पीछॆ ढीली ढाली पड़ी स्त्री छवि को सामने ले आने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ है उस योद्धा के पीछॆ छिपी निढाल औरत की मूर्ति को एक अदना सी सेविका जानकी झाड़पोंछ कर सामने रख देती है जो बात मालिक को कतई पसंद नहीं आती. चालीस भाषाओं की रचनाकारों को प्रेरित कर रही है कब तक वे पीछॆ अपनी भूमिका छिपाये पड़ी रहेंगी --- ज़रा हाशिये उलांघ कर तो दिखाये. 

' नई पौध ' की दो कहानियाँ मेरे ख़्याल से बहुत सशक्त प्रतीक कहनिया है. मुबीना जी कुरैशी ने 'कल्पना के सपने 'में वह जो भी दरवाज़ा खोलती है उसे पुरुष सत्ता का चेहरा दिखे देता है लेकिन हाशिये उलाघते हुए पुरुष सत्ता की ताश की चालों में अपना दरवाज़ा खोल लिया है. इस संग्रह की अलग हटकर बहुत सांकेतिक भाषा में नारी चेतना की बात करती हैं, ये खूबसूरत दो कहानियाँ, ज़रूरत है उसे सामने लाने की. 

जयश्री जोशी की 'देवता आदमी' कम से कम भारत के उन अधिकांश देवता पतियों की, सो कोल्ड 'थोरो जेंटलमैंन 'की पोल खोलती है जिनसे पत्नियों को किस किस तरह का अत्याचार सहना पड़ता है. कितनी हैं जो हशिया उलांघ पाती हैं ?

हिमांशी शैलत से बहुत उम्मीदे थी किंतु उन्होंने व सम्पादिका ने इतनी बड़ी गलती कैसे कर दी जो उनकी कहानी 'जस-का-तस'को चुन लिया क्योंकि यहाँ हाशिये उलांघने का अर्थ है पुरुष सत्ता की लक्ष्मण रेखाओ के पार जाना जहाँ पर स्त्री का शोषण हो रहा है लेकिन ये तो माँ की देहरी बद्ल जाने की कहानी है. यामिनी गौरांग व्यास 'जीवनदान 'में स्त्री जीवन को बहुमूल्य साबित करने का प्रयास किया गया है. 

निर्झरी मेहता की कहानी 'दहलीज़ से 'मेरे लिए सुखद आश्चर्य है क्योंकि वड़ोदरा के अरविंद आश्रम के लोन में या 'अभिव्यक्ति 'में अस्मिता की गोष्ठियों का हमारा लम्बा साथ रहा है. उन्हें मैं एक अच्छी कवयित्री के रुप में जानती हूँ इसलिए मुझे उनकी इस परिपक्व कहानी ने प्रभावित किया है व चौंकाया भीं है. . ये भीं एक प्रतीक कथा ही है कि जब भीं कोई स्त्री देह पर वार करता है तो समाज को उस स्त्री की मर्मान्तक पीड़ा रह्ती, वह उसी के जीवन में शूल बिछाने का काम करता चलता है. इसमें स्त्रियों की हिस्सेदारी भीं बढ़ चढ़ कर होती है. गुजराती समाज बहुत प्रगतिशील है, इस भ्रम को ये कहानी तोड़ती है. यदि ऎसा ना होता तो यहाँ भी इतनी स्त्री संस्थाये काम ना कर रही होती. 

ये तीन चार मिनट का आघात था. रेप में पन्द्रह बीस मिनट के आघात पर भीं स्त्री सहानुभूति कहाँ पाती है.? एक लड़की का प्रतिरोध बलात्कारी पर आतंक बनकर टूट पड़ता है हास्यदा पंड्या की कहानी 'दरी 'में. ये महीन बुनावट से रची बहुत सशक्त रचना है. शायद ये संदेश देती है कि समाज जब साथ नहीं देता तो स्त्री क्यो ना अपने फैसले करे ? तभी बिन्दु भट्ट की 'मंगल सूत्र 'की नायिका भारती राणे की नायिका के साथ 'उलटे फेरें 'लेती नजर आती हैं. 

'शमिक आप क्या कहेंगे ?"में इला आरब मेहता ने एक कामकाजी स्त्री के द्वंद को बखूबी रचा है जो अपने बॉस से परेशान है. वह् कश्मकश में है कि अपने पति को ये बात बताये या ना बताये. अंत में एक सशक्त स्त्री की तरह निर्णय लेती है कि वह् अपनी समस्या स्वयं हल करेगी. ये कहानी पति पत्‍‌नी संबंधों की एक गिरह को खोलती है कि किस तरह एक पति नौकरी जाने के डर से पत्‍‌नी को ग़लत राय दे सकता है, निर्णय तो स्वयं ही लेना चाहिये. 'जसुमति परमार की ऐसी ही है 'हुकुम की रानी ' जो पति के ग़लत हुकुम का प्रतिरोध करना जानती है. वही 'न्यूज रूम "की नायिका का अपने अत्याचारी पति का कत्ल दिल दहला देता है. हालाँकि ये कोई नई घटना नहीं है और ना ही हाशिये उलांघना ऐसी प्रेरणा देने का पक्षधर है. पन्ना त्रिवेदी की ये कहानी नई पौध जैसी भाषा की ताजगी लिए हुए है. 

