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पुरखों का घर
आपने कानपुर के शुक्लागंज का नाम सुना ही होगा ।
मैं तिलक ठाकुर , शुक्लागंज गंगा ब्रिज के पास गंगा के किनारे हमारा एक पुस्तैनी पुरखों का बड़ा सा घर है लेकिन
अब वहां कोई नही रहता , घर जर्जर है , ईंटे ,
टाइल्स व खिड़कियां ऐसे ही झूले हुए रहतें हैं ।
एकबार देखकर ऐसा सबको लगता है कि वह घर
जरूर भूतिया ही होगा , पर आज तक ऐसी कोई
विशेष घटना वहां नही घटी जिससे कि इस पुराने ,
टूटे फूटे घर को हॉन्टेड प्लेस का दर्जा मिले ।
मैंने सुना है वह घर मेरे पिता के दादा के दादा जी का
था जो कभी वहां रहा करते थे । वह थे भी बहुत धनी
और तभी तो ऐसा बंगला बनाया । तब तो कानपुर शहर
बसा भी नही था । दिन बीतते गए और आसपास कई
बड़े घर , बिल्डिंग आदि बनते गए और उस घर की
हालात दिन पर दिन और खराब होते गए ।
तब मैं कक्षा 8 में पढ़ता थाएक दिन स्कूल के प्रिटेस्ट में गणित में 15 नंबर पाने के कारण , पिताजी ने पूराघर
सर पर उठा लिया क्योंकि वह थे मेरे स्कूल के गणित के अध्यापक और एक अध्यापक का लड़का इतना कम नंबर पाए यह पिताजी के मान को ठेस पहुँचा रहा था ।
उन्होंने और घर के और लोगों ने मुझे ऐसा डाँटा की
वह केवल आप देख कर ही समझ सकतें हैं , बीच -
बीच में माँ ने भी आग में घी डाला यह कह कर की
" दिन भर बस बाहर दोस्तों के साथ बस खेलनाऔर कोई काम नही साहब का , न पढ़ना न लिखना ।"
मेरे गुस्से का पारा पूरे चरम पर था कुछ कर जाऊं ऐसा
ख्याल मन में घर कर गया था ।
मैं शाम को चुपके से एक स्कूल बैग में कुछ कपड़े
डाल चुपके से घर के बाहर निकल गया , गुस्से का
वेग कुछ भी करा दे । मन में बड़बड़ा रहा था 'यह घर
मेरे लिए नही तो क्या हुआ मेरे दादा पुरखों का घर तो
है और मेरे पुरखों का घर मतलब मेरा घर , मैं अक्सर
उस बड़े घर को अपना ही मानता था और सोचता इस
बड़े घर को बाद में मैं सुंदर सा एक जबरदस्त घर
बनाऊंगा ।
शाम के 9 बज रहें हैं या कहें रात के मैं घर के सामने
पहुँच गया , आसपास के बिल्डिंग थोड़ी दूरी पर थे और
शहर से थोड़ा किनारे होने के कारण चारों तरह एक
शांति सी थी हाँ गाड़ी की झीमी झीमी सी आवाज
जरूर कानों तक पहुँच रहीं थी । और गंगा की शीतल
हवा की सांय सांय भी स्प्ष्ट सुनाई व महसूस हो रही थी ।
बाहर का दरवाजा एक धक्के के साथ खोला , जंग लगे
होने के कारण पूरे घर में चर्ररररर की आवाज गूंज
उठी । मैं धीरे से अंदर प्रवेश किया सड़क पर लगे लाइट
की रोशनी खिड़की से बहकर अन्दर आ रही थी जिसके कारण कई प्रकार के विभत्स आकृति पूरे घर में जहां तहां
उभर आई थी । हाँ ये नही कहूंगा कि डर नही लगा
एक बार तो पूरा शरीर सिरह सा गया , पर गुस्सा भी
अपने चरम सीमा पर था तो डर थोड़ी कम थी और
जोर की भूंख भी लगी थी ।
घर के नीचे की जगह थोड़ी घनी है तो मैं धूल भरे
लकड़ी की सीढ़ी से घम्म घम्म करते हुए ऊपर चढ़ने
लगा , कुछ सीढ़ी चढ़ा ही था कि सीढ़ी के ऊपर से
आवाज आई – " अरे तुम लोग क्या शाम को भी शांति
से नही बैठने दोगे ? , जब देखो तब दे दीजिए ,
दे दीजिए । ये देदो , वो देदो दिन भर , मांगने से
तुम लोगों को फुर्सत नही ।"
तुरंत ही नाक में तम्बाकू और गुलाब की सुगंध फैल गयी ।
मैंने ऊपर चढ़ कर रोड लाइट की रोशनी में देखा
एक बूढ़ा आदमी , लंबाई अच्छी - खासी , शरीर पर
मोटा व्यापारिक पोशाक जैसा बड़े बड़े सेठ महाजन
पहनतें हैं , पैरों में सफेद चमड़े का जूता और बाएं हाथ
की हर अंगुली में एक एक चमकती हुई अंगुठी ।
मैं जैसे उथल पुथल करके सीढ़ियों से चढ़ा था
तो मेरी तरफ बूढ़े दादा आश्चर्यजनक होते हुए
बोले – " तुमको तो पहले कभी नही देखा , तुम यहाँ
क्यों आये हो , तुमको क्या चाहिए ?"
