ath gunge gaon ki katha 22 in Hindi Fiction Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | अथ गूँगे गॉंव की कथा - 22

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अथ गूँगे गॉंव की कथा - 22

उपन्यास-  

रामगोपाल भावुक

 

 

                          अथ गूँगे गॉंव की कथा  22 

               अ0भा0 समर साहित्य पुरस्कार 2005 प्राप्त कृति

 

                                    

22

      गाँव में चार लोग इकट्ठे हुये कि पहले वे अपने-अपने दुखना रोयेंगे।उसके बाद गाँव की समस्याओं पर बात करने लगेंगे। उस दिन भी दिन अस्त होने को था, गाँव के लोग हनुमान जी के मन्दिर पर हर रोज की तरह अपने पशुओं को लेने इकट्ठे होने लगे। लोगों में पशुओं के चारे की समस्या को लेकर बात चल पड़ी। मौजी भी वहाँ आ गया। उसने लोगों में चल रही चर्चा सुन ली थी। वह सोचते हुये बोला-‘भज्जा,मैं कुछ कहूँ तो लगेगा, मौजी अपनी होशियारी बताने लगा है। इसीलिये चुप रह जाता हूँ।’

     रामदास ने बात उकसाना चाही, बोला-‘मौजी, होशियारी की बात कहे, ते कहत रहे लेकिन बात कहने में चूकनों नहीं चहिये।’

    मौजी बोला-‘अरे! भज्जा समय खराब है। व बेचारो कुन्दन मास्टर ,हम सब के भले की बात कह देतो सो सब बाके पीछें पड़ गये। बाकी बदली कराके माने हैं।’

   रमेश तिवारी बात का आनन्द लेना चाहता था, इसलिये बोला-‘जे बातें छोड़, मौजी कक्का तें तो अपने मन की बात कह दे।’

यह सुनकर बात गुनते हुये मौजी बोला-‘मन की का है, व आदमी ही कछू और है। अब अपने ही स्कूल के हाल-चाल देख लियो। बाके झें से जातई सब मौज करन लगे। अरे! हमाओ संग देवे में बाय का फायदा भओ?’

 रमेश तिवारी ने जवाब दिया-‘अरे! बाय साहूकारन से दुश्मनी भजानों हती, काये कै बिन्ने बाकी बहिन के ब्याह कों पइसा देवे की मना कर दई, तई जे बातें हैं।’

मौजी के हृदय में बवन्डर सा उठा-‘ तुम बातिन के चाहे जो अर्थ लगा लेऊ। व गरीब आदमिन की जितैक सोचतो इतैक कोऊ नहीं सोचत। जे दिना राहत के काम न चलतये तो सबै दाल-आटे को भाव पतो चल जातो। अरे! चौपिन के काजे चारे की समस्या सब जने चाहें तो एक दिना में हल हो सकते।’ सभी के मुँह से एक साथ निकला-‘ कैसे?’

मौजी ने सोचते हुये उत्तर दिया-‘अरे! गाँव को भुस शहर जाके बिकन लगो। जाय रोको। आदमी नाज तो कैसेंउँ ले आयगो, भुस कहाँ से आयगो?’

खुदाबक्स ने आते हुये बात सुन ली थी, बोला-‘ पहलें साहूकारों के सामने बात रखी जाये। पीछें और बातें सोचीं जायें।’

बातें चल रही थीं कि उसी समय पशु पास आ गये। सभी बात को वहीं कै वहीं छोड़कर अपने-अपने पशुओं के पीछे हो लिये।

    इसी रोने-धोने में दीपावली निकल गई। सर्दी का मौसम भी आ गया। रात ठण्ड़ बहुत थी। शीत लहर चल पड़ी है। इस वर्ष पानी न वर्षा था तो ठन्ड़ भी अन्य साल की अपेक्षा अधिक ही पड़ रही है। सूर्य देवता भी इस मौसम में कितनी देर से निकलते हैं?