एक आम धारणा है कि पुरुश स्त्री को उसके यौवन के परिप्रेक्ष्य में देखता है. उस पर रौब ग़ालिब करता रहता है कि ' जो साठा, वो पाठा '. चंदाबेन श्री माली की कहानी "चालीस प्लस आठ 'में स्त्री उम्र के, इस दृष्टिकोण के हाशिये उलांघती नजर आती है जैसा कि आजकल लेख पड़ने को मिल रहे हैं साठ वर्ष की उम्र में चटख रंग कपड़े क्यों ना पहने जाए ? एक आम औरत हमेशा समय का रोना रोती है कि उसे अपने लिए समय नहीं मिलता लेकिन जो हाशिये उलांघ रही है उसके लिए इस कहानी से कुछ वाक्य ले रही हूँ, "समय को चुरा चुराकर उसने खूब पढ़ लिख कर, चिंतन मनन करके अपनी जीवन बेल को सींचा है -ज़िदगी को खुशहाल और सुखद बनाया है -दिल में आकाश छूने की तमन्ना है ". 

यही प्रेरणा रमणिका जी की प्रेरणा से हर कोने व हर भाषा की स्त्री अपनी कलम से दे रही है. 'ज्योति थांनकी की 'मैं नौकरी नहीं करूँगी 'व स्मिता के. पारिख की 'मेरी दुलारी 'की नायिकाये नौकरी नहीं करना चाहती-ये कोई गलत बात नहीं है भारत में अनेक महिलाये अपने बच्चो को पालपोस कर किसी व्यवसाय को अपनाती है लेकिन जो कुछ ना करना चाहे उनके लिए प्रेरणादायक है चंदाबेन के उपरोक्त शब्द. 

'दरी '[हस्यदा पंड्या] की लड़की अपने बलात्कार का प्रयास करने वाले व पिता के हत्यारे से अच्छी तरह बदला लेती है. 

गुजरात की महिला पुलिस सेल का कहना है कि गुजरात में कुछ लड़कियों की ये प्रवृत्ति है कि वे दोस्ती किसी से करतीं हैं शादी किसी से. शादी होते ही तलाक माँगने लगती है, "खुराकी [भरणपोषण]लेवी छे ". छुट्टा छेड़ा'व 'खुराकी लेवी छे 'ये यहाँ प्रचलित शब्द हैं. ये हाशिये उलांघती औरत बिलकुल जड़ से गायब है गुजराती कहानियों में. 

मैं ये बात अपनी एक बात से प्रमाणित भी कर रही हूँ मैंने नौवें दशक के आरम्भ में' फ्रेंडशिप कॉन्ट्रेक्ट'[मैंत्रीकरार] पर भी 'धर्मयुग' के लिए सर्वे किया था. ये तय है कि अहमदाबाद के वकीलों ने ये रास्ता ढूंढ़ा था कि एक पुरुष एक औरत को अपने पास सिर्फ़ 100 रुपये के स्टैंप पेपर पर मित्रता का करार करके अपने घर में रख सकता है लेकिन उसकी और कोई ज़िम्मेदारी नहीं होगी. जब बच्चे पैदा हो गए तो औरतो ने भरण पोषण के लिए शोर मचाया तब ये सरकार ने बैन कर दिया गया. अब पुरुषों का पक्ष सुनिये, उन्होंने ये बताया था कि स्त्री अपनी मर्ज़ी से हमारे पास रहने आती थी लेकिन एक दो वर्ष बाद हम से 2-3 लाख रूपया वसूलना चाहती थी. तो हमने ये रास्ता खोजा कि हम प्रमाणित कर सकें कि वह् अपनी मर्ज़ी से हमार साथ रह रही है. तो कहाँ है वह्गुजरात की हाशिये उलांघती औरत जो आठवें दशक के अंत में या उससे पहले से बिना शादी किए लिव इन रिलेशनशिप में रह्ती चली आ रही है ?

[' नई पौध ' की दो कहानियाँ मेरे ख़्याल से बहुत सशक्त प्रतीक कहनिया है. 'न्यूज रूम'[पन्ना त्रिवेदी ]. लेखिका ने बखूबी चित्रित किया है कि किस तरह से अमानुशिक पुरुष हिंसा करने पर मजबूर कर देते हैं. किन यातनाओं से गुजरती है औरत जब ये किसी हिंसा का निर्णय लेती है. नायिका अपने पति के शिकंजे से तंग आकर उसकी हत्या कर देती है बहुत अच्छी तरह बुनी गई है ये कहानियाँ लेकिन पन्ना त्रिवेदी की नायिका की तरह हाशिये उलांघने के लिए ये मिशन नहीं है जबकि हम देखते हैं समाज में ये सब हो रहा है. 

