नर्मदा अपनी तबीयत का हाल यमुना से छुपा लेना चाहती थी। वह कुछ कहे उससे पहले ही यमुना ने कहा, “हाँ-हाँ, बोलो-बोलो, बोल दो झूठ… कि तबीयत बिल्कुल ठीक है ताकि तुम्हें पानी लाने से मैं रोक ना सकूं और फिर गंगा-अमृत का ज़िक्र ना निकल जाए।”
नर्मदा ने कहा, “अरी यमुना बावरी हो गई है क्या? थोड़ा बहुत नरम-गरम तो होता ही रहता है। कोई बिस्तर से उठ ना सकूं ऐसी बीमार नहीं हूँ मैं।
तब यमुना ने अपनी अम्मा का हाथ पकड़ कर कहा, “लाओ अम्मा आज पानी मैं भर लाती हूँ।”
“अरे नहीं यमुना बहुत दूर जाना पड़ता है। मैं तुझे अकेली वहाँ नहीं जाने दे सकती। जमाना बहुत खराब है बिटिया।”
“लेकिन अम्मा तुम आज पानी लेने बिल्कुल नहीं जाओगी। तुम्हारा हाथ कितना गरम हो रहा है। शरीर तप रहा है बुखार से, कहीं गिर गई तो?” इतना कहते हुए यमुना ने नर्मदा के हाथ से पानी का घड़ा छीनते हुए कहा, “मैं लाऊँगी पानी, देखती हूँ कौन रोकता है मुझे।”
यमुना मटकी लेकर गंगा-अमृत की तरफ़ दौड़ी।
नर्मदा चिल्लाई, “अरे क्या कर रही है यमुना? रुक जा…”
किंतु उसके क़दम तो गंगा-अमृत की तरफ़ बढ़ चुके थे। काम पर जाने के लिए घर से निकले उसके बाबूजी ने देखा यमुना घड़ा लेकर दौड़ी चली जा रही है। वह कुछ पूछते उससे पहले ही नर्मदा चिल्लाई, “अरे पकड़ो उसे, पागल हो गई है यह लड़की। गंगा के बाबूजी दौड़ो वरना अनर्थ हो जाएगा। वह गंगा-अमृत से पानी लेने की ज़िद पकड़ कर गई है।”
नर्मदा और सागर यमुना के पीछे उसे पुकारते हुए भागे जा रहे थे। यमुना रुक जा बेटा, रुक जा। उनके पीछे-पीछे छोटी सी गंगा कुछ समझे बिना ही भागी जा रही थी। शोर सुनकर सागर की ही बिरादरी के कुछ लोग घरों से बाहर निकल आए और वे भी उसी तरफ़ दौड़ने लगे। यमुना बहुत तेज दौड़ती थी। वह कुएँ के पास पहुँच गई, जहाँ कुछ लोग पानी भर रहे थे।
वहाँ पहुँचते ही यमुना चिल्लाई, “मुझे भी पानी चाहिए,” कहते हुए वह आगे बढ़ने लगी।
चूँकि कुआँ सरपंच के आँगन में ही था सो वह पहले से ही पलंग पर बैठे आराम फरमा रहे थे। यमुना की आवाज़ सुनकर वह उठ कर खड़े हो गए और कहा, “ऐ लड़की यहाँ तक आने की तेरी हिम्मत कैसे हुई?”
यमुना ने कहा, “काका जी मुझे भी गंगा-अमृत से पानी चाहिए। मेरी माँ बीमार है, घर में पानी की एक बूंद नहीं है।”
“ऐ लड़की जा वापस चली जा। आज आ गई है तो तेरी मटकी भरवा देता हूँ पर इसके बाद इस रास्ते को भूल ही जाना,” कहते हुए सरपंच गजेंद्र ने अपने घर काम करने वाले रामा से कहा, “रामा जा भर दे उसका घड़ा।”
तभी यमुना बोली, “नहीं काका जी मैं तो अपने हाथ से ही भर कर ले जाऊंगी। यह पानी पूरे गाँव को मिलना चाहिए। आप भगवान नहीं हैं काका जी। भगवान ने हम सभी को एक जैसा बनाया है, जातियों में उसने नहीं बांटा। फिर आप कौन होते हैं, हमें नीची जाति का समझने वाले?”
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः