रजनी की उपेक्षा से हतप्रभ और निराश सेठ जमनादास अंदर तक हिल गए थे। रजनी से बात करने का, उसको समझाने का उनका जोश सोडे के खुले हुए बोतल के समान ठंडा पड़ चुका था। बड़ी देर तक वह उसी अवस्था में खड़े रजनी के पलटने और उसके कुछ बोलने का इंतजार करते रहे, लेकिन गहरी नींद में डूबी हुई रजनी भला कोई प्रत्युत्तर देती भी कैसे ?
कुछ देर के इंतजार के बाद सेठ जमनादास थके कदमों से बाहर आ गए और फिर उसी बेंच पर पसर गए जहाँ थोड़ी देर पहले बैठे हुए थे।
अब उन्हें थकान और नींद भी महसूस हो रही थी। उन्होंने कलाई पर बंधी घड़ी देखी। सुबह के पाँच बजनेवाले थे।
समय का अहसास करके उन्हें खुद पर आश्चर्य होने लगा। भोर हो गई थी और इसका मतलब स्पष्ट था कि उन्होंने इसी बेंच पर बैठे बैठे ही पूरी रात गुजार दी थी। दिमाग में उथल पुथल कर रहे पुराने ख्यालों की उलजन में ऐसे उलझे कि रात कैसे बित गई पता ही नहीं चला।
शांत वातावरण , वातानुकूलित कमरा और गद्देदार बिस्तर पर भी करवटें बदलने वाला इंसान इस सख्त सी बेंच पर भी बिना किसी तकलीफ के रात बिता सकता है यह अहसास एक अजूबा ही था उनके लिए, लेकिन तभी दिल के किसी कोने से आवाज आई, 'कोई ताज्जुब नहीं है इस बात पर। मानव मन हमेशा बड़ी उलझनों में ही उलझा रहता है। कोई बड़ी मुसीबत सामने हो तो छोटी मोटी मुसीबतें तो उसे नजर ही नहीं आतीं। वही हुआ था रात तुम्हारे साथ। रजनी के भविष्य को याद करने के क्रम में तुम्हें साधना का भूतकाल याद आ गया जो किसी भयानक सपने से कम नहीं था। और बात जब उस बेटी के खुशियों की आ जाय जो कि अपने जिगर के टुकड़े से भी ज्यादा प्यारी हो , तब तो उसके सामने पूरी दुनिया की तकलीफें कम ही नजर आती हैं। यूँ ही नहीं कहा गया है कि हर इन्सान को अपना ही दुःख सबसे अधिक कष्टदायक महसूस होता है। तभी तो साधना की पूरी कहानी याद आने के बाद भी तुम अभी तक उसकी तरफ से लापरवाह बने हुए हो। अपनी बेटी ही तुम्हें दुखियारी नजर आ रही है जबकि साधना की तुम्हें अब भी कोई फिक्र नहीं है। तुम्हारे जैसे इंसानों को ही खुदगर्ज कहा जाता है, मक्कार कहा जाता है।'
अचानक जमनादास स्वतः ही बड़बड़ा उठे, "नहीं ! मैं खुदगर्ज नहीं हूँ और न ही मैं मक्कार हूँ, लेकिन हाँ मैं सबकी तरह बड़े दिलवाला नहीं हूँ। जब जब मुझे अपनी बेटी का ख्याल आता है तब तब मैं अपने आपको बहुत कमजोर पाता हूँ। क्या एक बेटी का बाप होना कमजोरी की निशानी है ?"
उनका अंतर्मन ठहाका लगा उठा,"हा हा हा ...! ये तुम्हारे मन का वहम है जमनादास ! एक बेटी का बाप होना किसी कमजोरी की निशानी नहीं वरन फख्र की बात होती है। ये तो तुम्हारा उसके प्रति प्रेम है जो तुम्हें उसके प्रति फिक्रमंद बना रही है और तुम्हारे कर्म हैं जो तुम्हें डरा रहे हैं, तुमको कमजोर साबित कर रहे हैं। याद करो साधना पर क्या बिती होगी ? क्या बिती होगी मास्टर साहब के ऊपर जब उन्हें गोपाल की गैरमौजूदगी की वजह से गाँववालों के अजीब अजीब ताने झेलने पड़े होंगे।
गाँववालों की अजीब मानसिकता होती है। साधना के चरित्र पर उँगलियाँ उठाने से भी न चूके होंगे, और फिर उस नवजात की क्या गलती रही होगी जिसने साधना की कोख से जन्म लिया होगा ? अब तो यह निश्चित हो गया है कि वह नवजात एक बालक ही रहा होगा जो अब युवा अमर का रूप ले चुका है। क्या इतनी आसानी से वह अपने बचपन की विसंगतियों को विस्मृत कर पायेगा ?
