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तिबेटीयन लोग इस सरोवर को अपवित्र मानते हैं। कुछ ड्रायव्हर तो वहाँ गाडी रोकने से भी मना कर देते हैं। अतिभारीत लोह से भरे इस पानी से तथा बुरे कर्मोंसे लोगों को दूर रखने कितनी कहानियाँ और पाप पुण्य का हिसाब ऋषी मुनियोंने लगा के रखा हैं। जिस चीज का परहेज किया हैं उस हर एक चीज के पिछे सप्रमाण कारण मिमांसा छुपी हुई हैं, बस देर हैं तो वह समझकर दृष्टतापूर्ण अवलंबन की।
नीले पानी के नीली ज़ादू में मन और आँखे जैसे डूब गई थी। पानी से आते शीत लहरों से अंग पुलकीत हो गया। उपर के सफेद बादलों के झुंड़, ताल के आरसपानी नीतलता में प्रतिबिंबित रूप में दिखाई दे रहे थे। पानी से जो मंद लहरे उत्पन्न हो रही थी, मानो वह बता रही हो की आपके मन की गती यहाँ से कम होती ज़ाएगी, और मन की दौड़ने की गती कम हो गई तो अपने आप विचार कम उत्पन्न होंगे। जितना विचार कम, उतना मन स्थिर हो जाएगा। परिणामस्वरूप आप निर्विचार अवस्था में ध्यान के उस अवस्था के नजदीक जाऐंगे, शांति से भी आगे, जहाँ सब समाप्त हो जाता हैं। उसका वर्णन नही किया जा सकता हैं। वह केवल अनुभव करने की ही बात हैं।
शीतल जल के लहरों से, वातावरण से, मन में ईश्वर के प्रति विरह की भावना उमड़ पडी। विश्वभर के लिए करूणा भर आयी। सब लोगों का लोक परलोक का कल्याण चिंतन होने लगा। कितनी सात्विक भावनाऐं थी। सात्विक भावना के कारण पूरे संसार में आनन्द की लहरे समाई हैं ऐसा आभास होने लगा। जब हम दुसरों का कल्याण, शुभ चिंतन करते हैं तो अपना मानस निर्मलता की ओर बढ जाता हैं और ईश्वर दर्शन के समीप हम अपने आप को पा सकते हैं।
फोटो निकालते हुए उसके कितने रूप बंदिस्त कर लिए। किसीका भी मन वहाँ से जाने के लिए तैयार नही था। आखिर भारी मन से राक्षसताल से विदाई ले ली।
कितनी देर तक बस राक्षसताल के किनारे से गुजर रही थी। हमारी दृष्टी उस नीले नज़ारे से हटने के लिए तैयार ही नही थी। ऐसा लग रहा था वह ताल हमसे विदाई लेने के लिए थोडे दूर तक साथ आ रहा हैं। हमने भी भारीत नजरों से उसकी विदाई ले ली। सब शांत ,सुंदर दृश्य के ज़ादू में खो गए। बस में एक तरह का सन्नाटा छाया हुआ था। एखाद शब्द भी उस सन्नाटे पर खरोंच जैसा लग रहा था। थोडी ही देर में वह दृश्य अदृश्य हो गया।
अब मन टटोल रहा था आगे के अदृश्य दृश्य की ओर। लाल ,पीले पर्बतों को देखते हम आगे बढ रहे थे। मन में मानससरोवर का चिंतन हो रहा था क्यों की ऐसा पढ़ा था राक्षसताल से गुजरने के बाद कुछ ही देर में मानससरोवर के दर्शन होते हैं। तकलाकोट से तारचेन 125 कि.मी. दुरी पर हैं।15500 फीट ऊँचाई पर स्थित तारचेन से पहली बार कैलाश दर्शन होते हैं। लेकिन वह देखने के लिए वातावरण साफ होना चाहिए। चारों ओर कोहरा मच गया हो, तो एक कदम आगे क्या हैं वह भी नही दिखाई देता हैं। बस रूक गई। हम झैदी पहुँच गए। चाय नाश्ते का इंतज़ाम वही पर किया गया था।
