ath gunge gaon ki katha 19 in Hindi Fiction Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | अथ गूँगे गॉंव की कथा - 19

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अथ गूँगे गॉंव की कथा - 19

उपन्यास-  

रामगोपाल भावुक

 

 

                         अथ गूँगे गॉंव की कथा 19

               अ0भा0 समर साहित्य पुरस्कार 2005 प्राप्त कृति

 

                                     

19

      अकाल का स्थिति में जितनी चिन्ता गरीब आदमी को अपने पेट पालने की रहती है उतनी ही तृष्णा घनपतियों को अपनी तिजोरी भरने की बढ़ जाती है। गाँव की स्थिति को देखकर ठाकुर लालसिंह रातों-रात अनाज की गाडियाँ भरवाकर बेचने के लिये शहर लिवा गये।

     सुबह होते ही यह खबर गाँव भर में फैल गई। इससे लोगों की भूख और तीव्र हो गई। उन्हें लगने लगा-यहाँ के सेठ-साहूकार हमें भूख से मारना चाहते हैं। सभी समस्या का निदान खोज लेना चाहते थे।

    मौजी ने भी यह बात सुन ली थी। उसे ठाकुर लालसिंह पर अगाध विश्वास था कि चाहे जो हो वे उसे पीठ नहीं देंगे। उसके आदमी उनके यहाँ नौकरी करते आये हैं और करते रहेंगे। इतना सोचने पर भी उसे शंका हो गई कि जब वे अपना सारा अनाज शहर ले गये फिर मुझे अनाज कहाँ से देंगे? यह सोचकर उसका मन न माना तो उसने अपना डोरिया उठाया और जा पहुँचा ठाकुर लालसिंह के दरवाजं पर अनाज माँगने। जब वह उनके यहाँ पहुँचा ठाकुर लालासिंह बही-खाते देखने में व्यस्त थे। गाँव के लोगों के खातों को दत्तचित्त इधर से उधर पलट रहे थे। मौजी की राम-राम का जबाव उन्होंने मात्र आँख से उधर देख कर दे दिया। मौजी बिना उत्तर पाये उनके चबूतरे से सटकर बैठ गया। उसे बैठे-बैठे आधा घन्टा निकल गया। उसे लगने लगा- यह अनाज न देने का इशारा तो हो ही गया है। बैठे-बैठे उसे चूल्हे पर रखी हाण्डी खाली दिखती रही। भूख से बिलबिलाते बच्चे दिखते रहे। ठाकुर लालसिंह उसके डोरिया को देखकर समझ गये, वह क्यों आया है। मन ही मन उन्होंने उसे हजारों गालियाँ दीं। ऊपरे मन से पूछना पड़ा-‘काये मौजी कैसे आओ है?’

      मौजी इसी प्रश्न की प्रती़क्षा में सुकड़ा बैठा था। सुनते ही बोला-‘दद्दा घर में नेकऊ नाज नाने। दो दिना से मोड़ी-मोड़ा भूखिन मर रहे हैं। मेन्त-मजूरी बन्द है।’

     उसकी बात पर वे उसे डाँटते हुये बोले-‘रे! काल की साल है, जौं मैं तोय कहाँ तक खवाँगो। अब मेरें हू कछू काम नाने, तासे तें पटा देगो। मोय पइसा की जरूरत हती सो मैंने सारा अनाज गाड़ी अडडा भेज के बिचवा दओ। अरे! दो-चार दिना पहलें कह देतो तो सोचनो पत्तो। अब तो मैंने पूरो अनाज बिचवा दओ। तें झेंनो आओ है तो दस-बीस किलो नाज लयेंजा। मैं तोय आज खाली हाथ नहीं लौटाय चाहत। आगें से भरोसो मत राखिये। ज गाँव में तो का हमई हैं नाज बारे। ते देखो ते ,हम पै ही नाज माँगिवे चलो आ रहो है।’

     मौजी उनकी हर बात को थूक के घूँट के साथ गले से नीचे उतारता रहा। उसे लगता रहा-उसको इतने कोड़े मारे जा रहे हैं कि वह कशमशा कर रह गया। आह निकली-राम जाने, जे दिना कैसें पार लगायगो! उसके मुँह से शब्द निकले-और काऊ की मैं का जानों। मेरे तो आपही भगवान हो।’

   ठाकुर लालसिंह क्रोध व्यक्त करते हुये बोले-‘देख मौजी, तें मेरो पीछो छोड़। अभै तें काऊ को सहारा पकड़ लेगो तो तेरो काम चल जायगो। तेरे आदमी अकेले मेरे झाँ ही तो नहीं लगे। औरू काऊ के तो लगे हैं। बिनसे सोऊ अनाज माँग कें देख ले। मैं तो तेरी जितैक सोचतों तितैक कोऊ नहीं सोच सकत।’

