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हिमालयीन पहाड़ सबसे कमजोर पर्वत श्रृंखला हैं। काले कठीन पत्थरोंसे यह पहाड़ नही बने हैं। इस में सीप का चूना पत्थर ज्यादा मात्रा में हैं। इस वजह से जमीन पानी को सोख लेती हैं, और उसी पानी की भाँप होने के कारण जमीन में दरारे पड़ती हैं। दरारों के कारण बडे बडे पत्थर नीचे गिर ज़ाते हैं। अत्यंत प्रतिकूल वातावरण, जोरसे बरसने वाली बेमौसमी बारीश, तीव्र धूप, बर्फ गिरने से पहाड़ की परते हलके आघात से भी टूटने लगती हैं। बर्फीले पहाड़ तीव्र ध्वनीनाद से भी गिरने की संभावना बढती हैं। इसीलिए प्रोतिमा बेदीजी के दमदार पदन्यास और वाद्यध्वनी के कारण भी पहले से कमजोर पहाड़ तभी गिर गये और सबका नाश हो गया। वह भुस्खलन इतना बड़ा था की पूरा गाँव उसके नीचे दब गया। अभी उसी जगह शंकर भगवान की मूर्ति स्थापन की हैं। सभी लोगोंने वहाँ प्रार्थना की। खाने की व्यवस्था वही पर की थी। वहाँ भोजन करते समय कुछ अजीबसा महसूस हुआ। हम जहाँ खाना खाने बैठ़े थे उसी के नीचे कितने सारे लोग मरे पड़े हैं यह भावना अज़ीब लग रही थी। लेकिन ऐसा कहते हैं, अपने अभी तक इतने जन्म हुए हैं की उन जन्मों की हड्डीयाँ इकठ्ठी की ज़ाए तो उसके पर्बत बन सकते हैं और जितना रोए हैं उनकी नदियाँ बन सकती हैं। अपना यह जन्म सँवर ज़ाए तो इससे हम मुक्ती पा सकते हैं।
मालपा से पाँच कि.मी.दुरी पर चलते लामारी गाँव लगा। उसे गाँव कहना भी मज़ाक होगा तीन मकान और एक चाय की दुकान, बस इतनासा आशियाना था। यह रास्ता पूरा चढ़ाई का था गाला से लेकर मालपा तक 1400 से 1500 फीट हम लोग नीचे उतरते हुए आए थे। अब 2500 फीट ऊंची की चढ़ान का सफर चालू था। इस मार्ग में भी झरने या पानी के बहाव से हम लोग गुजर रहे थे। चलते चलते एक जगह पर बडा सुंदर नज़ारा देखा। 200 फीट ऊँचाई से झरना फूट कर बह रहा था। छाते की आकार में गिरता हुआ पानी बहुत खुबसूरत लगा। उसके फोटो निकालकर हम लोग आगे बढ लगे। लामारी गाँव पहूँचते ही ITBP के जवानोंने चाय और वेफर्स देते हुए हमारा स्वागत किया। पिछले मार्ग का वृत्तांत पूछा और आगे के सफर की संभाव्य परेशानियों के बारे में ज़ानकारी दी।
मानवी स्वभाव के अनुसार जब हमे आगे की कोई बात पहले पता चलती हैं तो व्यक्ति उसी के बारे में सोचने लगता हैं। वही परेशानी सामने खडी होगी और उस पर यह मार्ग निकालेंगे ऐसे सोच के रखता हैं। लेकिन जब उससे विपरीत विपदा आती हैं तो वह गड़बडा जाता हैं। संकट में मार्ग निकालने में विफल हो जाता हैं। यही बात जब पता नही हैं और सामने आती हैं तो व्यक्ति क्षणमात्र गड़बडा ज़ाती हैं लेकिन कुछ ही सेकंदो में उसका दिमाग चालू हो जाता हैं। जब तक हम अपना माईंड़ सेट करके नही रखते, तब तक व्यक्ति संकटों का सामना करने में सफल रहती हैं। और एकबार माईंड़ सेट कर