उपन्यास-
रामगोपाल भावुक
अथ गूँगे गॉंव की कथा 14
अ0भा0 समर साहित्य पुरस्कार 2005 प्राप्त कृति
14
कुछ की बातों से आभास हो रहा था कि वे नहीं चाहते कि उनकी लड़ाई शान्त हो। जिससे वे एक जुट होकर न रह सकें। दोनों न्यारे होंगे फिर कर्ज माँगने वाले दबाव डालकर अपना कर्ज माँगेंगे। परिणाम स्वरूप उनके खेत बिचेंगे। लोग लूट का माल समझकर उसे मन माने भाव खरीदेंगे। ब्याज-त्याज में सब हड़प कर जायेंगे। बेचारा कुड़ेरा इस स्थिति में दर-दर भटकेगा।
कुढ़ेरा ऐसी ही चिन्ता में डूबा खेरापति के चबूतरे पर आ बैठा-‘बुढ़ापा कब दूभर होता है, जब अभाव के आँगन में कोई छायादार वृक्ष न हो। भूख कही मरते वक्त आदमी की चिन्ताओं को अपने में समाविष्ट न करले। ऐसी ही चिन्ताओं से मुक्ति पाने आदमी जीवनभर संघर्ष करता रहता है।
‘कहाँ खोये हैं श्रीमान?’आवाज बाला प्रसाद शुक्ला की थी। यह सुनकर कुन्दन ने मुस्कराकर उनका अभिवादन करते हुये कहा-‘ऐसे ही उपन्यास के एक अंश में उलझ गया हूँ।’
उन्होंने पुनः प्रश्न किया-‘किस विषय पर आपकी लेखनी चल रही है?’
कुन्दन बोला-‘आदमी के गूंगेपन को लेकर।’
बाला प्रसाद शुक्ल ने उत्सुकता बस पूछा-‘क्या उसमें सभी पात्र गूंगे हैं?’
कुन्दन ने बात टालना चाही-‘गूंगे तो नहीं है।’
बाला प्रसाद शुक्ल ने झट से पूछा-‘फिर कैसे?’
कुन्दन ने स्पष्ट किया-‘आदमी अपनी पीड़ा को बिना विरोध प्रगट किये सहन करता रहे,आदमी का गूँगापन है।’
बाला प्रसाद शुक्ल ने इसका हल प्रस्तुत करने का प्रयास किया-‘शिक्षा आदमी को गूँगेपन से मुक्ति दिलाती है।’
कुन्दन ने उसकी सलाह को स्वीकारते हुये कहा-‘आपका कथन सत्य है। शोषित वर्ग को शिक्षित करने की आवश्यकता है। तभी सार्थक बदलाव सम्भव है।’
बाला प्रसाद शुक्ल ने कुन्दन के विद्यालय को लेकर शंका व्यक्त की-‘मित्र आप, गाँव को सुधारने का ठेका न लें ,आप गाँव की राजनीति में खुलकर भाग ले रहे हैं। पहले अपने विद्यालय को सुधारें। आपके यहाँ जो अव्यवस्थाएँ हैं, पहले उन पर ध्यान दें।’
बात सुनकर कुन्दन सोचते हुये बोला-‘हमारी उधर भी दृष्टि है। सभी शिक्षक समय पर विद्यालय आते हैं। हम छात्रों की पढ़ाई पर भी ध्यान दे रहे हैं। कभी-कभी छोटी-छोटी बातें व्यवहार में विस्मृत भी करना पड़ती हैं, यह बात हमारी ठीक नहीं है।’
इसी समय विद्यालय की ओर से प्रधान अध्यापक सुरेश सक्सैना एवं शिक्षक वाभले आते दिखे। वाभले ने कुन्दन और शुक्ल जी को बातें करते देखा तो पूछ लिया-‘भई, किस बात को लेकर बहस चल रही है?’
बाला प्रसाद शुक्ल उपदेशात्मक मूढ़ में आते हुये बोले-‘क्या एक शिक्षक को गाँव की राजनीति में भाग लेना चाहिये? यही।’
वे समझ गये कि इनमें किस विषय को लेकर चर्चा चल रही है। वे कुन्दन से इस विषय पर पहले ही चर्चा कर चुके थे। कुन्दन अपनी धुन में है। लेकिन उन्हें अपने साथी को इस समय परामर्श देना उचित लगा। सुरेश सक्सैना बोले-‘हम इस सम्बन्ध में इनसे कह चुके हैं कि इन्हें गाँव की राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिये।’
वाभले ने उनकी बात काटी-‘मेरा ख्याल है, बच्चों के पठ़न-पाठन से जो समय बचे, हम शिक्षकों को गाँव के लोगों की सेवा में लगा देना चाहिये। शिक्षक भी उनका एक अच्छा परामर्शदाता हो सकता है। यह भी आदर्श शिक्षक का एक कर्तव्य है। लोग इसे राजनीति से जोड़ेंगे, इसमें शिक्षक का क्या दोष?’
वाभले की बात कुन्दन को सही लगी, बोला-‘आप ठीक सोचते हैं। मेरा भी यही दृष्टिकोण है। लोगों को पीड़ा से उवारना, उन्हें सही पथ दिखाना सक्सैना जी को मानव धर्म नहीं लगता!’
