Yakshini ek dayan - 2 in Hindi Fiction Stories by Makvana Bhavek books and stories PDF | यक्षिणी एक डायन - 2

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यक्षिणी एक डायन - 2

जगदीश फिर लेखक से पूछता है – "बताईए ना सर क्‍या अभिशाप मिला था यक्षिणी को?"

लेखक जगदीश के सवाल का जवाब देते हुए कहता है – "वो जानने के लिए तुम्हें मेरी किताब के दूसरे भाग के आने का इंतजार करना पड़ेगा समझे।"

"अच्‍छी मार्केटिंग स्‍ट्रेजी है सर किताब बेचने की।"

"वो तो होगी ही जगदीश, किताब बेचता हूँ और उस किताब के साथ अपने दर्द भी, तो उन आँसुओं के पैसे तो वसूलूंगा ही ना, बस एक बात दिमाग में रखना कोई भी इंसान बुरा नहीं होता उसे बुरा बनाया जाता है।"

"मतलब यक्षिणी बुरी नहीं थी उसे बुरा बनाया गया था है ना सर।"

"मैंने कहा ना अब मैं किसी सवाल का जवाब नहीं दूँगा, जो जानना है किताब का दूसरा भाग पढ़ के जानना समझे।"

बाते करते-करते लेखक की सिगरेट खत्म होने वाली थी उसमें बस एक दो कश ही बचे थे।

जगदीश हिचकिचाते हुए फिर लेखक से पूछता है – "सर एक बात पूछू?"

"तुम नहीं मानने वाले ना, ठीक है पूछो।"

"सर आपकी बातों से ऐसा लगता है जैसे आप यक्षिणी को बहुत करीब से जानते है, क्‍या आपने कभी यक्षिणी को देखा है?"

सवाल सुनकर लेखक एक दम चुप हो जाता है, उसके चेहरे के एक्‍सप्रेसन देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वो किसी सोच में डूब गया हो और उसको कुछ ऐसा याद आ गया हो जो वो जगदीश को नहीं बताना चाहता था।

जगदीश लेखक पर दबाव बनाते हुए पूछता है – "क्‍या हुआ सर, आप चुप क्यों हो गये, बताइए ना क्या आपने कभी यक्षिणी को देखा है............क्‍या कभी आपका यक्षिणी से सामना हुआ है?"

लेखक सिगरेट का कश लेकर धीरे से कहता है – "मेरा यक्षिणी से सामना नहीं बल्कि मैंने तो खुद यक्षिणी के साथ............"

लेखक ने इतना ही कहा था कि तभी फोन कट हो जाता है।

लेखक अपना मोबाईल देखते हुए कहता है – "अरे ये क्‍या फोन कैसे कट गया....लगता है नेटवर्क चले गया, ये गाँव में यही प्राब्‍लम रहती है पता ही नहीं चलता कब नेटवर्क आता है और कब चले जाता है।"

इतना कहकर लेखक उसकी कुर्सी के बगल में रखी बैसाखी के सहारे खड़ा हो जाता है। वो लेखक लंगड़ा था उसका एक पैर जो था वो सही से काम नहीं करता था जिसके कारण वो लंगड़ा-लंगड़ा कर चलता था।

उस लेखक ने बैसाखी के सहारे अभी एक दो कदम ही आगे बढ़ाए थे कि तभी कमरे की लाईट अपने आप बंद चालू होने लग जाती है।

लेखक कमरे के अंदर लगे बल्‍ब को देखते हुए कहता है – “अरे अब ये लाईट को क्‍या हो गया अचानक?”