कुछ ही देर में दूर से रूपहली रेखा झगमगाने लगी। समन्वयक ने कहाँ यह मानस सरोवर हैं। अनुपम स्वर्गीय सौंदर्य का साक्षात्कार था वह। मानो शुभ्र सफेद हिरों की राशी सामने पडी चमचमा रही थी। उसमें कही से लाल माणिक और हरे पाचु जैसा प्रकाश बिखेर रहा था। पानी में गुलाबी, नीला, ज़ामूनी ऐसे रंगों की रेखाएँ बीच बीच में चमक रही थी। पानी के बुंदो बुंदो में जैसे इंद्रधनुष समाया हुआ था। ऐसे लग रहा था कालचक्र यहाँ आकर रूक गया हैं। उस सौंदर्य का पंचेंद्रियों से रसपान करने से भी तृप्ती नही हो रही थी। आँखों में आँसु आ गए जो अतीव श्रध्दा के प्रतिक थे। भगवान के व्दारपर रत्नों की रास बिखरी पडी थी लेकिन ईश्वर जैसे उससे परे अपने आप में मग्न थे।
मानस सरोवर कौन परसे बीन बादल जहाँ हिम बरसे ऐसा वर्णन पढने में आया था। पृथ्वीतल के इतनी ऊँचाई पर सिर्फ मानस सरोवर का ही नाम आता हैं। तिबेटीयन लोग उसे छोमफम अथवा छोमवंग के नाम से बुलाते हैं। जिनिव्हा सरोवर ज्ञात होने से पहले अनेक युगों से मानस सरोवर पुरे विश्व को आकर्षित करनेवाला अजुबा हैं। अद्भुत शांती और वैभवसंपन्न साम्राज्य में प्रवेशित होकर मन को अत्यानंद हो रहा था। ऐसा मानते हैं ब्रम्हदेव ने अपने मन से मानस सरोवर की निर्मिती की हैं। तब तो मन का यह जन्मस्थान हो गया। अपने मूल स्वरूप को पाकर मन उसमें विलीन होता हैं? यहाँ विचार तरंग स्थित हो ज़ाते हैं। केवल आँखे नैसर्गिक सुंदरता ,आरसपानी वैभव का आकंठ पान करने में मग्न हो ज़ाते हैं ,लेकिन मन तक नही पहुँच पाते। मन एक गूढ शांती में विलीन हो जाता हैं।
मानससरोवर से सिंधु, सतलज, और ब्रम्हपुत्रा नदीयों का उगम होता हैं। उनका उगमस्थान और भारत के बीच में हिमालय खडा हैं। इस वजह से नदीयाँ पुरब पश्चिम बहती हैं। ब्रम्हपुत्रा पुरब से सिंधु और सतलज पश्चिम दिशा से लगभग 1000 मीलों तक हिमालय के साथ दौड़ती हैं। उसके बाद दक्षिण दिशा की ओर भारतीय उपखंड़ से मोड़ लेते हुए भारत भुमी को सुजलाम सुफलाम करती हैं ,और अंत में महासागर में विलीन हो ज़ाती हैं। यह नैसर्गिक चक्र हर एक को लागू होता हैं। बाल्यावस्था, तारूण्यावस्था, विलीनावस्था। फर्क सिर्फ काल का हैं। पृथ्वी को भी यह तत्व लागू होता हैं।
मानससरोवर के सभोवताल आठ गुंफा हैं। घुसळ, चिऊ, चरकिच, पोज़ा, प्रोंदा, सेराजम,यहरंगा, और ठोकरमंडी। यहाँ बौध्द लामा ध्यान साधना करते थे। अभी भी वहाँ ऐसी सृष्टी हैं जो हम अपने स्थूल आँखों से नही देख पाते।
