Indian knowledge tradition in Hindi Magazine by vivekanand rai books and stories PDF | भारतीय ज्ञान परंपरा

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भारतीय ज्ञान परंपरा


अनेक बार यह कहा जाता है कि- 'न मूलं लिख्यते किञ्चित।' ऐसे लोगों से जब प्रश्न पूछिये कि आखिर मूल कहते किसे हैं? तो उनके पास कोई उत्तर नहीं होता। वास्तव में मनुष्य और जीव का मष्तिष्क और उस मष्तिष्क के वाह्य या स्थूल जगत के साहचर्य से उपजा बुद्धि और विवेक ही वास्तविक मूल है। मष्तिष्क की निर्माण प्रक्रिया और निर्माण प्रक्रिया का कर्ता और करण ही मूल है। बाकी जिसको- जिसको आप मूल समझते हैं, वह मूल नहीं! मूल का फलन या प्रतिफल या परिणाम है अर्थात वह मूल की कृपा एवं क्रिया से उपजा उत्पाद है। वह उत्पाद मौलिक नहीं अर्थात विद्या का कारक नहीं है। जैसा कि पहले व्यक्त हुआ है कि विद्या ही मूल प्रतिपादन सूत्र है। इसी कारण मष्तिष्क और विद्या को समझने के लिये अलौकिक या पारलौकिक या अदृश्य या सूक्ष्म सत्ता को समझना आवश्यक होता है। इसको समझने की पूर्णता ही 'ब्रम्ह' के रूप में प्रकट होती है अर्थात मष्तिष्क एवं विद्या को वही समझ सकता है, जो ब्रम्ह को समझता है या जो ब्रम्ह को समझता है, वही मष्तिष्क और विद्या को समझ सकता है। ऐसा न करने वाला विद्या, विज्ञान, ज्ञान से दूर है और वह प्रज्ञा के निकट नहीं जा सकता। ऐसा ही व्यक्ति ब्रम्ह के आवश्यक लक्षण (ऐसेंटियल फीचर) अर्थात 'सच्चिदानन्द ब्रम्ह' अर्थात 'सत्यम ज्ञानम अन्तम ब्रम्ह' को समझ सकता है। ऐसा ही व्यक्ति ब्रम्ह के तठस्थ अर्थात लौकिक लक्षण अर्थात उस ब्रम्ह के कर्ता और करण भाव को अर्थात उसके लौकिक स्थिति को समझ सकता है। जब ब्रम्ह माया के स्वरूप में प्रकट होता है, तभी उसका कर्ता और करण अर्थात लौकिक भाव दृष्टिगत होता है अर्थात तभी वह लौकिक रूप से किसी तत्व पदार्थ आदि को घटित या उदघाटित करता है। ब्रम्ह का यही लौकिक रूप अर्थात जब वह माया से संपृक्त होते हैं तो ईश्वर या परमात्मा कहलाते हैं। इसी भाव को हम भिन्न- भिन्न रूपों में मानकर या स्वीकार कर इनकी आराधना करते हैं। इसी को ब्रम्ह का अंग्रेजी में एक्सीडेंटल फंक्सन कहते हैं। इन बातों को व्यवस्थित रूप में समझने के लिये हमें 'प्रमा' (वैलिड नॉलेज) और 'अप्रमा' (इनवैलिड नॉलेज) को समझना जरूरी होता है। तर्क, अप्रमा का ही एक रूप है; जबकि प्रमा, प्रमेय का कारक है। प्रमा को जानने और समझने के लिये हम छः तरह के आधार पर परीक्षण करते हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति, अनुपलब्धि। इनके सहारे ही हम प्रमा अर्थात वैलिड नॉलेज तक पहुँचते हैं। यह वैलिड नॉलेज ही ज्ञान कहलाता है। उक्त छः मार्ग विज्ञान के परिक्षण जनित मार्ग हैं और वैलिड नॉलेज तक पहुँचने के लिये ही हम प्रश्न जनित विद्या का सहारा लेते हैं। वह प्रश्न ही वास्तव में वास्तविक मूल है। इस दार्शनिक समुच्चय और सच को जो यथार्थ धरातल पर जानता और समझता है, वही भारतीय ज्ञान परम्परा को समझ और जान सकता है अर्थात उसका अधिकारी बन सकता है। इसी कारण भारतीय दार्शनिक परम्परा का यथार्थ आधार भारतीय ज्ञान परम्परा है।