देखते ही देखते लाईट पूरी तरह बंद हो जाती है और कमरे के अंदर चारों तरफ अंधेरा छा जाता है इतना अंधेरा की लेखक को उसके हाथ पैर भी दिखाई नहीं दे रहे थे।

"ये हो क्‍या रहा है आज, कहीं वो आ तो नहीं गयी.....नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, वो नहीं आ सकती।"

लेखक ने खुद से इतना ही कहा था कि तभी कमरे का दरवाजा जो बंद हुआ था वो अपने आप खुल जाता है। दरवाजे के बाहर से हल्की सी सफेद रोशनी आ रही थी। लेखक जल्‍दी-जल्‍दी बैसाखी के सहारे दरवाजे के पास जाने लग जाता है, तभी कोई उसका पैर पकड़ लेता है और वो धड़ाम से नीचे गिर जाता है।

“आअअअअअ मेरा पैर।”

लेखक धीरे-धीरे अपने पैर की तरफ देखने लग जाता है पर अंधेरा इतना ज्‍यादा था कि उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। लेखक जैसे ही अपना हाथ अपने पैर पर रखता है उसको महसूस होता है कि उसका हाथ किसी दूसरे के हाथ के ऊपर रखा हुआ था। लेखक डर जाता है और झट से अपना हाथ अपने पैर से हटा लेता है। तभी उसे एहसास होता है कि अब किसी ने उसका पैर नहीं पकड़ा हुआ था।


लेखक जितनी फूर्ती के साथ रेंगते-रेंगते दरवाजे के पास जा सकता था उतनी फूर्ती से जाने लग जाता है। लेखक दरवाजे के पास पहुँचा ही था कि तभी वो दरवाजा अपने आप बंद हो जाता है।


थोडी ही देर बाद दरवाजे के बाहर लेखक की दर्द से कराहने की आवाज सुनाई देने लग जाती है – "आअअअअअअककक कौन हो तुम?"


"मैं यक्षिणी, तेरी मौत।"


कुछ देर तक लेखक और यक्षिणी की बाते चलती है पर उन दोनों की बातों की आवाज दरवाजे के बाहर नहीं आ रही थी। कुछ देर बाद लेखक की एक जोर से चीख सुनाई देती है


"अअअअअअअअअअ"


यह एक ऐसी चीख थी जो दिल को दहला कर रख दे। अगले ही पल दरवाजे के नीचे से लेखक का खून बहकर दरवाजे के बाहर आने लग जाता है।


तेरह साल बाद


ट्रेन जो की तेज रफ्तार के साथ पटरी पर भागी जा रही थी ठीक उस तरह जिस तरह हमारी जिन्‍दगी भागती है। फर्क इतना है ट्रेन स्‍टेशन आने पर रूकती है पर हमारी जिन्‍दगी कभी नहीं रूकती है; जब तक हमारी साँसे ना रूक जाए।


युग जिसकी उम्र छब्बीस साल, गोरा रंग, चेक शर्ट ब्‍लैक पेंट पहनकर विंडो सीट पर बैठा हुआ था और अपने कानों में हेडफोन डालकर पॉकेट एफ.एम पर भुतिया कहानी मेघ एक श्राप सुन रहा था। कहानी सुनते हुए ही युग विंडो के बाहर दिख रहे मेघालय के गारो पहाड़ की हसीन वादियों का मजा ले रहा था। वही गारो पहाड़ जिसका नामकरण तिब्बती तथा बर्मी जनजाति गारो पर हुआ था। गारो पहाड़ नीस चट्टान का बना हुआ था। पहाड़ों को चारों तरफ से सफेद बादलों ने घेर लिया था जिन्हें देखकर ऐसा लग रहा था कि पहाड़ों ने बादलों कि सफेद चादर ओढ़कर रखी हुई हो। उन्हीं बादलों को देखते-देखते युग कि आंख लग जाती है।


अभी थोड़ी देर पहले युग कि आंख लगी ही थी कि तभी उसे एहसास होता है कि कोई उसका हाथ छू रहा था। कोई बार-बार युग का हाथ पकड़ कर हिला रहा था। युग बौखलाहट के साथ उठ जाता है और जब अपनी आँखें खोलता है तो देखता है कि उसके चेहरे के जस्‍ट सामने एक बुड्ढे का चेहरा था, जो बड़ी-बड़ी आँखें करके उसे घूर रहा था।


उस बूढ़े ने सफेद मटमैली सी धोती पहनी हुई थी। उसके हाथ-पैंर कंपकंपा रहे थे।

युग सोचने लग जाता है पहले तो यह बूढ़ा मेरे सामने नहीं बैठा था ये पूरी सीटे खाली थी अचानक कहाँ से आ गया। अगले हि पल युग खुद ही इस सवाल का जवाब ढूँढ़ लेता है और मन ही मन सोचता है लगता है जब मेरी आँख लग गयी थी तब ही आकर बैठ गया था।


युग गुस्‍सा करते हुए कहता है – "ये क्‍या हरकत है बाबा?"


