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अपने मन में कौन से विचार आने चाहिए, नही आने चाहिए इसपर भी अपना नियंत्रण नही हैं। अगर अपना बस चलता तो कोई अच्छे ,सकारात्मक खयाल ही मन में आने देता। मोह ,माया, असुया, शत्रूता ऐसे खयाल मन में लाना किसको अच्छा लगेगा ? क्यों की ऐसे विचार करते समय व्यक्ति खुद जलता रहता हैं। बहुत तकलिफ उठानी पड़ती हैं ऐसे विचारों से। अगर हम खुद ऐसे खयाल मन में नही लाते हैं तो पाप पुण्य भी हम नही कर सकते। व्यक्ति तो सिर्फ घटनेवाली घटनाओं का साक्षीमात्र हैं।
कभी कभी ऐसा भी लगता हैं यह पूरी सृष्टी हम पहली बार देख रहे हैं ?अपने इतने जन्मों की श्रृंखला से गुजर चुके हैं ,तो पृथ्वी का चप्पा चप्पा हमारे पहचान का हो सकता हैं। तो माया का परदा डालकर फिरसे वही सृष्टी , वही संवेदना, दुःख क्यों सहेन करना पड़ता हैं ? हमारे हर एक कर्म, एक नया जन्म का कारण बन ज़ाते हैं। तो यह श्रृंखला कब टुटेगी ? कर्म के बीना तो जीवन ही संभव नही । ईश्वर कहते हैं ”आप पुरे शरणागत रूप से मेरे पास आ ज़ाओ ,मैं तुम्हे इस श्रृंखला से बाहर निकालूंगा। कर्म तो करने ही पडेंगे, लेकिन कर्मफल का त्याग करोगे, कर्मफल का अहंकार खत्म करोगे तो मुझे उसी क्षण पाओगे । ऐसे क्षण नैसर्गिक वातावरण में मिलते हैं। ईश्वर भी निसर्ग सान्निध्य में ही रहते हैं और भक्तों को भी अपने अस्तित्व की छवी वही दिखाते हैं। बस चलती रहती हैं । लेकिन यह आत्मनिरीक्षण के विचार थे। वह ही विचार आत्मज्ञान तक पहुँचा भी सकते हैं।
“वह देखो कैलाश” उस शब्द के हर्षोद्गार से तन मन पुलकीत होने लगा। जीवन के अंतिम ध्येय की परिपुर्ती से भक्तीभाव के सागर आँखों में उतर आ गए। मन की हज़ार आँखों से कैलाश पर्बत से लिपट कर हज़ारों युगों की विरही आर्तता की भावनाएँ फुट पडी। बेभान अवस्था हो गई। उसी अवस्था में शिवजी के हिमाच्छादित मुकूट के दर्शन सब लेने लगे।
अच्छी जगह देखकर बस रूक गई। कॅमेरा यही बाह्य साधन, स्थूलरूप में कैलाश दर्शन की याद दिलाने वाला था। सब बस से बाहर आ गए। मानससरोवर की अद्भुत शांति , पेड़ पौधे विरहीत तरंगों में लिपटी हुई शांति ,केवल धीर गंभीर पर्बतों में समाई हुई शांति , और इस शांति के प्रतिक बने हुए कैलाशनाथजी का सामने निखर रहा वह रूप यह सब देखते देखते मैं भी वह ही सृष्टी का हिस्सा हुँ यह बात मेहसूस करने लगी। अब कौनसी भी कृती बाकी नही थी। प्रणाम करना यह भी बाह्य उपचार लग रहा था। मन वही समाने लगा। बाह्यता का होश खोने लगा। लेकिन प्रभू इतनी जल्दी मेरा स्वीकार कैसे करेंगे ?बाकी लोगों के आनन्द बाह्यऊत्कटता के अविष्कार से मन ने फिरसे बहिर्मुखता का सफर चालू किया। हर एक का जैसा भाव उमड़ रहा था वैसी उसकी कृती हो रही थी। कैलाश दर्शन के प्रथम दर्शन को प्रणाम करते करते वही क्षण फोटो में बंदिस्त किए।