मैं बोला – " क्यों नही आऊंगा ? ये मेरे पिताजी के दादा
के दादा का घर है ।"
चेहरे पर कुछ आश्चर्यजनक भाव लाने के बाद वह
आगे बढ़े और मेरे बाएं कंधे पर हाथ रखकर बोले –
" तुम्हारे पिता का क्या नाम है ? , और दादा का क्या
नाम है ? "
मैंने तुरंत उन्हें नाम बताया , नाम सुनकर वह कुछ
देर चुप रहे । चारों ओर अंधकार कोई आदमी व लोग
नही । तब मैंने देखा सीढ़ी के रेलिंग के पास जाकर
वह आदमी चिल्लाया – " हरिओम वो हरिओम काम
के समय सब कहाँ चले गए , घर में बत्ती जलानी है
या नही । "
नीचे के अंधकार से स्प्ष्ट आवाज आई – " हाँ आता हूं "
कुछ ही देर में सीढ़ी से ऊपर किसी के आने की आवाज
आयी , धीरे धीरे वह हमारी तरफ बढ़ने लगा । वह
एकदम काला , पतला सा, बांस की तरह लम्बा
धोती पहने और शरीर पर एक केसरी बनियान पहने
हुए थे ।
उन्हें देखकर वह बूढ़े दादा बोले – " कहाँ थे इतनी
देर , कोई अपना आया है उसे देखा या नही ।"
वह आदमी बोला – "ठाकुर साहब वो बाहर नाच
का प्रोग्राम होने वाला है तो बस वहीं शिरकत करने
गया था ।"
फिर मेरी तरफ देखकर बोला – " छोटे ठाकुर आप नही
जाओगे , महिला नाच देखने , बहुत अच्छा लगेगा ।"
तब बूढ़े दादा तपककर बोले – " वो सब जगह बच्चों
के लिए नही है , बेटा तुम मेरे साथ इधर आओ ।"
पास के कमरें में एक जगह एक तख्त रखा था जिसपर
मलमल की गद्दी और सुंदर चादर बिछाया गया था ।
यह घर पूरा जगमग था , पास ही चटाई पर एक पंडित
की भेष में कोई बैठा था उन्हें देखकर बूढ़े दादा बोले –
" मैंने कहा न 10 रुपये और 5 मन दाना पूजा के लिए
मिल जाएगा अब आप जाइये ।"
फिर वह पंडित चला गया , मैं वहीं तख्ते पर बैठ गया
मेरे बैग को देखकर बोले – " घर से भाग आये हो क्या ?