मौजी के परिवार की हालत बहुत खराब थी। गाँव के आसपास कोसों दूर तक जंगल कट चुके थे। रोटी बनाने के लिये ईंधन की जुगड़ मुश्किल से हो पाती थी। सर्दी के मौसम में तापने के लिये ईंधन के दर्शन ही नहीं हो रहे थे। मौजी के परिवार का दिन तो निकल जाता था, किन्तु रात के सोच में दिन में भी कपकपी लगती रहती थी। एक कथरी में भूखे पेट रात काटना कठिन हो जाता था। शुरू की रात तो सब पास-पास सोकर एक दूसरे की गरमाहट से काट लेते थे किन्तु सबेरे की रात तो राम-राम कह कर निकलती थी। घर के सभी सदस्यों की बत्तीसी बजने लगती थी। उस समय मौजी उठता और दिन भर में ढूढ़े गये कचरे एवं कन्डियों से आग सुलगाता। घर के सभी लोग इसी प्रतीक्षा में रहते, वे जलती आग देखकर उसके पास झिमिट आते।

अगिहाने की आग ने साथ छोड़ दिया। पौ फटने को हो गई। घर के सभी लोग सूरज निकलने की प्रतीक्षा में दरवाजे पर बने चबूतरे पर निकल आये , जैसे नवागत मेहमान के स्वागत में निकलते हैं। सूरज की एकाध किरण दिखी कि उनके हृदय की कली सी खिल गई। उससे गर्मी लेने सूरज की आँख में आँख डालकर उसकी तरफ एकटक देखने लगे। सूरज की गर्मी आँखों के तन्तुओं से अन्दर तक पहुचने लगी। इस आलिंगन से रात की बेचैनी धीरे-धीरे तिरोहित होने लगी। घर के लोग ठन्ड को कोसने लगे। सम्पतिया कह रही थी-‘ठण्ड में तो गरीब आदमी को मरिवो है। जासे गरमी के दिन अच्छे, कथई- गूदरी की जरूरत तो नहीं पत्त। मै कल्ल ठाकुर साब के झा गई हती, सो बिन्ने सफाँ फटी-फटाई कथरी पकरा दई। बामें मेरी नेकऊ ठण्ड नहीं बची। सब रात कपिबे करी।’ घर के अन्य लोग इस समय भी अपने-अपने फटे-फटाये पंचों को इस तरह छाती से चिपकाये हुये थे जैसे माँ अपने शिशुओं को बदन से चिपकाये रखती है। लड्डू ठण्ड छूटते ही काम का वक्त हो गया। फिर भी वे अपने को और अधिक गरमाने के चक्कर में अपनी जगह से नहीं हट रहे थे। मौजी उन्हें काम पर जाने के लिये रोज की तरह जोर-जोर से गलियाँ देते हुये डाँटने लगा। वे उसकी बात की आनाकानी करने लगे तो वह और तेज आवाज में बड़बड़ाने लगा।

हनुमानजी के मन्दिर पर धूप का आनन्द लेने खड़े लोगों को मौजी के यहाँ लड़ने की आवाजें सुन पड़ी। एक बोला-‘मौजी के झाँ तो लड़ाई चरचरा रही है।’

दूसरा मजाक उडाते हुये बोला-‘वे सब रात की ठन्ड भगा रहे हैं।’

पहले ने उसे समझाया-‘यह तो उनकी आदत में सुमार हो गया है। रोज ऐसें हीं लड़िबै कत्तयें।’

दूसरा भी उसे उल्टे ही समझाने लगा-‘ लड़ते कहाँ हैं, वे बातें ही इसी तरह करते है। उन्हें धीरे-धीरे बातें करने की आदत ही नहीं है।’

पहले ने उसकी बात की पुष्टि की-‘उनके अन्दर छिपाने को कुछ है ही नहीं। जो है सब कुछ खुले में है।’

दूसरे ने और स्पष्ट किया-‘हमने उसके पास कुछ बचने ही नहीं दिया। उसके पास जो था उसे आज भी छीन रहे हैं।’

