Mamta ki Pariksha - 61 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | ममता की परीक्षा - 61

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ममता की परीक्षा - 61



परबतिया के जाने के बाद साधना के होठों पर आई हुई मुस्कान ने एक बार फिर खामोशी की चादर ओढ़ ली थी। दिल में बेपनाह दर्द को समेटे हुए वह खामोशी से जुट गई रसोई में। बाबूजी को जल्दी भोजन करने की आदत थी। उसे खुद तो भूख नहीं लगी थी लेकिन बाबूजी का ख्याल भी तो उसी को रखना था। छोटे से बल्ब से आँगन में मद्धिम पीली रोशनी फैली हुई थी। अँधेरे की अभ्यस्त साधना की नजरों के लिए वह मद्धिम रोशनी भी दिन के उजाले जैसा ही प्रतीत हो रहा था। बड़ी तेजी से जुट गई वह अपने कर्तव्य का निर्वहन करने में। अपने भूखे बाबूजी का पेट भरने की जिम्मेदारी उसकी ही तो थी ।

बाहर खटिये पर बैठे मास्टर रामकिशुन के कानों में परबतिया की आवाज लगातार गूँज रही थी 'मुबारक हो, तुम नाना बनानेवाले हो !' लगातार गूँजती इस अनचाही आवाज से पीछा छुड़ाने के लिए मास्टर ने दोनों हाथों से अपने कानों को भींच लिया था लेकिन आवाज का शोर कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। कम होता भी कैसे ? यह कानों से सुनाई देने वाला शोर तो था ही नहीं। परबतिया के मुँह से निकले इस बात ने सीधे उनके दिल में घर कर लिया था। गोपाल की अनुपस्थिति उनके मन में बुरे बुरे ख्यालों को जन्म देने लगी थी। गोपाल को शहर भेजते समय मन में कोई भी शंका न करनेवाले मास्टर के मन में अब तमाम तरह के किंतु परंतु युक्त सवाल उमड़ रहे थे, जिनके जवाब की तलाश में वह खासे परेशान हो गए थे।

'एक नया जीव बिटिया की कोख में अंगड़ाई ले रहा है और उसके सृजनहार और पालनहार का अनुपस्थित रहना खटकता है। उसका मित्र उसे लेने शहर से यहाँ आया था। अगर वह वापस नहीं लौटा तो ? ..तो क्या होगा साधना का ? क्या होगा भविष्य उस नन्हें से जीव का जो साधना की कोख में आकार ले रहा है ?' इसी तरह के अनेकों सवाल उनके अन्तर्मन में उमड़ घुमड़ रहे थे तभी उसका अवचेतन मन उसे समझाते हुए कहता है, 'बेकार की शंका कर रहे हो मास्टर ! तुम जो सोच रहे हो वैसा कुछ भी नहीं होनेवाला। गोपाल अपने माँ की बीमारी की खबर सुनकर शहर गया हुआ है। उनके सलामती की खबर लेकर वह शीघ्र ही वापस आ जायेगा । वह बहुत ही अच्छा लड़का है। साधना को ऐसी हालत में छोड़कर वह ज्यादा दिन उससे दूर नहीं रहेगा। इसमें चिंता करने जैसा कुछ भी नहीं।'

इसी उधेड़बुन के बीच कब समय निकल गया उन्हें पता ही नहीं चला। साधना ने जब भोजन तैयार होने की सूचना दी तब उन्हें समय का भान हुआ। भूख तो कब की मर चुकी थी लेकिन उन्हें पता था कि यदि उन्होंने नहीं खाया तो साधना अन्न का एक दाना भी नहीं खाएगी, अतः खटिये पर से उठते हुए उन्होंने साधना को आवाज लगाई, "साधना बिटिया, अपने लिए भी भोजन निकालकर ले आओ। यहीं बाहर खा लेंगे साथ साथ।.. आज बाप बेटी साथ ही बैठ कर भोजन करेंगे।..अकेले नहीं खाया जाएगा हमसे।"

