ath gunge gaon ki katha 7 in Hindi Fiction Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | अथगूँगे गॉंव की कथा - 7

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अथगूँगे गॉंव की कथा - 7

उपन्यास-  

रामगोपाल भावुक

 

 

 

                         अथ गूँगे गॉंव की कथा 7

               अ0भा0 समर साहित्य पुरस्कार 2005 प्राप्त कृति

 

 

7

अब तक सभी बैठ चुके थे। मौजी भी बैठ गया। वह जाजम पर नहीं बल्कि उसके किनारे पर अछूतों की तरह बैठा था। उसे अपने लोगों और सवणों में कोई अन्तर नहीं दिख रहा था।श्रद्धेय भन्तेजी तख्त पर जो आसन बिछी थी उस पर विराजमान थे। उनके पीछे लोढ़ लगा था जिसके सहारे वे टिके आराम से बैठे थे।

      सभा की कार्यवाही शुरू हो गई। अतिथि को मालायें पहनाने का कार्यक्रम चला। मौजी से भी माला पहनवाई गई। मन ही मन मौजी प्रसन्न हो गया। उसके बाद डॉ0 अविनाशी ने बोलना  प्रारम्भ किया- ‘मित्रो, आज आपकी बस्ती में श्रद्धेय भन्ते जी पधारे हैं। उन्होंने आप लोगों की व्यथायें सुन ली हैं। यहाँ के सवर्ण आज भी आप लोगों के साथ भेद-भाव रखते हैं। आप लोग इस घृण-द्वेष से छुटकारा कैसे पायें? यह आपकी समझ में नहीं आता। जिस धर्म में आपको घृणा मिलती हो, फिर भी आप उस धर्म से चिपके हुए हो। मैं तो इतना जानता हूँ , आप लोगों के लिये उस धर्म में कोई स्थान नहीं है। यदि वहाँ आपके लिये कोई स्थान है तो वह है घृणा सहकर सेवा करते रहने का।’

      ‘होली हिन्दुओं का भेदभाव मिटाने वाला त्योहार है। यहाँ तो कुछ और ही सुनाई पड़ रहा है। इससे मन में इतनी पीड़ा हुई कि उसे सहन नहीं कर पा रहा हूँ। अपनी इस पीड़ा को मैंने श्रद्धेय भन्ते जी के समक्ष रखा। उन्होंने अपना अमूल्य जीवन आप लोगों की सेवा में अर्पित कर दिया है। वे आज हम सबके बीच में उपस्थित हैं।

      डॉ0 भीमराव अम्बेड़कर जी, जिन्दगी भर इस घृणा को सहते रहे। सारे तथ्य अच्छी तरह समझ लेने के बाद उन्होंने जीवन के अन्तिम दिनों में बौद्ध धर्म को अंगीकार कर लिया। वे हम लोगों के मसीहा थे। वे जिन्दगी भर हिन्दुओं से लड़ते रहे। वे हमें जो रास्त दिखा गये हैं वही सही है। हमें एक होकर सत्ता में अपना स्थान निश्चित करने का प्रयास करना चाहिये। गाँव की राजनीति में हम अपना हित देखकर ही वोट का उपयोग करें। मुझे आप लोगों से यही कहना है। वैसे आप सभी लोग समझदार हैं। आप लोगों ने स्वयं ही सघर्ष का विगुल बजा दिया है।

       हमारे बीच में श्रद्धेय भन्ते जी विराजमान हैं ही। आप उनके विचारो से अवश्य ही लाभ उठायेंगे।’ यह कह कर डॉ0 अविनाशी अपने स्थान पर बैठ गये।