यह तो कैलाशजी की झलक थी। फिर भी आनन्द की लहरे सबके मन में लहरा रही थी। मानव प्राणी भी कैसा हैं उसे थोडा भी कुछ भावना रूप में मिल जाए उसे वह व्दिगुणित करता हैं। चाहे वह आनन्द हो या दुःख।
आगे का सफर चालू हो गया। जैसे जैसे मोड़ आते वैसे वैसे कैलाश के विविध रूप के दर्शन होने लगे। एक खिंचाव के साथ कैलाश हमारे पास आ रहा था। उससे नजर नही हट रही थी। पुरे सफेद बर्फाच्छादित कैलाशने मन और आँखे चकाचौंध कर दी थी।
जल्दीही हम तारचेन के गिंडीशी गेस्ट हाऊस पहुँच गए। बस के रूकते ही पहले कैलाश दर्शन के लिए पहुँच गए जहाँ से अपने सौंदर्य के तेजसे झगमगाता, अविचल , नीरवता से गहरा, गंभीर रूप से कैलाश सामने प्रकट होता हैं। ऐसा लग रहा था भगवान शिव ध्यानस्थ अवस्था में सामने बैठे हैं। ध्यान से निकलने वाली उर्जा पूरे वातावरण में फैल चुकी हैं। धूप की किरणोंसे चमकता वह नज़ारा अनुपम था। उसी अपरूप को चित्तधारा में समा लिय़ा। अब जन्मो जन्मों तक वह मेरे साथ रहनेवाला था। बीच में कभी लहराते बादलों के झुंण्ड आते और कैलाश अदृश्य अदृश्य हो जाता। कुछ ही देर बाद बादल हट ज़ाते तो आधे अधुरे चमचमाते दर्शन हो ज़ाते। देखते देखते कैलाश अपने पूरे तेजस्वी रूप में प्रकट हुआ। वह क्षण आध्यात्मिक आनन्द की परिसीमा थी। कोई भी वहाँ से हिलने का नाम नही ले रहा था।
जीवन में कुछ क्षण ऐसे आते हैं उनका वर्णन शब्दों में नही कहाँ जा सकता। हम सिर्फ अनुभव कर सकते हैं। महसूस कर सकते हैं। वह स्थिती हमारी थी। आखिर एक एक करके सब उठने लगे। रास्ता विहीन बस के सफर से, थकान महसुस हो रही थी। हम जहाँ ठहरे थे वह गेस्ट हाऊस ठीक था। गेस्ट हाऊस के बाहर आते ही कैलाश सामने दिख रहा था। हम जिस लिए आए थे वह मंजिल अब सामने थी। ध्येयपुर्ती का आनन्द मन में समाने लगा। सबके चेहरे खिले हुए थे। यहाँ तक आना कितना मुश्किल होता हैं वह बात यात्री ही जाने। शाम को फिरसे कैलाश के सामने ज़ाके बैठ गए। सर्वत्र लालीमा फैल चुकी थी। पूरा पर्बत लाल और सुनहरे रंगों में डुबा हुआ था। रंगों में खिलता और चमचमाता वह तेज ईश्वरीय साक्षात्कार का अविष्कार था। जहाँ मानवी आँखे और मन कल्पना नही कर सकते और वह कल्पना परे की बात मनुष्य देखले तो उसके लिए चमत्कार ही होता हैं।
अब सुरज ने भी बर्फीली चोटीय़ाँ लाँघ दी। कैलाश अब अपने पुर्वरूप में सामने खडा था। पर्बत पर हो रहा रंगोत्सव अब कैलाश के उपर फैले बादलों के झुंण्ड पर सिमित रह गया। लाल,हरे, पीले, सुनहरी रंग मतलब जीवन का आनन्द चैतन्य रूप। नीले, सफेद रंगों का मतलब शांत चैतन्य रूप। मन उन रंगों की गहराई में डुब जाता हैं। शांत होता हैं। विकार रहित होता हैं। वहाँ अब सृष्टी दो ही रंग की थी, सफेद कत्थई पर्बत और नीला आँसमान । धीरे धीरे वह भी खत्म होकर रह गई एक शांत नीरवता।
साँझ गहराने लगी। अत्यधिक बर्फीली हवा के कारण अब वहाँ रूकना मुश्किल होने लगा।
ठंड़ बढने लगी। गेस्ट हाऊस में आना अनिवार्य हो गया। खाने का समय भी हो गया था। चीन सरकार यात्रियों का खाने का इंतज़ाम नही करता इस कारण भारत से ही दो पोर्टर खाना बनाने के लिए साथ लिए ज़ाते हैं। उनकी तनखा वही तय की ज़ाती हैं। दुध पावड़र,चाय, कॉफी,पोहा,सोजी,आटा यह सब साथ लेना पड़ता हैं। ठंड़ के कारण दाल गलती नही हैं तो आलू,पुरी,फुलका,सुप ऐसा ही खाना बनाते हैं। सब लोग खाना खत्म करके सोने के लिए चले गए।
इनर सूट,पंज़ाबी ड्रेस,स्वेटर ,शॉल,सॉक्स इतना सब पहनने के बाद भी ठंड़ के मारे जान जा रही थी। सोने का कमरा मतलब एक लकडी का कमरा, उसे एकही व्दार और उपर की तरफ से झरोंका था। नीचे तक्तपोशी थी। एक कमरे में 5 से 7 आदमी सो सकते हैं इतनी ही जगह थी। याक की उन से बुनी बिछायत और उसी की चद्दर ,इतना सब ओढकर भी ठंडी लग रही थी। पानी पीने के लिए गर्म पानी के बडे थर्मास भर कर रखे थे।
हिमालय में भोर तीन बजे ही हो ज़ाती हैं। मेरी जल्दीही नींद खुल गई। बगल में सोई हुई लड़की दिखाई नही दी इसीलिए उसे खोजते खोजते बाहर आ गई। जैसे ही बाहर कदम रखा तो एक अनुपम नज़ारे की मैं हकदार बन गई। सारा आसमंत सुनहरे रंगों से भरा था। आकाश, पर्वत, शिखर चोटियाँ, सब सुनहरा । वह अद्भुत सुवर्णमयी सुबह से मेरी वह याद भी सुवर्णभरी हो गई। उस तेजोमय दृश्य में मंत्रमुग्ध होते हुए भी बाकी लोगों को आवाज देना चालू किया। आवाज सुनकर एक दो लोग बाहर आ गए बाकी सोते रह गए। जितने भी थे वह सुनहरे सुख में डुबकी लगाए बैठे रहे। थोडे ही समय के बाद रंग परिवर्तन हो गया। धुप निकलने के कारण रंगों की दुनिया लुप्त हो गई। हम भी वापिस अपनी दुनिया में लौट आए।
बाकी लोग उठने के बाद जैसे ही इस बात का पता लगा तो वह नाराज हो गए।पर क्या करते ?
तारचेन से ही कैलाश परिक्रमा की शुरवात होती हैं। जल्दी से तैयार होकर मैं आँगन में पहुँच गई। कैलाश के बारे में किताबें ,मॅगझिन्स में जो पढा था वह सब आँखों के सामने एक चलचित्र जैसा घुमने लगा। कैलाश अपना हैं लेकिन चीन के कब्जे में चला गया इस बात से कलेज़ा फटा ज़ा रहा था। अपना होते हुए भी अपने पास नही इस बात का अफसोस हो रहा था।
(क्रमशः)