Mamta ki Pariksha - 63 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | ममता की परीक्षा - 63

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ममता की परीक्षा - 63



धूल भरी सड़क में गड्ढों के बीच राह तलाशते हुए जमनादास की कार ने जब सुजानपुर में प्रवेश किया सूर्य भी अपने गंतव्य तक पहुँच चुके थे। दूर कहीं क्षितिज पर फैली हुई लाली शीघ्र ही छा जानेवाले अँधेरे की तरफ इशारा कर रही थी।

अपने घर के सामने खटिये पर बैठी उदास नजरों से साधना एकटक टकटकी लगाए दूर धरती और आसमान के मिलन का आभास करा रहे क्षितिज को निहारे जा रही थी। उसके मन में उठ रहे विचारों के बवंडर मन को अशांत किये हुए थे।

' क्या मेरी जिंदगी भी लोगों की नजरों में क्षितिज की तरह ही नहीं बन गई है ? लोगों की नजरों में देश दुनिया की सभी परंपराओं को मानते हुए पूरे रीति रिवाजों से हुई उसकी शादी भी कहीं इस क्षितिज की तरह ही तो नहीं ? अभी तो उसकी जिंदगी शुरू भी नहीं हुई थी और यह विछोह की स्थिति ! यह एक छलावा ही तो है। लोग कितनी मंत्रमुग्ध अवस्था में दूर स्थित क्षितिज को देखते हुए धरती और आसमान के मिलन के अद्भुत काल्पनिक दृश्य का आनंद लेते हैं, लेकिन क्या वो सचमुच मिल पाते हैं ?.. नहीं, कभी नहीं। सभी जानते हैं लेकिन उस काल्पनिक दृश्य की सुंदरता को देखने का मोह त्याग नहीं पाते। क्या ऐसा ही उसके साथ नहीं हो रहा ? अग्नि को साक्षी मानकर गणमान्य लोगों की उपस्थिति में सात फेरे लेने के बावजूद वह गोपाल के परिचितों व उसके घर के लोगों के लिए अपरिचित ही थी। जब तक उनकी नजरों से यह बेगानापन दूर न हो जाय तब तक उसकी और गोपाल की शादी तो उनके लिए कोई मायने ही नहीं रखती थी। फिर क्या फायदा इस आधे अधूरे रिवाजों का ? इनके नजरिये से तो हम मिलकर भी अधूरे ही हैं। मिलने का बस अहसास भर है, कहीं कोई सच्चाई नहीं इनकी नजरों में हमारे मिलन क। गाँव समाज की नजरों में गोपाल से मिलकर भी हम उसके घरवालों की नजरों में उससे बहुत दूर हैं...'

तभी किसी कार के इंजन की आवाज के शोर ने गाँव के शांत वातावरण की शांति भंग कर दी और इसके साथ ही साधना की विचार श्रृंखला भी विखंडित हो गई। उसने चौंक कर आवाज आने की दिशा में देखा। आवाज उसके घर के पिछवाड़े से आ रही थी जहाँ खाली पड़े खेतों में अपनी कार खड़ी करके जमनादास मास्टर के साथ उसकी ही तरफ बढ़ रहा था।
गाँव के कुछ बच्चे कार को घेरे हुए अचरज भरी निगाहों से अपलक देखे जा रहे थे।

साधना से मिलकर जमनादास ने उसे वही बात फिर से विस्तार से बताया जो उसने मास्टर जी को अपने बंगले में समझाया था।
उसकी झूठ से अनजान साधना ने उसके चरण पकड़ लिए और बोली, " तुमने बहुत अच्छा किया जमना जो तुम उस दिन उन्हें यहाँ से पहले ही शहर लेकर चले गए थे। मैं तो यह सोचकर ही खौफजदा हुई जा रही हूँ कि क्या होता अगर उनका इस तरह का सिरदर्द यहाँ शुरू होता ? यहाँ तो बहुत दूर दूर तक ढंग की डिस्पेंसरी भी नहीं है, बढ़िया अस्पताल तो दूर की कौड़ी है। तुम्हारा बहुत अहसान है जमना ! दिल कह रहा है तुम्हें भैया कहकर पुकारूँ ! सच आज मेरा भाई भी होता तो पता नहीं इतना सब कर पाता कि नहीं मेरे लिए।"

कहते हुए उसकी पलकें छलक पड़ी थीं। फिर स्वतः ही खुद को दिलासा देते हुए बोली, "सच ही कहा है किसी ने भगवान जो करता है भले के लिए ही करता है। देखो भगवान ने उनको पहले ही तुम्हारे जरिये शहर बुलवा लिया था। हे भगवान, उनकी रक्षा करना। ऑपेरशन सफल हो जाय और वह फिर से यहाँ आ जाय और मुझे तुझसे कुछ नहीं चाहिए।" कहते हुए उसकी नजरें शून्य को घूर रही थीं और दोनों हाथ जुड़े हुए थे।