दिया यह मुझसे नही होगा, या और कुछ भी ,तो उससे निकलना मुश्किल होता हैं। अभी बुधी गाँव की ओर हम पहूँच रहे थे। आज रात का ठिकाना वही पर था। यह गाँव समुंदर तल से 8900 फीट ऊँचाई पर हैं। यही से ज्यादा ठंड़ चालू हो ज़ाती हैं। इस गाँव में 50 या 60 मकान हैं, उस में 400 या 500 लोग रहते हैं। बुधी से लेकर आगे जितने भी गाँव में लोग रहते हैं वह ,ठंड़ के मौसम में जब बर्फीले तुफान चालू हो ज़ाते हैं तब नीचे धारचूला गाँव में आकर रहते हैं।
बुधी कँम्प पहूँचते, कुदरत का अनोखा नज़ारा देखते ही हम सब दंग रह गये। फुलों के पौधौं से पूरा कँम्प सज़ा हुआ था। नाना रंगबिरंगे फुल खिल उठ़े थे। उनका हलकीसी धूप की गरमाहट में हवा से बाते करना मन को लुभा रहा था। अभी तक का रास्ता जो हमने तय किया था वहाँ पर साल, फर्न, ज्यनिपर, पाईन, देवदार बांस के बन भी दिखाई दिए। वहाँ का वैशिष्टपूर्ण भूजवृक्ष देखा। यह वृक्ष की ऊँचाई 50 से 60 फीट रहती हैं। स्थानिक लोग मंगल कार्यों में भूजपत्र की गीली और लहराती शाखाओंसे मंड़प सज़ाते हैं। पुराने जमाने में इस पेड़ के खाल का उपयोग लिखने के लिए तथा पहनने के लिए किया जाता था। उसे वल्कल कहते हैं। केली के पत्तों जैसे भूजपत्र पर भी खाना खा सकते हैं। इस खाल में बहुत से औषधी गुणधर्म पाए गए हैं। रोगों से मुक्तता दिलाने वाला पेड़ ऐसी इसकी खासियत हैं। यहाँ के लोकमान्यता के अनुसार इस खाल का उपयोग प्रामुखता से मंत्रसिध्दी के लिए किया जाता हैं। कुछ मंत्र इस पत्ते पर लिखकर, ताईत में बाँधते ह्ए, वह ताईत पहनने से करणी भूतबाधा नही होती हैं। इस भूर्जपत्र का उपयोग वेद ,ऋचा लिखने के लिए भी किया जाता था। ललित त्रिशंती स्तोत्र पत्ते पर लिखकर दिया रखते हुए त्रिशंती के पठण मात्र से सिध्दी प्राप्त होती हैं ऐसे पढने में आया हैं।
बुधी कँम्प में फोन की सुविधा थी, तो घर में सबसे बात करने से मन हलका हो गया। सभी लोगों के चेहरे पर अपनों से मिलने का आनन्द झलक रहा था। जोत्स्ना, क्षितिज सभी अपने लग रहे थे। उनका फोन होने के बाद हम साथ में खाना खाने गये। रोज खाने में सूप रहता ही था कभी टोमॅटो, कॉर्नफ्लॉवर, मिक्स सूप। गर्म खाना खाने के बाद हम बाहर आ गये। तभी घोडे पर चढ़ाया हुआ सामान बाँटना चालू दिखाई दिया। बॅग लेकर मैं कमरे में पहूँच गई। फिरसे इस बॅग में उस बॅग में का काम चालू हो गया। सच, मनुष्य कितने कम जरूरतों में रह सकता हैं, यह बात यहाँ आकर पता चली। अगर तुम्हारा मन शांत चित्त से भरा होगा। किसी कार्य में व्यग्र होगा, तो तुम्हे बाह्य जरूरतों का सहारा लेने की जरूरत नही पडेगी। मन अंर्तमुख रहेगा। बहिर्मुखी मानस हमेशा कुछ ना कुछ पाने की लालसा रखता हैं। ध्यास और हव्यास यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अपना सिक्का कौनसा हैं यह व्यक्ति खूद ही ज़ान सकता हैं। अंतरंग विचारों में खो कर कब आँख लग गई पता ही नही चला।