पर क्यों ? "
मैंने सब बात उन्हें बताई , कुछ देर सोचकर बोले – "
मात्र 15 पाया , पागल तुम्हें शर्म नही आती , गणित
समझ में नही आती । वैसे मुँह क्यों लटकाए हो , अभी
तक कुछ खाया नही , अरे अरे हरिओम , पट्टू से खाना
ले आओ ।"
हरिओम के जाते ही मुझसे बोले – " मेरा कभी भी
एक भी सवाल गलत नही होता था , और तुम मात्र
15 पाए । जानते हो नवाब के पास से मुझे सर्टिफिकेट
मिला था , हाउस के सभी अंक भूल सुधार करता था ।
रुको कल द्वेवचन्द्र को बुलावाता हूं वह तुम्हें पूरा गणित
समझा देगा । "
हरिओम एक चांदी की थाली में पूड़ी सब्जी , दाल ,
रसगुल्ला , व एक गिलास बादाम का शर्बत ले आये ।
खाने के बाद , पास के स्नान घर से हाथ पैर धोकर
एक मखमली खाट पर लेटकर पूरी रात चैन की
नींद सोया ।
सुबह हरिओम ने जगाकर बोला – " ठाकुर साहब
देवचन्द्र जी गणित सीखने आएं हैं , चलो ।"
देवचन्द्र जी आकर , पूरा सबेरा मुझे गणित पढ़ाया
हरिओम कुछ न बोलकर बीच में दो ग्लास दूध देकर
गया ।
किताब नही है बैग में कॉपी पेन देखकर देवचन्द्र जी
बहुत खुश हुए , क्या बताऊँ जो सब सवाल पूरे साल
बैठकर नही आया वह कुछ ही देर में देवचन्द्र जी ने
समझा दिया । उनको किताब की जरूरत नही सब
दिमाग में भरा हुआ है ।
उनके जाने के बाद , दिन के अजोर में घर को देखा एकदम
सुंदर, आंगन में गया चारों ओर झिलमिल सूरज किरण व वहीं कई तरह के रंगों के तोता पिंजरें में चना खा रहे थे
कितना मनोरम दृश्य था ।
फिर वहीं दीवाल के पास बैठे हरिओम से पूछा –" दादा
नही दिखाई दे रहे उनका नाम क्या है ? बहुत ही अच्छे
हैं वो ।"
तभी पीछे से आवाज आई – " क्या नवाब साहब मेरे
बारे में पूछ रहे हो , मेरा नाम है ठाकुर शिवलिंगाचन्द्र
शिवू ठाकुर बोलतें हैं सब । मैंने सुना तुमने बहुत अच्छा
सवाल हल किया ये लो तुम्हारा इनाम ।"
यह कह उन्होंने मुझे एक सोने का चिन्ह दिया । बाहर
दरवाजे पर बहुत हल्ला चिल्लाहट हो रही थी , मुझे
पता चल गया कि माँ और पिताजी ही होंगे ।
मैंने तुरंत जाकर दरवाजा खोला । वहां मेरी माँ , पिताजी
, बड़े चाचा मुझे खोजते हुए आये थे ।
माँ मुझे देखते ही बोली – " वाह रे वाह इस निर्जन
खंडहर जैसे घर में न खाए पीए पूरा रात तुमने कैसे
गुजार डाली ।
तभी मैंने चारों ओर देखा सब जगह धूल से भरे थे
एकदम खराब स्थिति मैं दौड़ते हुए ऊपर की तरफ गया
वहाँ का नजारा भी ऐसा ही था दीवाल उखड़ा बिखड़ा
टाइल्स के पत्थर नीचे टूटकर बिखरे हुए ।
मैं चिल्लाने लगा हरिओम ओ हरिओम , शिवलिंगाचन्द्र
शिवलिंगाचन्द्र कहां हो सब । तभी पिताजी ने मुझे
जोर से पकड़ा और कहा – " जानते हो न शिवलिंगाचन्द्र
जी मेरे दादा के दादाजी थे और हरिओम उनका
श्रेष्ठ मुलाजिम ।"
यह सुन मैं थम सा गया , हाथ में लिए सोने के मुहर
चिन्ह को जेब में रखकर बोला – " चलो , अब देखना
हर टेस्ट में गणित में अच्छा नंबर पाऊंगा ।"
वह सब बातें मैंने किसी को नही बताई , मैंने ठीक किया
कि बड़ा होकर , खूब पैसा कमाकर उस घर को
नया बनाऊंगा और वहीं पर रहूंगा , मां गंगा भी सामने
ही हैं ।
||समाप्त ||