भारत में दार्शनिक मूल्य और परम्परा वैदिक काल से ही स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ते हैं। भारतीय दर्शनों में छः दर्शन अधिक प्रसिद्ध हुए- महर्षि गौतम का ‘न्याय’, कणाद का ‘वैशेषिक’, कपिल का ‘सांख्य’, पतञ्जलि का ‘योग’, जैमिनि की पूर्व मीमांसा और आद्य शंकर का ‘वेदान्त’ या उत्तर मीमांसा। ये सभी वैदिक दर्शन के नाम से जाने जाते हैं; क्योंकि ये सभी वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार करते हैं। जो दर्शन वेदों की प्रमाणिकता को स्वीकार करते हैं, वे आस्तिक दर्शन कहलाते हैं और जो वेदों के प्रमाण जन्य अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते, उन्हें नास्तिक दर्शन की संज्ञा दी जाती है। इसमें बौद्ध, जैन, चार्वाक शामिल किये जाते हैं। आस्तिक दर्शनों को षड्दर्शन और नास्तिक दर्शनों को त्रिकदर्शन कहते हैं। किसी भी दर्शन का आस्तिक या नास्तिक होना परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने पर निर्भर न होकर, वेदों की प्रमाणिकता को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने पर निर्भर माना जाता है। इसी को कुछ अदूरदर्शी परमात्मा या ईश्वर के स्वीकार एवं अस्वीकार से जोड़कर विकृति फैलाते हैं। वे यह मानते हैं कि वेदों की प्रामाणिकता को मानना, ईश्वर को स्वीकार करना है; इसलिये यदि वेदों को स्वीकार किया गया तो ईश्वर या परमात्मा को स्वीकारना मान लिया जायेगा। यहाँ तक कि बौद्ध मत के विभिन्न सम्प्रदायों का भी उदगम उपनिषदों से ही है; यद्यपि उन्हें सनातन धर्म नहीं माना जाता है; क्योंकि वे वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार नहीं करते; जबकि यह भी एक बड़ा झूठ बोया गया है कि बौद्ध दर्शन वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार नहीं करता और इसलिये यह सनातन नहीं है। यदि आप बौद्ध दर्शन में उनके पञ्चशील के सिद्धान्त, अष्टांगिक मार्ग और पारमिताओं की विस्तृत विवेचन विश्लेषण में जाइये तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि बौद्ध मत भी सनातन मत है और वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार करता है। इसकी आगे विस्तृत चर्चा की जायेगी। हमें बौद्धकाल में दार्शनिक चिन्तन की प्रगति, साधारणतः, किसी ऐतिहासिक परम्परा पर होने वाले किसी प्रबल आक्रमण के कारण ही सम्भव प्रतीत होती है। जब कि मानव समाज पीछे लौटने को और उन मूलभूत प्रश्नों को एक बार फिर उठाने के लिये अकारण बाध्य हो जाता है। जिनका समाधान उसके पूर्वपुरुषों ने प्राचीनतम योजनाओं के द्वारा किया था। इस अर्थ में इस झूठ को भी स्वीकार करने का कोई कारण नहीं है कि, 'बौद्ध तथा जैन मतों के विप्लव ने, वह विप्लव अपने-आप में चाहे जैसा भी था, भारतीय विचारधारा के क्षेत्र में एक विशेष ऐतिहासिक युग का निर्माण किया, उसने कट्टरता की पद्धति को अन्त में उड़ाकर ही दम लिया तथा एक समालोचनात्मक दृष्टिकोण को उत्पन्न करने में सहायता दी। महान बौद्ध विचारकों के लिये तर्क ही ऐसा मुख्य शस्त्रसागर था, जहाँ सार्वभौम खण्डनात्मक समालोचना के शस्त्र गढ़कर तैयार किये गये थे। बौद्ध मत ने मस्तिष्क को पुराने अवरोधों के कष्टदायक प्रभावों से मुक्त करने में विरेचन का काम किया है।' यह सत्य नहीं, पूर्वाग्रहपूर्ण प्रतिवेदन है; इसका आगे समाधान किया जायेगा।