बाला प्रसाद शुक्ल बोले-‘आपकी बात उचित लगती है किन्तु लोग अपनी तरह सोचते हैं। किस-किस का मुँह पकड़ोगे! इसलिये सोच समझकर चलना चाहिये। आप जिस तरह सोचते हैं, उसी तरह सब लोग नहीं सोचते। भैया दूसरे का हित करैं किन्तु अपने को बचाकर। यही तो नीति है।’
कुन्दन ने अपनी बात रखी-‘यह ठीक है, कर्मचारियों को चुनाव की राजनीति से दूर रहना चाहिये। गाँव की राजनीति में दखल देना देश के हित में नहीं है। किन्तु गाँव की अपढ़ जनता को उचित परामर्श अनिवार्य है। गाँव की भोली भाली जनता को जहाँ आवश्यक लगे कानून का ज्ञान कराना भी शिक्षक का ही कार्य होना चाहिये। इस बात को मैं अपना दायित्व मान कर चलता हूँ।’
सुरेश चन्द्र सक्सैना ने उसके तर्क को स्वीकारते हुये कहा-‘हम आपकी बात स्वीकार करते हैं। आप तो इस गाँव के प्रतिष्ठित लोग हैं। आपकी यहाँ जमीन -जायदाद भी है। हम लोग तो अपने बाल-बच्चे पालने के लिये आपके इस गाँव में नौकरी कर रहे हैं। हम क्यों फटे में अपना पैर डालें। इसलिये हम यहाँ किसी के बुरे-भले में नहीं पड़ते।’
वाभले ने बात को और बढ़ाते हुये कहा-‘जिसके स्वार्थ पर चोट पड़ती है ,वही आपकी उचित बात को भी राजनीति से जोड़ने लगता है।’
कुन्दन बोला-‘वे जोड़ें लेकिन आप तो ठीक तरह से सोच रहे हैं। मैं जानता हूँ, हम कर्तव्य पालन में चाहे जितना सही चलें, लोग तो अपने विवेक से ही हमारा मूल्याँकन करेंगे ।’
बाला प्रसाद शुक्ल ने उत्तर देना उचित समझा, बोले-‘ठीक है कुन्दन जी, आप जो कर रहे है वह ठीक ही कर रहे हैं। भोली-भाली जनता के दुःख-दर्द में राजनीति के डर से मदद करना न छोड़ दें।’
वाभले ने गाँव में हो रही नई हलचल का बखान किया-‘आपके गाँव में जो धर्मान्तरण होने वाला है, यह ठीक बात नहीं है। इन दिनों इस गाँव में ईसाई मत का प्रचार करने पादरी लोग चक्कर लगा रहे हैं। कुछ मुसलमान मुल्ला भी यहाँ चक्कर काट चुके हैं।अरे! गाँव में होली के अवसर पर जो कुछ घटा है,सब उसी का परिणाम है।लोग अपना धर्म बदले ,किन्तु बिना सोचे समझे नहीं। इस तरह की घटनायें ठीक नहीं हैं। इस समय लोगों को घर-घर जाकर समझाने की जरूरत है। मैं और कुन्दन दोनों ही इस काम में लगे हुये हैं।’
कुन्दन ने बात स्पष्ट करना चाही-‘हम धर्म परिवर्तन करने की मना नहीं कर रहे हैं। हम तो लोगों को अपने धर्म का बोध कराने का प्रयास कर रहे हैं कि धर्म आदमी की रगों से जुड़ा है। उसमें कुछ कमियाँ दिखती हैं तो उन्हें सुधारने का प्रयास किया जाये। यदि हम उन्हें सुधारने में असर्मथ रहें तो धर्म परिवर्तन की बात सोची जा सकती है।’
बात वाभले ने स्पष्ट की-‘शुक्ल जी अभी तक आपके गाँव में धर्मान्तरण होगया होता, हमें लग रहा है हमारी बातें लोगों की समझ में आ रही हैं।’
बाला प्रसाद शुक्ल ने जानकारी लेना चाही-‘ आप लोग कैसे उन्हें समझा पा रहे हैं।?’
वाभले ने उत्तर दिया-‘संसार का हर धर्म श्रेष्ठ है। समय से हर धर्म में कुछ विकार आजाते हैं। आज घर्म बदलना जरूरी नहीं है। बल्कि जरूरत है अपने धर्म में आये विकारों को दूर करने केी। गाँन्धी जी ने क्या किया? हिन्दू धर्म में आये विकारों को दूर करने के लिये लोगों को जागृत करने का प्रयास भी किया। आज बदलाव दिखने लगा है। धीरे-धीरे पूर्व की तरह यह फिर से उसी रूप में हम सब के सामने आ सकेगा। हमारे इस धर्म का कोई संचालक नहीं रहा। यह तो सनातन धर्म है। इसमें कट्टरता कहीं नहीं है। इसी कारण बदलाव की प्रक्रिया इसमें सहज है।’
बात को कुन्दन ने और अधिक स्पष्ट किया-‘विश्व के अधिकांश धर्म संचालकों द्वारा संचालित है। इसी कारण उनमें कट्टरता अधिक है। हमारे यहाँ घर के प्रत्येक सदस्य के इष्ट अलग-अलग हो सकते हैं। उनके जाप के मंत्र भी प्रथक-प्रथक हो सकते हैं फिर भी घर के लोग एक जगह, एक साथ बैठकर पूजा कर सकते हैं। यह एक स्व विकसित धर्म है। इसमें कहीं कोई मतभेद नहीं। अन्य धर्मों में ऐसा नहीं है।,
इस तरह एक मानव धर्म की आवश्यकता है जो सर्वव्यापी हो। बात सुनकर सभी सोच के सागर में गोते लगाने लगे।
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