सुबह सबको जल्दी उठाया गया। बुधी से गुंजी यह लगभग 15 कि.मी. का सफर था। उस में दो घंटे छियालेक तक पूरा पहाड़ चढ़ना था। तैयार होकर 5,30 बजे ही चलना चालू हुआ। सुबह की बेला के कारण वातावरण उल्हासित था इसीलिए घोडे बैठने से ज्यादा चलना अच्छा लग रहा था। अभी चढ़ाई की आदत होने लगी फिर भी कभी कभी साँस फूल ज़ाती तो फिर से घोडे पर सवाँर हो ज़ाती थी। देवानंद पोर्टर बैठीए माँजी आवाज लगाता रहता। घोडे पर बैठने का एक तरीका हैं अगर वह ठीक से अपनाया, जैसे चढ़ाई के समय आगे झुकना हैं, तीव्र ढ़लान के समय पिछे झुकना हैं। यह बाते ध्यान में रखते हैं तो घोडे पर बैठना आसान हो जाता हैं। हर बात आदत पर निर्भर हैं।
देखते ही देखते छियालेक का पठार चालू हो गया। यहाँ से व्यासभूमी शुरू होती हैं। पूरी जमीन नानाविध रंगों के फुलों से सजी हुई थी। छोटे पौधे, फुलों के कतार ,सीधे हिमरेखा तक दिखने लगे। हम जैसे जैसे उपर ज़ा रहे थे वैसे वैसे पौधों की ऊँचाई कम हो रही थी। सिर के उपर के फुलों के पौधे चढते चढते हाँथ तक फिर कमर, घुटने, आँखरी में पैरोंतले आ गए, तब पैरोंतले फुलोंका कालीन फर्श बिछाया हुआ लग रहा था। नाना रंग, नाना ढंग। अतिनील किरणों के कारण फुलों के रंग वहाँ और भी निखर ज़ाते हैं। फुलों के साथ तितलीयों की बहुतसी प्रज़ाती यहाँ देखने के लिए मिलती हैं। ऐसी अनोखी दुनिया में भगवान ने संसार में दिए हुए रिश्तों को याद करना मतलब यहाँ के पवित्र शांत वातावरण की तरंगों को दुषित करना। इसी वातावरण की शांति, अपने मन में प्रवेशित होकर पवित्रता के स्पंदन प्राप्त करने से, आगे आनेवाले अध्यात्मिक अनुभवों को हम ग्रहण कर सकते हैं।
ऐसे स्वर्गलोकी वातावरण में अमृतपान का एक छोटा हॉटेल दिखाई दिया। वहाँ ITBP के जवानोंने स्वागत करते हुए चाय और बटाटा वेफर्स सामने रख दिए। नैसर्गिक सुंदरता देखते देखते अमृतपान का स्वाद लेना चालू था। इस समय मन में कोई भी खयाल नही आ रहे थे। नीरव शांति मन में बसी हुई थी। निःशब्धता से भरा ऐसा क्षण, ऐसी अवस्था तुम्हे कभी भी आत्मसाक्षात्कार तक लेकर ज़ा सकती हैं। लेकिन यह अवस्था दीर्घ हो यह बात जरूरी हैं और इसके लिए सिर्फ साधना में सातत्य की जरूरी हैं। ऐसा कहते हैं अगर तुम सातत्यता से तीन महिने साधना करोगे तो तुम्हे भगवान की प्राप्ती अवश्य होगी। अन्यथा अपना मन, एक विचार खत्म होते ही दुसरा इस चक्र में फँस जाता हैं। निर्मन अवस्था होने के लिए निसर्ग सान्निध्यता की तरंगे बहुत फायदेमंद रहती हैं। वह तरंगे सीधे अंर्तमन में प्रवेश करती हैं और अलौकिकत्व का साक्षात्कार करने के लिए तुम्हारी क्षमता बढाती हैं। हम सब उस तरंगों में प्रवेश कर रह थे। अपने अपने क्षमता के अनुसार फल पाने वाले थे।
(क्रमशः)