ऐसी बातें करते हुये दोनों मौजी के दरवाजे पर आ गये। मौजी अपने घर के सभी लोगों को कोस रहा था-‘बैठे काये हो? काम पै जाओ। सुनतयें ताल पै पार डारिवे को काम चार-छह दिना को ही रह गओ है। सरकार हू पंच-सरपंच पै विश्वास कत्ते। न होय तो मैं आज ही बी0डि0ओ0 के पास जातों, तासे काम चलिबै करैगो। नहीं मोड़ी-मोडा भूखिन मर जाँगे।’

मुल्ला झट से बोला-‘काम बन्द करवाबे में सरपंच को हाथ लग रहो है।’

मौजी ने उसकी बात का समर्थन किया-‘ लग ही रओ है। सब गाँवन के सरपंच एक से ही होतयें। नेकाद लांच बिन्हें सोऊ मिले। नहीं वे भाग-दौड़ काये कों कर रहे हैं।’

मुल्ला ने अपनी राय दी-‘दादा, ऐसे गाँव में रहबे से का फायदा?चल कहूँ अन्त मजदूरी करंगे।’

मौजी ने लड़के को समझाया-‘रे! चील्लन के मारें, कथूला नहीं छोड़ो जात। अरे! न होयगी तो दुबारा भूख हड़ताल कर दंगों।’

दोनों राहगीर उनकी बातें सुनते हुये, मौजी के आत्मविश्वास को परखते हुये नहर की तरफ निकल गये।

दूसरे दिन ही मौजी परसराम जाटव एवं रामहंसा काछी को लेकर बी0डि0ओ0 से मिलने सुबह ही रवाना होगया। दफ्तर में उनसे मिला और अपनी समस्या उन्हें सुनाईं। वे बोले -‘आपकी पंचायत के पंच और सरपंच कह रहे हैं कि अब काम की जरूरत ही नहीं है। लोग काम पर आने की मना कर रहे हैं।’

 रामहंसा क्रोध उड़ेलते हुये बोला-‘ वे तो जों चाहतये कै हम भूखिन मर जायें। ज बात न होती तो हम तुम्हाये पास झेंनों काये कों भजत चले आये।’

 बी0डि0ओ0 आमरण अनशन के समय से ही मौजी को अच्छी तरह जान गया था। यही सोचकर बोला-‘भई मौजी, तुम चिन्ता मत करो। जब तक तुम नहीं कहोगे, काम बन्द नहीं होगा।’

  मौजी बोला-‘मैंने तो अपने साथिन से कह दई हती कै अपने बी0डि0ओ0 साब बड़े भले आदमी हैं। जब नो काम पै भाँ एकऊ आदमी आत रहो तोनों काम बन्द नहीं होनों चहिये। महाराज, मैंने तो बिन्से कह दई है कै काम बन्द भओ कै मैंने अनशन करी। मोय तो मन्नो ही है।’

इसी समय सरपंच भी वहाँ आ पहुँचा। उन्हें देखकर बी0डि0ओ0 बोला-‘सरपंच जी आपके पंच ये क्या कह कर गये थे ?....और मैं यह क्या सुन रहा हूँ? मैं तो आपकी ये सारी बातें कलेक्टर साहब को लिखें देता हूँ।’

 

सरपंच. झट से बोला-‘ सर मैं यही तो कहने के लिये आपके पास आया हूँ कि काम तब तक बन्द नहीं करें, जब तक एकऊ आदमी काम पै आत रहे। अरे! मौजी तें ज बात मोसे भेंईं कह देतो, मैं का तेरी बात नहीं मान्तो।’अब मौजी को कोई उत्तर देने की जरूरत नहीं थी। मौजी बी0डि0ओ0 साहब से सरपंच की गपसप होते देखकर घर चला आया था।

गाँव भर में यह खबर तेजी से फैल गई कि मौजी जान की बाजी लगाकर नेतागिरी कर रहा है। मौजी सोच रहा था-जीवन की रक्षा के लिये की जाने वाली नेतागिरी लोगों की सच्ची सेवा है।