कुछ देर बाद दोनों बाप बेटी बाहर चटाई बिछाकर भोजन करने की औपचारिकता पूरी कर रहे थे। हालाँकि दोनों ने एक दूसरे को भोजन करने के लिए समझाने का काफी प्रयास किया लेकिन शायद समझ में दोनों के ही नहीं आया। बहुत मशक्कत करने के बाद भी थाली में छूटे हुए चावल के दाने उनके प्रयासों की असफलता पर हँस रहे थे।

पल मिनटों में, मिनट घंटों में, घंटे पहर में और पहर दिनों में तब्दील होते गए। समय का चक्र अपनी गति से चलता रहा। आज गोपाल को सुजानपुर से गए हुए कुल चार दिन हो गए थे। उसके जाने के बाद से उसका अब तक कोई समाचार नहीं मिला था। दो दिन तक तो साधना और मास्टर आश्वस्त थे कि बस अब गोपाल अपने माताजी से मिलकर वापसी की सफर पर ही होगा। तीसरे दिन भी जब वह नहीं आया तो उन्हें आशंका हुई कहीं उसके माताजी की तबियत ज्यादा खराब तो नहीं ? चौथे दिन का सूर्य निकलते ही दोनों की बेचैनी चरम पर पहुँच गई।

साधना का रो रोकर बुरा हाल था। गोपाल के लिए वह खासी चिंतित थी 'पता नहीं कैसे होंगे ? जाते समय उनकी तबियत भी तो ठीक नहीं थी। दवाई ली तो थी लेकिन उससे फायदा हुआ कि नहीं किसको पता ? कहीं उनकी स्वयं की तबियत तो नहीं खराब हो गई ? माता जी की खराब तबियत होती तो भी थोड़े समय के लिए वो यह खबर देने सुजानपुर अवश्य आये होते। उन्हें अच्छी तरह पता है कि यहाँ कोई उनकी चिंता में डूबी जार जार रो रही होगी। वो इतने लापरवाह कैसे हो गए ? .नहीं..नहीं,उनसे लापरवाही नहीं हो सकती। जरूर कोई बात है अन्यथा वो किसी न किसी तरह हमें खबर अवश्य करते, लेकिन क्या कर सकते हैं अब हम ?'

अपनी चिंता जाहिर करते हुए साधना ने मास्टर से पूछा, "बाबूजी, आज चौथा दिन है। उनकी कोई खबर नहीं। आप कहें तो मैं शहर जाकर कुछ खोजखबर ले आऊँ। हो सकता है वो किसी मजबूरी में फँस गए हों। नहीं तो हमें खबर अवश्य करते किसी न किसी जरिये से।"

"नहीं बेटा, तुम्हारा शहर जाना उचित नहीं। अब जो भी हो वह तुम्हारी ससुराल है और वहाँ तुम्हारा इस तरह जाना उचित नहीं। चिंता अब मुझे भी बहुत हो रही है। तुम एक काम करो, स्कूल पहुँचकर सभी कमरे खोल देना और मिश्रा जी से बोल देना ध्यान रखेंगे। मैं आज स्कूल नहीं आऊँगा।"
फिर कलाई पर बंधी घड़ी देखते हुए बोले, " बेटी, मेरा पर्स देना जल्दी से। बस का समय हो गया है। छूट गई तो फिर दूसरी बस शाम को ही मिलेगी जिससे जाना बेकार है। इस बस से जाकर घूम फिरकर सब पता लगाकर देर शाम घर पर वापस भी आ सकते हैं।"

