Kota - 24 in Hindi Fiction Stories by महेश रौतेला books and stories PDF | कोट - २४

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कोट - २४

कोट-२४

सुबह के तीन बजे नींद खुल गयी। ठंडे पानी से ही नहा लिया। सावन माह का सुहावना मौसम,मन में जो बैठा,बैठा ही रह गया। कार से जागेश्वर का किराया पूछा तो कार वाला बोला २००० रुपये। मैंने कहा १५०० दूँगा। वह बोला," चलिये।" कार में बैठा,कार चल पड़ी। सुरीले गाने बज रहे थे। पहाड़ के मोड़ मन को अनेक मोड़ देकर पर्तदार बना रहे थे।
बादल कुछ पहाड़ चढ़ रहे थे, कुछ शिखर से ऊपर थे। जागेश्वर से लगभग तीन किलोमीटर पहले ही पुलिस वाहनों को रोक दे रही थी। फिर परमिट वाले वाहनों की व्यवस्था थी। परमिट वाले वाहन भी मन्दिर से लगभग ३०० मीटर पहले तक ही जा रहे थे। मुख्य मन्दिर में दर्शन के लिये पंक्ति लगी थी। मन्दिरों का समूह यहाँ पर है। कत्यूरी और चंद राजाओं ने इन्हें बनाया है। पहले मान्यता थी कि इस शिव मन्दिर में जो माँगा जाता था वह मन्नत पूर्ण हो जाती थी। जब कुछ लोगों ने इस शक्ति का दुरुपयोग करना आरंभ किया तो इस शक्ति को विराम दे दिया गया। और भक्ति पर शक्ति निर्भर हो गयी। भट्ट जी की दुकान पर चाय पी। उपवास था अतः केवल चाय पी। उपवास का सिद्धांत हमारे शरीर को स्वस्थ रखने की प्रक्रिया है और मन की आस्था भी। उपवास के सिद्धांत पर नोबल पुरस्कार भी मिला है, कि कैसे उपवास शरीर को स्वस्थ बनाता है। भट्ट जी से बातचीत हुयी। उन्होंने बताया कि यहाँ के एक व्यक्ति का बड़ौदा में व्यवसाय है और वे ज्योतिष भी जानते हैं। अल्मोड़ा लौटते समय कार वाले ने एक जगह पर कार रोकी। वहाँ महिलाएं पानी भर रही थीं। प्राकृतिक जल स्रोत से। वह अपनी बोतल भर कर लाया और बोला यहाँ का पानी बहुत अच्छा और गुणकारी है। गंतव्य पर पहुँचने से पहले कार वाले ने एक महिला को कार में बैठाया और कहा आप नरेश की माँ हैं ना? ऊन्होने कहा "हाँ"। नरेश को मरे छ महिने हो गये हैं। शराब ले गयी उसे। शराब की दुकान में ही काम करता था। दो छोटे-छोटे बच्चे हैं। याद कर जी भर आता है।
धीरे-धीरे अगस्त का महिना आ गया। और कलम यों चली-
"उन्होंने अपना नाम स्वयं चुना
हमें नाम किसी और ने दिया,
और हमने मान लिया।

उन्होंने अपनी भाषा स्वयं चुनी
हमें भाषा किसी और ने दी,
और हमने मान लिया।

उन्होंने अपना मन स्वयं बनाया
हमारा मन किसी और ने तपाया
और हमने मान लिया।

उन्होंने अपना इतिहास स्वयं बनाया
हमें अपना इतिहास स्वयं गवाया,
और हमने मान लिया।

उन्होंने हमें लूटा-खसोटा
हम लूटते गये,
और हमने मान लिया।

उन्होंने स्वयं को बदला
हमें भी सिखाया,
और हमने मान लिया।

वे टूटे नहीं
हम टूटते गये,
और हमने मान लिया।

उन्होंने स्वयं को चुना
हमने उन्हें चुना,
और हमने मान लिया।

वे चलते गये
हमें धकेलते गये,
और हमने मान लिया।

वे जब अमानवीय हुये
हमें कुचलते गये,
और हमने मान लिया।

हमने तिरंगा स्वयं उठाया
नाम और भाषा उनका पाया,
और हमने मान लिया।

उन्होंने हमारी जड़ काटी
हम सूखते गये,
और हमने मान लिया।

उन्होंने स्वयं को पहिचाना था
हमें अनजान कहा था,
और हमने मान लिया।

उनकी गिद्ध दृष्टि हम पर पड़ी
वे हमें नोचते रहे,
और हमने मान लिया।

सत्य हमारे पास था
वे झूठ गढ़ते गये,
और हमने मान लिया।

फूल सी हमारी हँसी को
वे क्रोध में जलाते रहे,
और हमने मान लिया।

स्वतंत्रता पूरी की पूरी हमारी थी
वे हमें नकारते रहे
और हमने मान लिया।"

* महेश रौतेला