पुराणों में ऐसा लिखा हैं की विष्णुजीने अपना मत्स्यावतार इसी सरोवर में धारण किया। नारायण, वसिष्ठ, वामदेव, शुक, नारद, आदी महान श्रेष्ठों ने यहाँ पर तपस्य़ा की हैं। विवेकानंद ,अखंडानंद, शिवानंद, प्रणवानंद ,इ. संतों ने भी यहाँ तपस्या की हैं। ऐसे पवित्र वातावरण से प्रेरीत श्रीवेदव्यासजीने श्रीमद्भागवत का निर्माण किया। यही पर श्रीमद् शंकराचार्यजी ने प्रस्थानत्रयी का भाष्य किया।तन मन से लीन होते हुए मानससरोवर और उसके पिछे जो कैलाश ,गुर्लामांधाता की पर्वत श्रृंखला थी, जहाँ कैलाशनाथ बसे हुए थे उस दिशा की ओर भावपुर्वक नमन करते हुए प्रार्थना की ”हे देवाधिदेव महादेव ,करूणासिंधु जगतपती इस भक्त का नमन स्वीकार करो। आपके चरणों में जीवन समर्पित करती हूँ ,आपकी भक्ती करने की शक्ती मुझे प्रदान करो। सारे विश्व पर आपकी कृपादृष्टी बनाए रखो प्रभू। “भावविभोर मन से विदाई लेते हुए हमारा कैलाश परिक्रमा का सफर चालू हो गया। मन की कोई भी स्थिती हो हर एक क्षण में उसमें बदलाव आता रहता हैं। केवल प्रयत्नसाध्य से ही एखाद स्थिती में मन का काल बढ सकता हैं। अगर ऐसा होता हैं तो वह क्षण पुरे जिंदगी का यादगार लम्हा बन जाता हैं। चाहे वह सुख का हो या दुःख का । ध्यान काल स्थिती में अगर मन स्थित होता हैं तो जन्म मरण की श्रृंखला का एक बुंद आपने लाँघ लिया यह समझ सकते हैं।
मानससरोवर के दर्शन पाकर मन की जो स्थिती हुई थी उसी स्तब्धता से अब वह बाहर आ गया। अपने अंदर बहिर्मन और अंर्तमन ऐसे एकही मन के दो पहलू होते हैं। बहिर्मन में हमेशा कोई ना कोई तरंग चालू रहते हैं। उसमें विचार आते हैं और ज़ाते हैं। लेकिन अंर्तमन शांति से सब देखता रहता हैं। सिर्फ अतितीव्र भावनाओं के तरंग उसमें प्रवेश कर सकते हैं। अगर वह अंदर प्रवेश कर गए तो जन्मों तक अपने कर्मों का परिणाम दिखाते हैं। दबी हुई भावनाओं के विकार बनते हैं और मनुष्य विकृती का शिकार बन जाता हैं। इस चक्र से अगर मुक्ती पानी हैं तो सबसे पहले विचार कम करो और काम ज्यादा करो। इससे अंर्तमन के गहराई में भावना कम पहुँचती हैं और मन साफ रहता हैं। परिणाम स्वरूप शुध्द, अच्छा जन्म पाने के हम हकदार बनते हैं। इसीलिए ध्यान करना जरूरी हैं। ध्यान करने से पाप कम होते हैं ऐसा कहते हैं लेकिन इसका अर्थ हैं अंर्तमन तक के विचार शांत होने लगे तो अपने आप जिंदगी में बदलाव आने लगता हैं। खुद ने निर्माण किया हुआ बोझ हलका होने लगता हैं और एक स्थिर वृत्ती, चित्त के अंदर समा ज़ाती हैं। फिर बार बार पाप पुण्य का हिसाब अपने आप को नही देना पड़ता हैं। इससे चित्तवृत्तियाँ उल्हासित रहने लगती हैं। पाप और पुण्य की परिभाषा हर एक व्यक्ति के प्रति अलग अलग मायने रखती हैं। इसिलिए आपके अंदर जो अच्छाई हैं वही पुण्य और बुराई हैं वह पाप।
(क्रमशः)