Mamta ki Pariksha - 65 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | ममता की परीक्षा - 65

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ममता की परीक्षा - 65



बड़ी देर तक मास्टर जी फुटपाथ पर बैठे रहे। मन में विचारों के बादल उमड़ते, घुमड़ते रहे। पहले तो उन्हें शंका हुई थी कुछ पल के लिए कि कहीं सेठ शोभालाल साधना के बेटे के जन्म की खुशियाँ तो नहीं मना रहे ? हो सकता है उन्हें कहीं से यह पता चल गया हो ? लेकिन जब उन्हें यह पता चला कि सेठ अम्बादास का नवासा है वह नवजात शिशु जिसका पिता होने का सम्मान गोपाल को प्राप्त हुआ है तो उनके पैरों तले से जमीन ही खिसक गई। अब तो किंतु परंतु की कोई गुंजाइश ही नहीं बची थी।

स्पष्ट था कि अंबादास गोपाल के श्वसुर थे अर्थात गोपाल ने अंबादास की बिटिया से शादी कर ली है। तो फिर साधना कौन है ? सोचकर ही मास्टर का जिस्म पसीने पसीने हो गया। गोपाल ने ऐसा क्यों किया होगा ? क्या साधना से कोई गलती हुई ? क्या उसे अपने होनेवाले बच्चे का भी ध्यान नहीं आया होगा ? नहीं ..वह ऐसा नहीं कर सकता, लेकिन ऐसा हुआ तो है। फिर क्या वजह रही होगी ? जरूर उसकी कोई मजबूरी रही होगी, लेकिन क्या ? और अपनी मजबूरी के चलते किसी की जिंदगी भी बरबाद की जा सकती है क्या ?' जैसे तमाम प्रश्न उनके जेहन में शोर मचा रहे थे और उनके पास किसी सवाल का जवाब नहीं था। उन्हें तो यह भी नहीं पता था कि फिलहाल गोपाल कहाँ था। अपने शरीर की पूरी शक्ति जुटाकर वह धीरे से उठे और फुटपाथ पर चलते हुए एक तरफ को बढ़ गए। आगे बढ़ते हुए उनके कदम किसी शराबी की तरह लड़खड़ा रहे थे लेकिन वो वृद्ध कृषकाय काया अपनी तीव्र इच्छाशक्ति के बल पर धीरे धीरे अपने गंतव्य की ओर बढ़ती रही।

कुछ मिनटों के बाद वह जमनादास के बंगले पर पहुँच गए। चौकीदार की जगह आज भी रामू ही बैठा हुआ था। मास्टर को देखते ही छोटा गेट खोलते हुए वह बाहर आ गया और उनका अभिवादन करते हुए पूछा,"जमना बाबा को बुलाऊँ ?"
मास्टर ने गहरी साँस लेते हुए उसे एक मिनट रुकने का ईशारा किया और खुद जाकर रामू जिस जगह बैठा था वहीं जाकर बैठ गया।

कुछ मिनट तक वह उसी बेंच पर बैठा गहरी गहरी साँसें लेता रहा। तब तक रामू ने भीतर जाकर जमनादास को खबर कर दिया था।

जमनादास कहीं जाने के लिए तैयार हो रहा था। रामू द्वारा मास्टर के आने की खबर सुनते ही वह बाहर आ गया और उनका अभिवादन करते हुए उनका हाथ पकड़कर लगभग जबरदस्ती घर के अंदर खींच ले गया। जमनादास जो कि वास्तविकता से अनजान न था नहीं चाहता था कि रामू या कोई और उनकी बात चीत सुने। घर में मास्टर को सोफे पर बिठाकर उसने रामू को बाहर जाने का इशारा किया और फिर मास्टर से मुखातिब होते हुए बोला, "और बताओ चाचाजी, कैसे आना हुआ ? सब ठीक तो है न ?"

जले भुने मास्टर के मुँह से अब मधुर आवाज निकलती भी कैसे ? झल्लाये हुए से बोले, "क्या खाक ठीक हैं हम बाप बेटी ? इतने महीने हो गए, जँवाई बाबू का अभी तक पता नहीं चला और आप हैं कि हालचाल पूछ रहे हैं ? क्या मैं ये जान सकता हूँ कि ये सेठ शोभालाल जी के बंगले पर क्या चल रहा है ?"

