वीरपुर गाँव ऐसी धरती पर बसा था, जिसे कई बार इंद्र देवता शायद भूल ही जाते थे कि वहाँ भी धरती प्यासी होगी। पानी के लिए तड़पती धरती में दरारें पड़ गई होंगी और वह दरारें चीख-चीख कर चिल्ला रही होंगी कि हे इन्द्र देवता हम पर भी रहम करना। यहाँ भी इंसान बसते हैं, जानवर, पशु पक्षी, रहते हैं।
गाँव के लोग टकटकी लगाए बादलों की ओर देखते रहते। पानी की एक बूंद भी उन्हें दिखाई नहीं देती। इसी तरह पूरी बारिश की ऋतु निकल जाती। कुएँ, तालाब सूख जाते थे। थोड़ा बहुत पानी जो होता वह पूरे गाँव के लिए काफ़ी नहीं होता; लेकिन वीरपुर गाँव में एक कुआँ ऐसा भी था, जिसमें पानी कभी ख़त्म नहीं होता था। ख़त्म क्या उसमें तो पानी की सतह ज़मीन की सतह से एक इंच भी नीचे खसक कर नहीं जाती थी; मानो उस कुएँ को भगवान से वरदान मिला हुआ था। शायद धरती माता उस कुएँ को अपनी कोख से पानी खींच-खींच कर गाँव की उस धरती पर रहने वाली अपनी संतानों के लिए भरती थी।
फिर वह इंद्र देवता के सामने देख कर कहतीं, “तुमने नहीं दिया तो क्या मैं हूं ना ? मैं अपनी कोख की गहराई से पानी खींच लाई । मैं इस गाँव के इन गरीब लोगों को प्यासा नहीं मरने दूंगी।”
इंद्र देवता को तो धरती माँ ने अपनी शक्ति दिखा दी लेकिन उन इंसानों का वह क्या करती जो उनके पूरे किए कराए पर पानी फेर दिया करते थे। गाँव के सरपंच गजेंद्र और वहाँ के सवर्ण लोगों ने उस कुएँ पर अपना मालिकाना हक़ जमा रखा था। छोटी और नीची जाति के लोग उस कुएँ का पानी लेने क्या, उस कुएँ के नज़दीक भी नहीं जा सकते थे। वहाँ की महिलाएँ दूर दराज के गाँवों में जाकर अपने सर पर ३-४ मटकी रखकर पानी उठा कर लाती थीं। कम पानी में गुज़ारा करना उन्होंने सीख लिया था। फिर भी हर रोज़ इतनी दूर से पानी लाना आसान काम तो नहीं था। थोड़ा बहुत पानी तो गाँव के कुछ-कुछ कुओं में रहता था लेकिन जिस वर्ष सूखा पड़ जाता उस समय तो पानी की तकलीफ़ उन्हें रुला ही देती थी। पानी की समस्या बड़ी ही विकट समस्या बन गई थी। घर के मर्द सुबह-सुबह मेहनत मजदूरी, रोज़ी-रोटी की तलाश में घर से निकल कर अपने काम पर चले जाते। पानी की पूरी जिम्मेदारी घर की महिलाओं पर आ जाती थी।
गाँव के उस कुएँ का नाम उसकी क्षमता के कारण बहुत सोच समझकर गंगा-अमृत रखा गया था। सवर्णों के लिए तो इस कुएँ का पानी सच में अमृत तुल्य था पर छोटी जाति के लोगों के लिए वह केवल दूर से दिखाई देने वाला क्षितिज मात्र ही था। उसके पास तक पहुँचना, उसे छूना उनके लिए बहुत मुश्किल काम था। वहाँ के उन परिवारों ने तो यह स्वीकार भी कर लिया था कि गंगा-अमृत पर उनका कोई हक़ नहीं है और वह ऊँची जाति के लोगों की जागीर है।
लेकिन उस गाँव में कोई एक थी जो इस बात को बिल्कुल भी सही नहीं मानती थी और वह थी केवल 14 वर्ष की एक बच्ची जिसका नाम था यमुना। इत्तेफाक से यमुना के परिवार के सभी लोगों का नाम किसी न किसी नदी के ऊपर ही आधारित था। यमुना की छोटी बहन थी गंगा जो उससे सात वर्ष छोटी थी। यमुना की माँ का नाम था नर्मदा, पिता का नाम था सागर। छोटा-सा परिवार था, यमुना के दादा-दादी का देहांत हो चुका था।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः