व्यंग्य
मोहताज़ गण और तंत्र
यशवन्त कोठारी
सर्वत्र तंत्र का राज्य है । गण मोहताज है । हर विकास,
योजना पर तंत्र का अधिकार है । गण को कोई नहीं पूछता उसे
क्या चाहिये । तंत्र जो उचित समझता है, गण को मिलता है । गण
को शेयर बाजार की ऊँचाईयां दिखाई जाती है, गण कहता है
शेयर मार्केट देश नहीं है । गण को प्रोपर्टी में बूम दिखाया जाता है,
तंत्र कहता है देखो, ये शॉपिंग माल देखो, ये कारपोरेट आफिस
देखो, मगर गण को यह सब नहीं दिखता उसे दिखते है, गरीब
मजदूर और आत्महत्याएं करते किसान । जमीन बेचने के बाद
बीमार, बूढ़े किसान, मजदूर मर रहे है और तंत्र कहता है देश का
विकास हो रहा है । मुद्रा स्फीति कम हो रही है । हमारी विकास
दर नो प्रतिशत हो रही है देखो कम्प्यूटर पर देखो । एसी दखो ।
टीवी देखो । बारबालाओं को देखो । सर्वत्र देश प्रगति कर रहा है ।
देश का नाम विदेशों में ऊँचा हो रहा है, हम आसमान छू रहे है,
मगर बेचारा गण पगला जाता है । उसे आसमान की नही तन
ढकने की, कपड़े की जरूरत है । उसे एक कतरा धूप की जरूरत है
। उसे सस्ती कारे, एअर कन्डीशनरों की नहीं सस्ते गेहूं, सस्ती
दालों और सस्ती सब्जियों की जरूरत है । मगर तंत्र नहीं मानता
वो आलीशन एसी कमरों में बैठकर रोज-रोज मशीनरी योजनाएं
बनाता है और इन योजनाओं के नाम पर स्वयं का विकास करता
ही चला जाता है । सर्वत्र चांदी के जूते का साम्राज्य हो गया है ।
तंत्र सब कुछ इस प्रकार करता है कि गण बेचारा असहाय रह
जाता है । गणतंत्र के आदर्श क्या थे, क्या हो गये और क्या होंगे
अभी .गणतंत्र का यर्थाथ क्या है, एक भूखा, नंगा गरीब भारत या
शाइनिंग इण्डिया हर शहर के दो हिस्से है । एक जगमगाता भारत
और एक टिमटिमाता अंधियारा भारत । क्या यही है गणतंत्र की
असली तस्वीर । क्या इसीलिये दी थी हमारे पुरखों ने कुर्बानी ।
विकास, समता, खुशहाली, समृद्धि, सभी को रोटी, कपड़ा,
मकान, समरसता सब कहां चले गये । भारतीय गणतंत्र की यह
यात्रा कहां से चली थी और कहां पहुंच गई । हम चाहकर भी गण
के लिए कुछ नहीं कर सके । जन भूखा, प्यासा है और तंत्र कि
हालत ये है कि उसे सुनने की फुरसत ही नहीं है । सुनो सरकार
सुनो । क्या मेरी आवाज तुम तक पहुंचती है ?
हम एक अन्तहीन निराशा के दलदल में डूबते-उतरते जा रहे
है । समाजवाद डूब गया । साम्यवाद चल बसा । स्वतंत्र
अर्थव्यवस्था का अश्वमेघ यज्ञ चल रहा है । मगर इस यज्ञ से गरीब
का भला होगा ऐसा नहीं दिख रहा है । आजादी के दिन हमें
अपना संविधान मिला । मगर आदर्श खो गये । ईमानदारी हवा हो
गई । झूठ, मक्कारी, बेईमानी, दलाली, कमीशन, कट आदि ने पांव
पसार लिये । कमाओ, खाओ अपना घर भरो यह कैसा गणतंत्र ।
जनतंत्र के सत्तावन वर्षो के बाद भी रेन बसेरों में भोजन की
व्यवस्था नहीं हो पाती है । दूसरी तरफ पचासों व्यक्तियों का
भोजन पार्टी के बाद बाहर फेंक दिया जाता है । आजादी के
साथ ही, मानव मूल्य, समता, समरसता, सादगी, अन्तिम व्यक्ति
का उदय सभी कुछ भुला दिया गया । ये कैसा जनतंत्र है भाई,
सुनो सरकार क्या मेरी अनाथ आय तक पहुंचती है ?
रोम जलता है और नीरो बांसुरीं बजाता है । अभी भी तंत्र के
अधिकारी यही सोचते है कि रोटी नहीं है तो ये लोग केक क्यों
नहीं खाते । रसगुल्ला मुंह में रखते समय ये नौकरशाही,
अफसरशाही, राजनेता और उद्योगपति सभी गण, जन, गरीब
असहाय भारत के बारे में क्यों नहीं सोचते है । उधर भारत भूखा
है, नंगा है, प्यासा है, पीड़ित है, रो रहा है और तंत्र हंस रहा है ।
छब्बीस जनवरी हो या पन्द्रह अगस्त कोई फर्क नहीं पड़ता । तंत्र
भी नंगा है । राजा भी नंगा है, लेकिन राजा के नंगे होने के कारण
ये है कि राजा की सोने की पौशाक तंत्र ने भ्रष्टाचार के मार्फत
उदरस्थ कर ली है । केवल गरीब का बच्चा ही राजा को नंगा कह
सकता है । पैसा बढ़ता है गरीबी अपने आप बढ़ जाती है । गरीबी
रेखा के नीचे के लोग स्वयं बढ़ जाते है और सरकार उनको मानती
नहीं है । सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती । सरकार कान में
रूई लगाकर सो गई है । सुनो सरकार सुनो ।
क्या मेरी आवाज तुम तक पहुंचती है ?
बजट पर निर्णय करने वाले अफसर या मंत्री नहीं कारपोरेट
घराने होने लग गये । शेयर मार्केट में थोड़ी सी ऊँच-नीच होती है
तो वित्त मंत्री मुम्बई दौड़ पड़ते है । मगर हजारों किसानों की
आत्महत्याएं मजदूरों की भूख से तंत्र को कोई फर्क नहीं पड़ता ।
गरीब को शेयर, माल, कम्प्यूटर, टीवी, एसी नहीं रोटी और नमक
चाहिये, कभी कभार प्याज मिल जाये तो क्या कहना ।
दो जून की रोटी की यह लड़ाई इस गणतंत्र में भी जारी है,
पिछले गणतंत्र को भी जारी थी और अगले गणतंत्र को भी जारी
रहेगी ।
सुनो सरकार कभी ऐसा न हो कि गण, लोक, जन, जनता
जाग उठे और तुम्हे छुपना पड़े । जागो जनता जागो । अमीरी के
टापुओं तुम्हें गरीबी के समुद्र में सुनामी बहा ले जायेगी ।
यशवन्त कोठारी
86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर - 2