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तिबेटियन मान्यताओं के अनुसार कैलाश,विश्व के केंद्रस्थान पर स्थित हैं और उसकी ऊँचाई आकाश तक पहुँची हुई हैं। ऐसा माना जाता हैं की पर्बत की आधी ऊँचाई पर कल्पवृक्ष हैं, चारों कक्षा सुवर्णांकीत हैं। पुरब दिशा में हिरे, दक्षिण में नील, पश्चिम में माणिक, और ऊत्तर दिशा की ओर सुवर्ण ऐसे जड़जवाहिरों से भरा कैलाश पर्बत हैं। शिखर चोटियाँ सुगंधी फुलों से तथा औषधी वनस्पतीयों से महकती रहती हैं। चारही बाजू में भगवान गौतम बुध्द के पदस्थल शाब्ज भरे हुए हैं। कैलाश पर्बत का तिबेटियन नाम कांगरिम्पो हैं। कांगरिंम्पो मतलब कमल में बसा हुआ मोती । कैलाश के चारों ओर जो पर्बत श्रेणियाँ हैं वहाँ बर्फ नही गिरता, लेकिन कैलाश हमेशा बर्फाच्छादित रहता हैं। इसीलिए वह एक मोती की तरह बीच में चमक उठता हैं। चारों ओर फैले हुए पर्बत, कमल पंखुडियों के तरह सजे हुए दिखते हैं। यह पढा हुआ वर्णन आँखों के सामने दृगोचर होने लगा।
अपने पुराणों में कैलाश शिव पार्वतीजी का निवास स्थान माना गया हैं। यहाँ पर रावण ने तपःश्चर्या की थी, महालक्ष्मीजी ने शुंभ निशुंभ दैत्यों का वध किया ऐसे कहाँ जाता हैं। कैलाश के क्षेत्र में त्रफुलको तथा जरीधिपु यह मठ मानस सरोवर के दक्षिण किनारे पर था। जहाँ से कैलाश दर्शन होते हैं। चीनी सेनानीयों के आक्रमण में बहुत सारे मठ नष्ट हो गए। लेकिन उसके कुछ अवशेष अभी भी वहाँ मौजूद हैं। साधना के लिए कितना अनुकूल वातावरण था वहाँ पर। शांत निःस्तब्ध क्षेत्र में मन भी निःस्तब्ध हो जाता हैं। विचार कम हो ज़ाते हैं। सामने प्रत्यक्ष ईश्वर स्वरूप कैलाश पर बैठे शिवजी के दर्शन और पर्बत के नीचे हलकीसी लहरों के साथ नीले हरे रंग में फैला हुआ ,मन को शांत करनेवाला मानस सरोवर इस की कल्पना से ही मन तंद्रील हो गया। सिर्फ कल्पना मात्र से साधना का अलौकीक रूप दर्शन, चित्त को चौथे आयाम की सीमा तक पहुँचा रहा था। तो जिन लोगोंने यहाँ साधना की होगी उन लोगों को कौनसा लोक प्राप्त हुआ होगा ? तथा अलौकीक अनुभवों का खज़ाना पाकर उनकी मनोदशा की तरंगे कैसी होगी ? इसका तो अनुमान लगाना मतलब उस अलौकीक तरंगों को स्पर्श करने जैसा लग रहा था।
किसी की आवाज कानों में पडी तो वास्तविकता ज्ञात हो गई। एक सहेली मुझे पुकार रही थी। अभी हमें यहाँ से निकलना था। तारचेन से डेरापुक पाँच कि.मी. सफर, बस से और यमव्दार से 12 कि.मी. पैदल यात्रा चालू होने वाली थी। सब मिलाकर 17 कि.मी. के सफर में सात सो फीट की चढ़ाई हो ज़ाती हैं। ऑक्सिजन की कमी के कारण खडे रहने से भी थकान महसूस होने लगती हैं । यहाँ तो 12 कि.मी. का पैदल सफर था। जो चल नही सकते उनके लिए याक की सुविधा उपलब्ध थी। तारचेन में अली टूर कंपनी का गाईड़ याक की सुविधा उपलब्ध करा देता हैं। लेकिन याक से सफर करना आसान काम नही और याकमन भी अच्छी तरह से साथ नही देते हैं। बहुत लोग उसपर बैठते समय गिर ज़ाते हैं। तो याकमन उनकी मदद करने बज़ाय हँसने लगते हैं। अर्थात यह अनुभव हरेक व्यक्ति के साथ अलग हो सकता हैं। लेकिन दोंनो अनुभवों की तयारी रखना बेहतर हैं।