       अब श्रद्धेय भन्ते जी ने सभा को सम्बोधित किया-‘ धर्म ,प्रेम से रहना सिखाता है। मैं आप लोगों के अन्दर से घृणा निकालकर प्यार बाँट ने आया हूँ। हमारे धर्म का आधार करुणा है। विश्व के सभी धर्मों में सदाचार और भाईचारे की बातें कही गईं हैं। हिन्दू धर्म में हमें कुछ और ही बातें देखने को मिल रहीं हैं। उनमें हमें समानता कहीं भी दिखाई नहीं देती। उनमें तो हमें भेदभाव, छुआछूत, ऊँच-नीच की विरासतों से हिन्दू धर्म सजा-सँभरा है। युगों-युगों से हम लोग पता नहीं क्यों, इनसे चिपके हुये हैं। हमको इनसे मिल रहा है घृणा-द्वेष, भेदभाव और अपमान। हमें मिलना चाहिये थी समता, स्नेह और मान। यह हिन्दू धर्म से कभी सम्भव नहीं जान पड़ता। इनके धर्म में हमें कोई अच्छाई ही दिखाई नहीं देती। यह ब्राह्मणवाद पर आधारित है। यह एक ऐसा वर्ग है जिसने अपने लिये सारी सुविधाएँ अपने धर्म ग्रंथें में अंकित कर रखी है। हमारा हक खा-खा कर ये लोग सन्ट पड़ रहे हैं।

      हम धर्मग्रंथों की बातें करें? लेकिन क्या फयदा? सभी में अधिकांश बातें उन्हीं के फायदे की हैं। अधिक कहने से भी क्या लाभ? मेरा तो आप लोगों से यही कहना है कि इस कष्ट से निकलिये और बौद्ध बन जाइये। फिर देखिये आपके विकास में किस तरह दिनों- दिन बृद्धि होती है। अम्बेड़कर जी के जीवन से शिक्षा लीजिये और बदल जाइये। यह बदलना इस तरह का है जैसे हम किसी जीर्ण-शीर्ण वस्त्र को उतार फेंकें।

       अब ऐसे लोग हाथ उठाइये जो बौद्ध बनना चाहते हैं।’

      यह सुनकर पहले कुछ हाथ उठे। उसके बाद सभी ने अपने-अपने हाथ उठा दिये। मौजी का हाथ सबसे पीछे उठा। वह बदलने के लिये नहीं वल्कि इसलिये कि सबने अपने हाथ उठा दिये थे। उसने सोचा एक हाथ ना भी उठे उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा किन्तु यह उसे यह अच्छा न लग रहा था। इसीलिये उसे भी हाथ उठाना पड़ा। सभी के उठे हुये हाथ देखकर भन्ते जी पुनः बोले-‘बस-बस मैं समझ गया कि आप भगवान बुद्ध की करुणा के पात्र हो। अब आप लोग जो भी दिन निश्चित करेंगे, उसी दिन हम आकर आप लोगों को बौद्ध धर्म में दीक्षित कर जायेंगे। जयराज भीम जयराज- जयराज भीम, जयराज भारत। धन्यवाद।

       उनके भाषण के बाद एक खद्दर धारी नेताजी बोलने के लिये उठे। उन्होंने यों बोलना शुरू किया-‘ मुझे आप लोगों की सेवा करते हुये बारह वर्ष से अधिक समय व्यतीत होगया है। कहते हैं बारह वर्ष में तो घूरे के भी दिन फिर जाते हैं। आप सब मुझे पहचानते ही होंगे।’

       भीड़ के बीच से आवाज आई-‘ अरे साब! आपको कौन नहीं जानता है! पहले आप काँग्रेस में थे । बाद में आप जपा में चले गये थे। अब आप बी. एस. पी. के सक्रीय कार्यकर्ता हैं।’

       उन्होंने सफाई दी-‘मैं पहले भटका हुआ था। पिछली बार मैंने महाराज जी की बात सुनी तो मैं पूरी तरह बदल गया हूँ। हम सब संगठित होकर अपने वोट का उपयोग सत्ता में अपनी भागीदारी के लिये कर सकते हैं। इसी में हम सब का हित है।

       श्रद्धेय भन्ते जी ने हम लोगों को अपना अमूल्य समय दिया, इसके लिये हम सब हृदय से उनका आभार मानते हैं। आशा है भन्ते जी समय-समय  इसी तरह हमें दिशाबोध कराते रहेंगे। धन्यवाद। अब श्रद्धेय जी की आज्ञा से सभा समाप्ति की घोषणा की जाती है।

