Nakshatra of Kailash - 20 in Hindi Travel stories by Madhavi Marathe books and stories PDF | नक्षत्र कैलाश के - 20

Featured Books
Categories
Share

नक्षत्र कैलाश के - 20

                                                                                              20

मौसम एकदम साफ था। इस कारण पहली बार पश्चिमाभिमुख कैलाश के दर्शन हो गए। कैलाशदर्शन का आनन्द और चढ़ान की तकलिफ यह मिश्र भावनाऐं मन में समाई हुई थी। डेरापुक कँम्प लांबचु नदी किनारे स्थित हैं। यहाँ पहुँचने में हमे सात घंटे लगे। समुद्रतल से लगभग 16200 फीट ऊँचाई पर हम पहुँच चुके थे। यहाँ से कैलाश के श्यामवर्णी रूप सामने आते हैं। पुरे वातावरण में सुगंध की लहरे फैली हुई थी। समन्वयक ने बताया यहाँ की जमीन भस्म की हैं। सुगंधी, दैवी वातावरण से प्रकृति सजी हुई थी। मुक्त नैसर्गिक सुंदरता और निरागसता से भरे लोगों की यहाँ छोटीसी बस्ती दिखाई दी। याकपालन और यात्रियों की यातायात इससे ही उनकी रोजी रोटी चलती हैं। कितने कम जरूरतों में आदमी रह सकता हैं यह देखकर अचरज हुआ।

डेरापुक कँम्प पहुँचने के बाद, रात के 7.30 बजे खाना खाकर सब गपशप लडाने बैठ गए। कँम्प के सामने कैलाश पर्बत का नज़ारा था और पिछे नदी की धारा कलकल करती बह रही थी। चारों दिशाएँ पहाडी से घिरी हुई थी। गाइड़ बताने लगा “नदी के उस किनारे, बहुत बडे और सुंदर महल बसे हुए हैं। वहाँ महान विभूतियाँ निवास करती हैं। सामान्य व्यक्ति के नजर से तो वह पहाड़ ही नजर आते हैं।“ सबकी नजरे शंका और अचरज से भर गई। मन में कालमात्र के लिए ग्लानी भर आय़ी। 
लेकिन ऐसी कितनी बाते होंगी जिसके बारे में हम सोच भी नही सकते । देख भी नही सकते। लेकिन वह चीजे, बाते, घटनाऐं होती हैं। उसे हम अलग नाम से महसुस करते हैं। भगवान ,भूतप्रेत,उर्जा, शक्ती, मंत्रप्रभाव, ऐसी शब्दविहीन दुनियासे हम भी थोडे थोडे वाकीफ हैं। पुनीत आत्मा या परामानसिक केंद्र जिस व्यक्ति का खुल चुका हैं वह व्यक्ति यह पराजगत देख सकती हैं। गुरूत्वाकर्षण से बाहर की यह दुनिया सुक्ष्मतम वायुमण्डल से प्रभावित रहती हैं। यहाँ सभी के विचारों के कम्पन प्रवाहीत रहते हैं। इसीलिए कहते हैं भगवान कृष्ण ने अर्जुन को जो गीता सुनाई वह अभी भी ब्रम्हांण्ड में स्थित हैं। साधना से सुक्ष्म मन की लहरे वहाँ तक पहुँचा सकती हैं।