जल्दी जल्दी तैयार होकर मास्टर चौराहे की तरफ चल दिये, जहाँ से उन्हें शहर जानेवाली बस पकड़नी थी। साधना भी उनके साथ ही थी। चौराहे से आगे जाकर दाईं तरफ मुड़कर थोड़ी दूरी पर ही स्कूल था। रास्ते में चलते हुए साधना ने गोपाल के बंगले अग्रवाल विला का पता उन्हें अच्छी तरह समझा दिया था और यह भी बता दिया था कि उसके बंगले से नजदीक ही जमनादास का भी बंगला था। उसका पता भी मास्टर को समझाते हुए उसने कहा था कि 'यदि कोई दिक्कत हो तो निस्संकोच जमनादास से मिल लेना। वह भी बहुत अच्छा लड़का है। उनकी हरसंभव मदद करेगा।'

साधना से विदा लेकर मास्टर बस में बैठ गए। बस के रवाना होते ही साधना चल पड़ी थी स्कूल की ओर।

सुबह के ग्यारह से अधिक का वक्त हो चला था जब बस ने शहर की सीमा में प्रवेश किया। अग्रवाल विला के नजदीक वाले बस स्टॉप पर बस रोकने के लिए उन्होंने कंडक्टर से पहले ही बता दिया था। सही जगह पर कंडक्टर ने उन्हें उतार दिया था बस से।

साधना के बताए गए पते के मुताबिक मास्टर रामकिशुन अग्रवाल विला के सामने पहुँच गए। मुख्य सड़क पर भव्य बंगला देखकर मन ही मन प्रसन्न होते हुए उसने बंगले के मुख्य दरवाजे के सामने बैठे दरबान से गोपाल के बारे में पूछा। दरबान ने आत्मीयता से उन्हें देखते हुए बताया, "गोपाल बाबू की तबियत बहुत ज्यादा खराब थी। शायद तीन दिन तो वो अस्पताल में ही थे। आज सुबह ही सेठ जी , सेठानी और गोपाल बाबू कार में बैठकर कहीं गए हैं।"

" कहाँ गए हैं ? कुछ बताकर गए हैं ? " मास्टर ने व्यग्रता से पूछा।

उनकी व्यग्रता को बखूबी समझते हुए दरबान ने मुस्कुराते हुए बताया, "बाबा, ये शहर है और ये सेठ लोग हैं। ये कहाँ जाते हैं , क्या करते हैं इनसे ये पूछने की हिम्मत हमारे अंदर नहीं और न ये लोग हम जैसे छोटे लोगों से बात करते हैं ताकि हम इनके बारे में कुछ जान सकें। थोड़ी देर चाहो तो यहीं बैठो। अभी ड्राइवर आता ही होगा। वह बता सकता है कि उसने सेठ जी को कहाँ छोड़ा है।" कहते हुए उसने अपने पास ही रखे स्टूल पर उनको बैठने की जगह दे दी।

कुछ देर बाद ही ड्राइवर कार लेकर आ गया था, लेकिन कार खाली थी। कोई नहीं था कार में।

ड्राइवर ने बताया सेठ , सेठानी और गोपाल बाबू को एयरपोर्ट पर छोड़कर आ रहा है और यह आशंका भी जताई कि शायद वो लोग विदेश जाएँगे। सुनकर मास्टर की मुखमुद्रा गंभीर हो गई। वह जानते थे ये ड्राइवर और दरबान इन अमीरों के बारे में वाकई सही सही कुछ नहीं बता सकते थे। वो विदेश गए हैं , लेकिन कहाँ और क्यों ? यह पता लगाना आवश्यक है।.. लेकिन पता कैसे चले और कहाँ से ? तभी साधना की कही बात का उन्हें स्मरण हो आया।

'कोई भी दिक्कत महसूस हो तो आप जमनादास से पूछ लेना। नजदीक ही है उसका भी बंगला।'

जमनादास का ख्याल आते ही मास्टर चल दिये और पहुँच गए जमनादास के बंगले पर। बंगले पर बाहर खड़े चौकीदार से उन्होंने अपना परिचय दिया और कहा ," आप जमनादास जी से इतना ही बताइए सुजानपुर से मास्टर रामकिशुन आये हैं।"

"जी ठीक है, तब तक आप यहीं रुकिए।" कहकर दरबान बंगले के भीतर चला गया।

क्रमशः