      लोग अपने-अपने घर चले गये। यह बात गाँव भर में फैल गई। कुछों का कहना था कि इन लोगों को गाँधी जी सिर चढा़ गये हैं। जगनू कुशवाह कहता फिर रहा था-‘ इस देश का नाश तो इन ब्राह्मणों ने किया है। हमें भी ये लोग अछूत ही मानते हैं। उनके भगवान के लिये फूल भेजने का काम हम लोगों को मिला था। हम इसी में संतुष्ट रहे। हमारी जाति बहुत गरीब है। हम इसी में खुश हैं कि ये लोग हमारे हाथ का पानी पी लेते हैं।’

      कुन्दन ने यह बात सुनी तो बोला-‘ कुछ लोगों ने धर्म के सम्बन्ध में विष वमन किया है। हम जानते हैं कि हमारे धर्म में तमाम तरह की कुरीतियाँ घर कर गईं हैं। स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुषों ने हमें सचेत करने का प्रयास किया है। महात्मा गाँधी ने हमें नई दिशा दी है। अब वह समय आ गया है जब छुआछूत जैसे अभिषाप को जड़ से मिटाने की आवश्यकता है।’

      नारू केवट के मन में आक्रोश उठ खड़ा है। वह इसी गाँव के विद्यालय में भृत्य है। जब भी वह विद्यालय की घन्टी बजाता है तो वह उसे इस तरह जोर-जोर से पीटता है ,मानों उस पर वह अपना गुस्सा निकाल रहा हो।

     इस गाँव में केवटों का अलग मोहल्ला है। इसी तरह इस गाँव में सभी जातियों के अलग-अलग मोहल्ले हैं। केवटों का मोहल्ला तेलियों और जाटवों के मोहल्ले के बीच में बसा है। जाटवों में आई चेतना को देखकर इन लोगों ने भी पंचायत कर डाली और तय किया गया कि अब कोई भी केवट जाति के लोग किसी की घिनौंची( घर का पानी रखने की निश्चित जगह ) कमाने नहीं जाएँगे।

      अभी तक पता नहीं कितनी पीढ़ियों से इस जाति के लोग इस गाँव के रहीसों के घर पानी भरने जाते रहे हैं। इसके बदले में उन्हें मिलता है ,कलेउ की चार रोटियाँ और दस-पचास रुपये अलग से। इसके अतिरिक्त जिनके यहाँ पानी की ज्यादा जरूरत रहती है ,उन्होंने लगा रखा है उन्हें एक- दो बीघा जमीन का टुकड़ा। जिस पर ये लोग कछवाई करके अपना पेट पालते रहते हैं।

      जब इन लोगों ने उनका पानी भरना बन्द किया तो जन्म-जन्मान्तर से लगा रोजगार भी छीन लिया। यह भी नहीं सोचा, यह तो उनका हक बन चुका है। उनमें इतना साहस कहाँ? जो वे उस पर अपना हक बतला सके। वे तो इसके बावजूद गूँगों की तरह मन मसोस कर रह गये।

       गाँव के रहीसों के लड़के जब कुओं से पानी भरने, सिर पर घड़े रखकर निकले तो ऐसा महसूस कर रहे थे मानों उनका अपमान हो रहा है। नारु केवट तो कहता फिर रहा था-‘ का पानी पीवे में अपमान महसूस नहीं होत जो अपने लिये पानी भरने में हो रहा है।

       ये बातें ठाकुर लालसिंह के लड़कों के कानों में पड़ी तो वे उसे मारने के लिये स्कूल पर ही पहुँच गये। वह तो स्कूल के हेडमास्टर सुरेश सक्सेना और शिक्षक वाभले ने यह लड़ाई बरका दी, क्योंकि वे स्कूल को गाँव की राजनीति से नहीं जोड़ना चाहते थे।