 दुसरे दिन के सफर में बहुत कठिनाईयों का सामना करना पडेगा, यह बात समन्वयक अधिकारी ने बताई थी। इस कारण सब निद्रादेवी की आराधना करने लगे।
कैलाश परिक्रमा का दुसरा दिन । भोर होते ही हमने मोमबत्ती के आलोक में नित्यकर्म चालु किए और नाश्ते के बाद तैयार होकर निकलने के लिए इकठ्ठा हो गए। डेरापुक,शिवस्थळ, डोलमापास, गौरीकुंड़, जुटूलपुक ऐसा 22 कि.मी. का सफर आज तय करना था, मतलब लगभग 10 घंटे पैदल यात्रा। यहाँ से दिखाई दे रहे कैलाश स्वरूप को प्रणाम करते हुए यात्रा आगे शुरू हो गई।
थोडा आगे चलने के बाद एक नदी का बहाव लगा। इस नदी के उपर तीन पूल बनवाए थे वह देखते ही मन में एक ड़र की लहेर दौड़ गई। बडे बडे वृक्षों की डाले एक रस्सी से बाँधकर वह पूल बंधवाया था। नीचे से नदी का शुभ्र प्रपात रौद्र रूप में बह रहा था। उछलती हुई पानी की बुंदे आसपास गिरते हुए फैल रही थी। उस पर पैर फिसलने का ड़र उत्पन्न हो रहा था।

अब ड़र से तो काम होनेवाला नही था। मनुष्य का स्वभाव हैं ,जिस सवाल से भाग जाने के लिए रास्ता ही ना बचा हो वह प्रश्न आखरी में अच्छी तरह से सुलझा देता हैं। लेकिन इस के लिए मनुष्य बहुत समय लेता हैं ।क्यों की उसे लगता हैं, दुसरा कोई आ कर यह मेरा काम करा दे ,या कोई मेरी मदद कर दे, या सवाल ही बदल जाए ,ऐसे खयालों में वह अपना किंमती समय बर्बाद करता हैं और कुछ आसार नजर ना आने के कारण आखिर में उस सवाल के बारे में सोचने लगता हैं। अपने जिंदगी में जब सवाल आते हैं तो साथ में जबाब भी लेकर आते हैं। लेकिन हम सवाल में ही उलझे रहे तो उसके पिछे छुपे हुए जबाब ढुंढ नही पाते। इसिलिए कोई भी मुश्कील हो उसका पिछा छुडाने के बजाय सामना करो। अपने आप जबाब सामने खडे हो जाऐंगे ।
ईश्वर का नाम लेते हुए मैंने कदम आगे बढाए। मन को एकाग्र करते हुए पूल पर से गुजरने लगी। पोर्टर भी पिछे से आ रहा था। ऐसे पूल लाँघते हुए फिर मज़ा भी आने लगा। पूल लाँघने के बाद का सफर, याक पर बैठकर चालू हो गया।

कुछ दुरी पर यकायक कैलाश अपने पूरे सौंदर्य के साथ सामने आ गया। हम जैसे शिवलिंग की पुज़ा करते हैं ऐसे स्वरूप में, शुभ्र सफेद बर्फाच्छादित तेजोवलय प्रकट हुआ। अद्भूत छटा थी कैलाश की । गहरा नीरव सन्नाटा ,रहस्यमय दैवी अनुभूतीयों से पूरा वातावरण भारीत था। 6714 मीटर ऊँचा, काले पत्थर का खडा पहाड़ शिवलिंग के रूप में, बर्फ की परते लपेटे हुए ध्यानमग्नता में डुबा था। भगवान शिव के साथ पार्वती माता भी वहाँ विराजमान हैं। कैलाश की परिक्रमा करते वक्त हर कोने से उसका अलग रूप सामने आता हैं। पश्चिम दक्षिण दिशा में फणधारी नाग के रूप में,पुरब की ओर से लिंग जैसा, और उत्तर दिशा में मंदिर स्थापित शिवलिंग नजर आता हैं। 
अपने विष्णुपुराण,स्कंदपुराण,हरिवंशपुराण,श्रीमद्भागवत,देवी भागवत,महाभारत जैसे अनेक पुराणों में कैलाश का वर्णन किया हुआ हैं। ऐसे कहते हैं की कैलाश की निर्मिती विष्णुजी ने की हैं, और मानससरोवर ब्रम्हाजी ने निर्माण किया। शब्दों की दुनिया के पार हम लोग पहुँच चुके थे। केवल आँखों से कैलाश के रूप, रस, गंध, अनामिक स्पर्श के एहसास का रसपान चालू हुआ। व्यावहारिक दृष्टता से फोटो निकालना बस इतना ही काम चालू था। उस परम पवित्र कैलाश को मन से प्रणाम करते हुए आगे चलना शुरू किया।