साधना की बातें सुनकर मास्टर का कलेजा भी मुँह को आ गया था और वास्तविकता का बोध करते हुए जमनादास भीतर ही भीतर भयभीत था। वह उस दृश्य की कल्पना नहीं कर पा रहा था जब साधना को वास्तविकता का भान होगा। तब उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी ? वह उस दिन उसका सामना कैसे कर पायेगा ? भावावेश में उसे भैया कहकर संबोधन करने वाली साधना की नजरों में क्या तब वह गिर नहीं जाएगा ? लेकिन वह क्या करे ? वह शोभालाल और बृन्दादेवी के फैसले को बदलने की हैसियत तो नहीं रखता और फिर गोपाल को साधना से दूर करने का दोषी वह खुद को क्यों समझ रहा है ? उसने तो बस एक माँ से उसके बेटे को मिलवाने की ही कोशिश की थी। अब काला उनके मन में ही था तो वह क्या कर सकता है ?

तभी उसके मन के किसी कोने से आवाज आई 'प्रायश्चित की कोशिश तो कर सकता है ?'

'हाँ ! ये सही है । मैं साधना और गोपाल को मिलाने की पूरी कोशिश कर सकता हूँ।'

साधना अपनी हथेलियों में मुँह छिपाए रोये जा रही थी। उसे दिलासा देते हुए जमनादास बोला, "साधना ! होनी को तो भगवान भी नहीं रोक सकते। जब जब जो जो होना है, तब तब सो सो होता है। भगवान की लीला न्यारी है और भरोसा रखो उनपर, जो भी होगा अच्छा ही होगा। गोपाल के विदेश से आते ही मैं खुद उसे लेकर तुम्हारे सामने आ जाऊँगा। बस भगवान से प्रार्थना करो कि ऑपेरशन सफल रहे और गोपाल स्वस्थ हो जाए।"

कहने के बाद जमनादास ने घड़ी देखी। रात के आठ बजने वाले थे। उठते हुए उसने मास्टर जी से जाने की इजाजत माँगी।

"अरे नहीं, अब से कहाँ जाओगे ? रात अधिक हो गई है और फिर रास्ता भी सुरक्षित नहीं है। चोरों और लुटेरों का क्या भरोसा ? जाओगे तो हमें बराबर तुम्हारी चिंता बनी रहेगी। इससे बेहतर है सुबह जल्दी उठकर चले जाना।" मास्टर ने विनम्रता से आग्रह किया जिसे जमनादास ने स्वीकार कर लिया।

सुबह जमनादास शहर वापस लौट गया। उसे विदा करते हुए साधना की नजरें फिर भर आईं थीं।

इस घटना के बाद कई दिनों तक साधना की उदास छवि जमनादास के मन को कचोटती रही। गाहेबगाहे उसकी रोती हुई आँखें उसे कुछ कहने का प्रयास करती हुई लगतीं।
समय अपनी गति से सरकता रहा। दिन सप्ताह और सप्ताह महीनों में बदलने लगे। जमनादास के मन में साधना की उदास सूरत अब दस्तक नहीं देती थी। उसने अपना पूरा ध्यान अपने पिताजी के साथ उनके व्यवसाय में हाथ बँटाने में लगा दिया।
गोपाल और साधना अब उसकी सोच के दायरे से भी बाहर थे। उसे अब गोपाल की खबर भी नहीं थी सिवा इसके कि अमेरिका में उसके दिमाग का सफल ऑपरेशन हो चुका था और अब वह भला चंगा स्वस्थ था, लेकिन कहाँ था , क्या कर रहा था जैसी बातों से बिल्कुल अनजान था वह। इसकी वजह थी बृन्दादेवी की जमनादास से वह बेरुखी जिसे महसूस कर के जमनादास को अपना अपमान होता हुआ महसूस हुआ था और उसने स्वतः ही इस पूरे प्रकरण से खुद को अलग कर लिया था।

साधना की कोख में कुदरत सृजन के कार्य को बखूबी अंजाम देने में लगी हुई थी फलस्वरूप हर बदलते दिन के साथ ही साधना के जिस्म में परिवर्तन दिखाई देने शुरू हो गए थे।
सही समय पर साधना ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया। गाँव की परंपरा के मुताबिक हर्षोल्लास से उसके जन्म का उत्सव मनाया गया और जन्म से बारहवें दिन उसका नामकरण किया गया ' अमर ! '

क्रमशः