कैलाश की अधिष्ठात्री देवता को डेमछोक अथवा पव्होही कहा जाता हैं। देवताने नर रूंड़माला धारण की हैं। व्याघ्रचर्म पहना हुआ हैं। एक हाथ में ड़मरू और दुसरे हाथ में खत्म मतलब त्रिशूल लिए खडी हैं। डेमछोक देवता के पास खांडो नामक देवता अक्षय निवास करती हैं। इसके उपरान्त बुध्द और पाचसौ बोधिसत्व वही रहते हैं। कैलाश के नीचे हनुमानजी विराजे हैं। कैलाश मानसरोवर क्षेत्र परिसर में अनेक देवी देवताओंका वास्तव्य हैं। कैलाश शिखर चोटी से, ड़मरू,घंटानाद,तथा अनेक वाद्यों की मंजुल ध्वनी लहरती रहती हैं। क्या यह सब सच हैं ?यह नाद अतिंद्रिय हैं या भौगोलिक रचना का एक अविष्कार हैं ? जैसे बांस के बन में वायुलहरी के कारण स्वरलहरी अपने आप उत्पन्न होती हैं। बांस की स्थानशुन्यता और छेद के कारण अलग अलग लय में नादध्वनी उत्पन्न होती हैं यह एक नैसर्गिक चमत्कार हैं। वैसेही कैलाश शिखर चोटियों से जो नाद निर्मिती होती हैं वह भी निसर्ग का एक अविष्कार हो सकता हैं। लेकिन जो व्यक्ति सुक्ष्मता से यह सब ग्रहण कर सकेगा वह तो बडा भाग्यवान होगा।
मन तो कैलाश क्षेत्र के भौगोलिक ,पौराणिक, तथा अध्यात्मिक विचारों में दंग हो गया था। ऐसा कहते हैं की हर एक कर्म ईश्वर का ऐसे सोचकर देखो तो चारों ओर उसी का एहसास होगा।“मै” यह भाव खत्म हो ज़ाएगा।
बस से हमलोग यमव्दार पहुँच गए। वहाँ चोरटेन फांग यह सांस्कृतिक वास्तू हैं। चार खंबे और उनके उपर देवालय जैसी रचना थी। गाईड़ ने बताया “इस वास्तू रचना में पंचमहाभुतों का अविष्कार दर्शाया गया हैं। नीचे का समतल चौकोर हिस्सा जड़ पृथ्वी तत्व का प्रदर्शन करता हैं। उपर वाला हिस्सा अर्धगोलाकार रूप में जलतत्व का प्रतिनिधीत्व करता हैं। पिरॅमिड़ जैसे 13 पायदानों का मिनार तेज का प्रतीक और मिनार के उपर अर्धचंद्राकृती धातू का गहना वायुतत्व का प्रतीक हैं। उस गहने में एक तीर था वह आकाश तत्व दर्शाता हैं। दीवार पर आँखे ,अंक, के रेखाचित्र बनाए हुए थे। याक के सींग, हड्डी पवित्रता का प्रतीक माने जाते हैं। जमीन पर वह ढाँचे चारों तरफ बिखरे पडे थे।
हिमालयीन क्षेत्र में याक को कामधेनु माना जाता हैं। उनका दुध , चमडी ,बाल सबका इस्तमाल किया जाता हैं। सामान या यात्रियों के यातायात का वही एकमात्र साधन हैं।