    यह उपदेश सुनते हुये मौजी ने अपना चींथ-चिथारा फैंटा उनके चरणों में रख दिया। उन्होंने उसे लात मार कर दूर फेंक दिया। मौजी ने उसे उठाया। छाती से उसे इस तरह चिपका लिया जैसे एक माँ अपने नवजात शिशु को चिपका लेती है। उसे अपने फेंटा का गिरता सम्मान खटक रहा था। ठाकुर लालसिंह के चहरे से उपेक्षा का भाव खटक रहा था।बोले-‘ अरे मन खाड़ नाज की बात होती तेऊ चल जाती। तेरे तो हर महिना चार-पाचँ मन नाज लगत होयगो। तेरो एक-एक आदमी मन को है।’

    मौजी ने उत्तर दिया-‘महाराज, जिनके पेट नाने, नगर कोट हैं। पेट होतये बिनको सोच न हतो।’

     ठाकुर लालसिंह अपनी बात पर आते हुये बोले-‘देख मौजी, तेरो पिछलो हिसाब-किताब साफ नाने। मन खाँड़ नाज चाहे तो ले जइयो। बाद की आशा मत राखिये।’

     मौजी को लगा-इतने से क्या होगा? आज से नहीं तो कल से भूखा रहना ही पड़ेगा। इससे एक-दो दिन कट भी गये तो इससे क्या काल कट जायेगा? न हो तो ये रहने ही दें। मना करने की बात जुवान पर आ गई, फिर सोचा जितना समय कटता है काट लेना चाहिये। इनसे मना कर दी तो आगे का रास्ता मैं स्वयं ही क्यों बन्द करूँ? ये तो खुद ही हमारा रास्ता बन्द कर रहे हैं। यह सोचकर बोला-‘दद्दा, मुल्ला कों बुलाय लेतों। ऐसे मौके पै काम चला दओ, ज अहसान में जिन्दगीभर नहीं भूलंगो।’

     यह कह कर वह कसमसाते हुये उठा। मन ही मन सोचते हुये गैल में आ गया। वह सूने में बड़बड़या-‘भगवान पइसा देतो तो हमाई जे गतें न होतीं। अपँईं इज्जत चरनन में धर दई, जे तोऊ न पसीजे। जो नहीं सोची कै ज मन भर नाज कै दिना के काजें होयगो।

     रास्ते में उसे कुन्दन टकरा गया। उसने मौजी को बड़बडाते हुये देख लिया। बोला-‘मौजी कक्का ,जाने का बड़बडात चले आ रहे हो?’

      बात सुनकर मौजी जैसे दुःखान्त सपने से जाग गया हो , बोला-‘नाज के काजें मूड़ पटकत फिर रहों हों। ठाकुर साहब से तमाम थराईं करीं, तब कहूँ बिन्ने मन भर नाज रानों है।’

     कुन्दन को लगा-इसकी मदद जरूर करना चाहिये। मैं अपने पिताजी से कह कर देख लेता हूँ, किन्तु वे इसे छटाँक भर अनाज नहीं देंगे। कहेंगे लड़की का ब्याह करना है। यह सोचकर बोला-‘कक्का, जो मिल रहा है उसे ही ले आते। आप तो डोरिया लिये खाली हाथ चले आ रहे हो!’

    मौजी बोला-‘मो पै का मनभर नाज उठतो। मुल्ला को भेजकर मँगायें लेतों, कह दी है तो दे ही देंगे।’

    कुन्दन ने उसे समझया-‘अपना क्षेत्र सूखाग्रस्त घोषित हो गओ है। जल्दी ही सारकार काम खोलेगी। काम के बदले अनाज मिलवे करैगो। सो काम चल्त रहेगो।’

    मौजी को कुन्दन की इन बातों पर विश्वास न हंआ तो बोला-‘सरकारी बात को का भरोसो? फिर सरकार कछू करन चाहेगी तो झाँ के बड़े-बड़े न करन दंगे। अरे! फिर जिनकी सेबा-टहल को करेगो?’

     कुन्दन ने मौजी का मनोबल बढ़ाया-‘इनसे लड़ाई तो गरीबन ने मिलकें लड़नों ही पड़ेगी। दस-पाँच ऐसे आदमी इकट्ठे करले, जो भूखिन मर रहे हों। वे ज बात को का हल निकारतयें, बैठक में पतो चल जायगी। मौजी कक्का, तें मेरे कहबे से एक बेर ज प्रयास करकें तो देख।’

     उस वक्त मौजी कुन्दन को कुछ भी कहे बिना ही अपने घर चला आया था, किन्तु वह रास्ते में ही विचार करने लगा- कुन्दन बात गलत तो नहीं लग रही। ऐसे दस-पाँच आदमी इकट्ठे करिबे में मेरो का जा रहो है। कहतयें संगठन में बड़ी ताकत होते। कुन्दन को तो मोय पूरो भरोसो है। मोसे ज बात जाने कछू सोच कें ही कही होयगी। जे बातें सोच कें ब गाँव के ऐसे लोगों से मिला जो उसकी तरह ही तिल-तिल कर मर रहे थे।

      घुप अन्धेरा होगया। लोग डरते-डरते हनुमान जी के मन्दिर पर इकट्ठे होने लगे। एक बोला-‘ये बिना बात की पंचायत क्यों बुलाई है?’