अब जमनादास के सामने सच को स्वीकार करने के अलावा कोई रास्ता शेष नहीं बचा था। मन को मजबूत बनाते हुए जमनादास ने कहना शुरू किया, "चाचाजी ! गोपाल के माँ बाप वाकई भले इंसान नहीं हैं। बेहद काइयां लोभी और मक्कार हैं जब कि गोपाल हद दर्जे का ईमानदार , सभ्य, सुशील और शालीन। मैं तो गोपाल से ही प्रभावित था और मेरी दोस्ती भी उससे ही थी। उसके सुजानपुर चले जाने के बाद मैं एक दिन उसके बंगले पर गया तो मुझे सब बात पता चली। उसकी माँ ने मेरे सामने उसके लिए वह ममता दिखाई कि मैं उसकी बातों में आ गया और पहुँच गया सुजानपुर। मेरे साथ शहर आने के बाद गोपाल की तबियत खराब हुई और डॉक्टर ने उसका इलाज सिर्फ अमेरिका में ही संभव होने की बात कही। पैसे बचाने के लिए गोपाल के पिताजी सेठ शोभालाल ने सेठ अंबादास से एक सौदा किया जिसके मुताबिक गोपाल को उनकी बेटी से शादी करनी होगी और सेठ अंबादास उसके इलाज का पूरा खर्च खुद उठाएंगे। इतनी बातें मेरे सामने हुई थीं। उसके बाद गोपाल अमेरिका चला गया इलाज के लिए। उसके बाद से मेरा इन लोगों से कोई संपर्क नहीं रहा। आज सचमुच मुझे कुछ नहीं मालूम कि अग्रवाल विला में क्या हो रहा है या वहाँ की क्या खबर है ?" इतना कहकर जमनादास खामोश हुआ ही था कि मास्टर के क्रोध का सैलाब फट पड़ा।

"वाह, बेटा वाह ! कहानी अच्छी बनाई है तुमने लेकिन तुम अपनी ही कहानी में फँस रहे हो! जब हम पिछली बार मिले थे तुमने बताया था गोपाल इलाज कराने के लिए विदेश जा रहा है। अब बता रहे हो कि तुम्हें कुछ नहीं मालूम, जबकि सारी बातें पहले से तय थीं। तुम यह भी बता रहे हो कि सेठ अंबादास और शोभालाल के बीच कोई सौदा हुआ था। जब इस सौदे की जानकारी तुम्हें हुई थी तो तुमने विरोध क्यों नहीं किया ? नहीं करते न सही , कम से कम हमें तो बता देते।.. लेकिन नहीं ! तुम क्यों बताने लगे ? तुम तो उनके ही साथी थे न ? अगर समय रहते तुम ने हमें बताया होता तो हम अपने आपको बेचकर भी अपनी बेटी के हक के लिये इन रईसजादों से भिड़ जाते। लेकिन अब क्या हो सकता है ? हम तो तुम्हारे भरोसे थे न ? तुम्हारे भरोसे उजड़ गई हमारी साधना की दुनिया ! हम गरीब बेबस इंसानों की मजबूरी का फायदा उठानेवालों, तुम चाहे जो कर लो, लेकिन इतना ध्यान रखना ईश्वर की लाठी में आवाज नहीं है। जब उसकी लाठी की चोट पड़ती है न तो कुछ समझ में नहीं आता। आज हम जिस तरह तड़प रहे हैं भगवान न करे तुम्हें अपनी बेटी के लिए कभी इसी तरह तड़पना पड़े ! सुना तुमने, ..हम नहीं चाहेंगे कि तुम्हें भी अपनी बेटी के लिए इस तरह तड़पना पड़े। इसके बावजूद हम तुम्हें कभी माफ नहीं करेंगे क्योंकि तुम हमारे सपनों के हत्यारे हो ! खूनी हो तुम हमारे सपनों के ! हत्यारे हो ....खूनी हो ...! ......हत्यारे हो ...खूनी हो .....!"

"नहीं ...! " जोर से चीखते हुए सेठ जमनादास ने दोनों हाथों से अपने कानों को बंद कर लिया और फिर कुछ देर बाद दोनों हाथों में अपना चेहरा छिपाकर फफक पड़े। रोते हुए वह बड़बड़ाये जा रहे थे, "मुझे माफ़ कर दो चाचाजी ! मैं आपका गुनहगार हूँ। माफ कर दो साधना, .....मुझे माफ़ कर दो ......!"
यही वह वक्त था जब हाथ में रजनी की फाइल थामे हुए डॉक्टर सुमन ने अस्पताल की लॉबी में प्रवेश किया।

क्रमशः