यमव्दार से प्रवेश करते हुए कैलाश परिक्रमा की पैदल यात्रा शुरू हो गई। जमीन पर बिखरे हुए, याक के सिंग और हड्डीयों के उपर से गुजरते समय बहुत अजीबसा महसूस हुआ। पैदल यात्रा चालू हो गई। पूरा रास्ता पत्थरों से भरा चढ़ाई का था। धुप के कारण बदन में जलन हो रही थी। सामने से धुप और पीठ पिछे ठंड़ ऐसे वातावरण में चलना शुरू हुआ। हवाँ के विरलेपन से साँस फुलने लगी। धीरे धीरे एक एक करते याक पर बैठने लगे।
अभी तक तो याक और याकमन के बारे में बहुत कुछ सुना था। सांड़ से भी बडा ,लंबे बालोंवाला, अर्धगोलाकार सींग का याक देखकर थोडा ड़र मन में बैठ गया। उसके उपर बैठते समय पैर इतने फैलाकर बैठना पड़ता हैं की उतरने के बाद भी अपनी चाल कितनी देर तक वैसी ही रहती हैं। उस पशू के दिमाग में भी नही रहता की, अपने पीठ पर कोई बैठा हैं। कही पर हरियाली दिखाई दी तो वह अपना रास्ता छोड़ उसे खाने के लिए दौड़ता हैं। फिर वह हरियाली कही भी हो, काँटो भरी जगह ,चोटियाँ, वह अपनी मर्जी घुमता रहता हैं। ज़ान पर बनती हैं तो उपर बैठे सवारी की। कितना भी कस कर पकड़ के बैठो पर याक की मर्जी घुम गई तो वह सवाँरी को फेकने के लिए भी कतराता नही । ऐसे पढे हुए ज्ञान के साथ मैं तो ड़रते ड़रते याक के पास गई। याकमन ने बैठने के लिए मदद की। धीरे धीरे हमारी बारात निकली। मेरा याक वैसे तो अच्छा था पर कभी कभी दिन में एखाद बार उसके मुल स्वभाव के दर्शन हो ज़ाते। जैसे अचानक दौड़ना ,पिछे मुड़ ज़ाना। वह उसका मनोरंजन भी हो सकता हैं लेकिन उपर मेरा हाल भगवान ही ज़ानता था।
याकमन अपनी भाषा में कोई गीत गाते हुए शांति से चल रहा था। बीच में कभी ठीक हैं ना ? का इशारा करते हुए फिर अपने आप में मग्न हो जाता। मुझे भी यही चाहिए था। आत्ममग्नता। अंतर्मुखता। शांति । ऐसे अध्यात्मिक आभुषणों से मैं सजना चाहती थी। वास्तव में अपना शरीर कितना बडा आभुषण हैं। पंचतत्वों से बना शरीर,ज्ञानेद्रियों जैसे रत्नों के हार, सात चक्रों के शक्ति केंद्र,सिध्दी केंद्र, सप्त धातूओं का खज़ाना हैं। ऐसे आभुषणों का साज परिधान करने के बाद बहिर्मुख जगत का साथ छुटने लगता हैं। अंतर्मन की गहराई में आनन्द के वह फवाँरे फुटने लगते हैं जिसका स्वाद कल्पना से नही किया ज़ा सकता। जब तक आप बहिर्मुख हो बाह्य जगत की सारी क्रियाएँ आपके लिए जरूरी हो ज़ाती हैं। जैसे बाते करना, एक दुसरे के साथ सुख दुःख बाँटना, भाव भावनाओं से संबधित सब व्यवहार करना, जीवनचक्र का सामना करना, यह सब बहिर्मुख जगत में चालू रहता हैं। मनुष्य इस जगत में इतना एकरस हो जाता हैं की इसके आगे भी विश्व हैं इस बात का उसे विस्मरण हो जाता हैं। अंर्तजगत में पहुँचे हुए लोग, बहिर्जगत में सफर कर रहे लोगों जैसे ही व्यवहार करते हैं पर उनकी मनोदशा दुसरे जगत को पहचानने के कारण शांत रहती हैं। भाव भावनाओं में वह कम उलझते हैं। कभी उलझ भी गए तो दुसरे क्षण उस स्थिती से बाहर भी आ ज़ाते हैं। संसार में कमल पत्तों पर चमक रहे ओंस की तरह निर्लीप्त रहते हैं।
(क्रमशः)