अब रास्ता और भी कठिनाईयों से भरा हुआ था। पत्थरों से जगह ढुंढते हुए पैर रखने की कोशिश चालू थी। कही भी पेड़ पौधों का नामोनिशान नही। एखाद दुसरी घासपत्ती दिखाई दी बस । तीव्र धुप के कारण थकान महसुस हो रही थी। बीच में कभी बादल आ गए तो ठंड़ लगती थी। ऐसे विपरीत वातावरण में काफिला आगे बढ रहा था। कभी कभी मैं याक पर बैठ ज़ाती। थोडा आगे चलते ही एक तीव्र चढ़ान सामने आ गई। चढ़ाई के वक्त इधर उधर देखना भी मुश्किल हो गया। अपने पैरो तले आँखे गडाएँ आगे बढ रहे थे। याक भी अभी बीच बीच में रूकते हुए जोर जोर से साँस ले रहे थे। सिर्फ एक आदमी चल सके इतना ही रास्ता दिखाई दे रहा था। चारों तरफ उज़ाड़, उखडी, हुई दुनिया । लेकिन उसमें भी सुंदरता थी। वह देखने के लिए अब समय कहाँ ? उपर चढ़ाई करते हुए जल्दी पहुँचकर ,दोपहर से पहले नीचे भी आना था। यहाँ मौसम कब अपना रंग पलट दे इसका अनुमान नही लगा सकते। दो घंटे की चढ़ाई के बाद सामने लँड़स्लायडींग होते हुए दिखाई दी। पत्थर और मिट्टी जोरशोर के साथ नीचे आ रही थी। अगर मनुष्य वहाँ होता तो उसके अंदर दब ही जाता। पशुओं को इस खतरे का सामना नही करना पड़ता। याक, बकरीयाँ, इन्हे जमीन के अंदर से जो तरंगे निकलती हैं वह ज्ञात होती हैं और वह उस स्थान के पहले रूक ज़ाती हैं या आगे निकल ज़ाती हैं। अभी तक तो हवा अच्छी थी। बीच में थोडा रूकते हुए आराम किया। छोटे सॅक में रखा सूखा मेवा ,लड्डू,खाने के बाद आगे का सफर चालू किया। लगभग आधा घंटा ही हुआ होगा, अचानक से बारिश चालू हो गई। कही भी छुपने के लिए जगह नही थी इसीलिए जहाँ थे वही रूक गए। अभी भी रास्ता इतना ही था की एकही आदमी उस पर से गुजर सके। थोडी देर बाद बारिश रूक गई। लेकिन अब रास्ता फिसलाऊ हो गया । बहुत धीरे से कदम बढाना जरूरी हो गया। काफिला चल रहा था। अचानक जोर जोर से आवाज आने लगी ”चद्दर आ रही हैं, जहाँ खडे हो वही रूको“। सब लोग चकरा गए चद्दर आ रही हैं मतलब ? साथ में कोई भी नही सब आगे पिछे कही भी पहुँच चुके थे। अभी पुछे तो भी किससे ? दस मिनिट तक अपने पैर भी नजर ना आए, इतना सब धुंदला हो गया था। धीरे धीरे सब साफ होता गया। बाद में पता चला चद्दर आ रही हैं मतलब बादलों का बडासा झुंड़ आ जाता हैं। जब तक वह निकल नही जाता तब तक सामने क्या हैं वह भी दिखाई नही देता। छोटे रास्ते से गुजरने के कारण जरा भी पैर इधर उधर हुआ तो सीधे खाई में गिरने की संभावना थी। वहाँ किसी की भी मदद करने के लिए कोई नही पहुँच सकता।

(क्रमशः)