चाहे जो हो , अब तो वह मेरी ही कारगुजारी से हमेशा हमेशा के लिए हमसे दूर हो चुका है। अब क्या करें ? साधना के बारे में पता लगाना ही होगा और इसके लिए सबसे आसान रास्ता है कि जहाँ से कहानी खत्म हुई थी वहीं से शुरू की जाय अर्थात वह अंतिम बार साधना से सुजानपुर में मिला था तो अब उसकी तलाश भी वहीं से शुरू की जाय।'
उसके दिमाग ने भी उसके अंतर्मन की पुरजोर वकालत करते हुए कहा ,"हाँ जमनादास, यही सबसे कारगर और उचित राह होगी साधना के बारे में पता लगाने की। तुम्हें शीघ्र ही ठोस कदम उठाना होगा इससे पहले कि देर हो जाय।"
"तुम सही कह रहे हो। मुझे शीघ्र ही सुजानपुर पहुँचना चाहिए।" स्वतः ही बुदबुदाते हुए जमनादास ने मन ही मन मानो कुछ तय कर लिया हो।
'एक बार रजनी को देखकर शीघ्र ही सुजानपुर के लिये निकल लूँगा ' इसी सोच के साथ उन्होंने रजनी के कक्ष में प्रवेश किया।
रजनी अभी तक उसी अवस्था में उसी तरह बेड पर बेसुध सी पड़ी हुई थी। उसे देखते हुए भावुक हो गए सेठ जमनादास। उसके माथे पर स्नेह से हाथ फेरते हुए जमनादास की आँखें छलक पड़ीं। अपराध बोध से ग्रस्त जमनादास कुछ कहकर अपना जी हल्का करने के उद्देश्य से भावुकता में बोल पड़े, "मुझे माफ़ कर दे बेटी। अनजाने में मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई है और सजा तुझे भुगतनी पड़ रही है। लेकिन तू चिंता न कर मेरी बच्ची ! मैं अपने पापों का प्रयाश्चित करूँगा। बहुत जल्द करूँगा।"
तभी रजनी के शरीर में हरकत सी हुई। धीरे से करवट बदल कर उसने अधखुली आँखों से जमनादास की तरफ देखा। ऐसा लग रहा था जैसे उसे आँखें खोलने में बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ रहा हो। मुंदती आँखों के कोरों से देखते हुए उसने बेहद धीमी आवाज में काँपते हुए कहा, "पापा, कैसी गलती ....सजा .....पाप ....और फिर प्रायश्चित .....मैं कुछ समझी नहीं !"
तड़प कर उसका हाथ अपने हाथों में लेकर एक हाथ उसके माथे पर फिराते हुए जमनादास बोल पड़े, "कुछ नहीं बेटा, ये सब एक लंबी कहानी है सो फिर कभी तुम्हें सुनाऊंगा। अभी तो बस तुम आराम करो और पहले स्वस्थ हो जाओ।"
"जी पापा !" कहकर रजनी की बोझिल पलकें फिर से मूंदने लगी ही थीं कि तभी रजनी ने अपनी पूरी शक्ति निचोड़कर एक बार फिर अपनी पलकें खोलीं और जमनादास की तरफ देखते हुए टूटते हुए शब्दों में बोली, "पापा, रिपोर्ट में क्या आया है ? डॉक्टर कुछ खुसरपुसर कर रही थी। ऐसा क्या है जो मुझसे नहीं बताया जा सकता ?"
"तुम्हें कुछ नहीं हुआ है मेरी बच्ची। वो एक भयानक लम्हा था जो गुजर गया। दिल का दौरा ही कह सकते हैं उसे लेकिन ईश्वर का लाख लाख शुक्र है, उसने मुझसे मेरी जिंदगी छिनने से इंकार कर दिया।" कहते हुए एक पल को खामोश हुए सेठ जमनादास और फिर दोनों हाथों से उसका हाथ थामते हुए बोले, "मैं एक बहुत जरूरी काम से शहर से बाहर जा रहा हूँ। अपना ध्यान रखना। मुझे वापसी में देर भी हो सकती है, सो चिंता न करना। ड्राइवर श्याम रहेगा यहाँ तुम्हारे पास। कोई जरूरत हो तो उसे बुला लेना और जब जी करे मुझे फोन कर लेना। अब तुम आराम करो, मैं चलता हूँ।"
कहने के बाद सेठ जमनादास ने झुककर उसका माथा चुम लिया।
कुछ देर बाद सेठ जमनादास की कार शहर से बाहर जानेवाली सड़क पर फर्राटे भरते हुए आगे बढ़ रही थी।
क्रमशः