मुबीना जी कुरैशी ने 'कल्पना के सपने 'में वह जो भी दरवाज़ा खोलती है उसे पुरुष सत्ता का चेहरा दिखे देता है लेकिन हाशिये उलाघते हुए पुरुष सत्ता की ताश की चालों में अपना दरवाज़ा खोल लिया है. इस संग्रह की अलग हटकर बहुत सांकेतिक भाषा में नारी चेतना की बात करती हैं, ये खूबसूरत दो कहानियाँ, ज़रूरत है उसे सामने लाने की. 

औरत कैसी यातना से गुज़र कर कोई' ब्रूटल' प्रतिक्रिया करती है ये ताज़ातरीन ईरान की रेहाना ज़ब्बारी के वक्तव्य से जाना जा सकता है जिसे एक खुफिया एजेंट के कत्ल के इल्ज़ाम में फाँसी लगी थी. उनके अपने माता पिता को लिखे अन्तिम पत्र की पंक्तियों का ये सार हैं जिनसे औरत होने की सजा की तकलीफों की चीखे उफनी पड़ रही है, "यदि मैंने उसे नहीं मारा होता तो पुलिस को कही मेरी लाश पड़ी मिलती. और पुलिस तुम्हे मेरी लाश को पहचानने के लिए लाती और तुम्हे मालुम होता कि कत्ल से पहले मेरा बलात्कार भी हुआ था. मेरा कातिल कभी भी पकड़ा नहीं जाता. "दुनिया भर के संगठन रेहाना को बचा नहीं पाये. उसने अपने लिए इंसाफ के लिए इसी तरह हाशिया लांघा. अपने पत्र में अपना हौसले का इज़हार किया कि वह् खुदा की अदालत में बलात्कारी, जज, पुलिस --सब पर मुकदमा चलायेगी. 

स्त्रियों की अधिकतर हत्या की जाती है जिसे आत्महत्या का रुप दिया जाता है या उन्हें आत्महत्या करने को मजबूर किया जाता है. सब प्रदेशों में दहेज की समस्या तो है लेकिन यहाँ इसका सबसे बड़ा कारण है विवाहेतर सम्बन्ध. इन वर्षो में प्रगति ये हुई है कि इस त्रिकोण में एक की हत्या कर दी जाती है. तो ये समस्या भी इस अंक में नहीं नजर आती. गुजरात कॉरपोरेट्स का हब है, तो वो एज़ेक्यूटिव औरत नजर नहीं आती जो पुरुषशासित दुनिया के हाशिये उलांघ रही है. 

यहाँ लड़कियां बैकलैस ब्लाउज में जब तेज़ी से गरबा करतीं है तो उनकी पीठ पर चमकती पसीनी की बूँदें जाने कितनो को पसीने छोड़ने पर मजबूर कर देती है. नवरात्रि के दिनों में होटल रात के लिए बुक हो जाते है. तो ऎसे हाशिये उलांघती औरत चाहे मुठ्ठी भर सही सिरे से गायब है इस अंक में. -

गुजरात एक धन दौलत व त्योहारो की श्रंखला में रंगारंग मे आकंठ डूबा राज्य है. होटल में खाने व घूमने का यहाँ बहुत रिवाज है. पर्यटन स्थलों पर सबसे अधिक गुजराती या बंगाली नजर आते है. लेखन एक नितांत की साधना है, शायद इसी जीवन शैली के कारण यहाँ की बहुत सी स्त्रियां वह साधना नहीं कर पा रही. शायद यही कारण है कि 'नई पौध' में सिर्फ़ दो कहानीकारो की दखलअदाज़ी है. मेरे ये परिणाम सिर्फ़ इस अंक को देखकर है ना कि समस्त गुजराती स्त्री साहित्य के बारे में. 

महिला दिवस ८ मार्च सन २०१८ में जूही मेले में भाग लेने का मौका मिला था तो वहां गुजराती लेखिकाओं के वक्तव्य को सुनकर थोड़ी ग़लतफ़हमी टूटी थी कि गुजराती महिलायें भी विविध विषयों पर लिख रहीं हैं लेकिन फिर भी तेज़ तर्रार, उन्मुक्त गुजरात की स्त्री अभी भी गुजराती साहित्य में कुछ गायब है।

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पत्रिका--'हाशिये उलांघती औरत'- गुजराती कहानी [हिन्दी अनुवाद ]

 

प्रकाशक -रमणिका गुप्ता फाउंडेशन परियोजना

संपादक -रमणिका गुप्ता व अन्य

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नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail –kneeli@rediffmail. com