वो बुढ़ा खाँसतें हुए कहता है – "माफ करना बिटुआ पर क्‍या करूँ तुमसे कुछ काम था तुमसे इसलिए तुम्हें उठाना पड़ा।"


युग हैरानी के साथ कहता है – "क्‍या कहा काम था आपको मुझसे! क्‍या काम था?"


"वो बेटा मुझे जानना था कि वक्त क्‍या हुआ है?"


यह बात सुनकर युग का दिमाग घुमने लग जाता है और वो गुस्से के साथ अपनी घड़ी में देखते हुए कहता है – "ग्यारह बजने वाले है।"


"अच्छा, मतलब एक घटें बाद मेरा स्टेशन आ जाएगा।"


युग कुछ जवाब नहीं देता और उस बूढ़े को घूरने लग जाता है।


"वैसे बिटुआ तुम कहाँ पर जा रहे हो?"


"युग उस बूढ़े के सवाल का जवाब देते हुए कहता है – "वो मेंदीपथार जा रहा हूँ।"


"मतलब तुम भी मेंदीपथार जा रहे हो।"


युग उस बूढ़े के सामने उंगली करते हुए कहती है – "मतलब आप भी।"


"हाँ बिटुआ, चलो अब सफर आसान हो जाएगा जब कोई बात करने वाला मिल जाता है तो सफर जल्दी कट जाता है......तुम मेंदीपथार में कहाँ पर जा रहे हो?"


"मेंदीपथार से पाँच किलोमीटर दूर ही बंगलामुडा गाँव है ना वहीं पर जा रहा हूँ।"


"बंगलामुडा में तुम्हारे रिश्तेदार रहते है क्या?"


"नहीं बंगलामुडा गाँव में तो नहीं पर रौंगकामुचा गाँव में रहते है।"


"अरे ये क्‍या बात हुई बेटा, जब तुम्हारे रिश्तेदार रौंगकामुचा गाँव में रहते है तो फिर तुम बंगलामुडा गाँव क्यों जा रहे हो?"


इस सवाल को सुनकर युग खामोश हो जाता है, ऐसा लग रहा था जैसे उस बूढ़े ने युग कि दुखती नब्ज पर हाथ रख दिया था, कुछ ऐसा पूछ लिया हो जिसका जवाब वो शायद अपने आप को भी नहीं देना चाहता था।


बूढ़ा अपनी बात को आगे जारी रखते हुए कहता है – "चलो नहीं बताना तो मत बताओ, बंगलामुड़ा में कहाँ पर रुकने वाले हो?"


"बंगलामुड़ा गाँव के बाहर जो ग्रेव्‍यार्ड कोठी पड़ती है ना उस में ही रुकने वाला हूँ।"


वो बूढ़ा हैरानी के साथ कहता है – "वो अंग्रेजों के जमाने की कोठी जिसे कब्रिस्तान पर बनाया गया था।"


"हाँ वही ग्रेव्‍यार्ड कोठी।"


"पर वो तो पिछले तेरह साल से बंद है ना।"


"हाँ बंद है पर अब नहीं रहेगी, मैं आज रात ही उस कोठी को खोल दूँगा।"


"नहीं बिटुआ ऐसा मत करना, तुम्हें उस ग्रेव्‍यार्ड कोठी के बारे में नहीं पता क्‍या?"


"क्‍या नहीं पता, आप साफ-साफ कहेंगे कहना क्‍या चाहते है?"


"अगर तुम बचपन में उस गाँव में रहे हो तो यह तो पता ही होगा कि यक्षिणी किशनोई नदी के पास भटका करती थी।"


युग उस बूढ़े की बात का कुछ जवाब नहीं देता है। वो गौर से उसकी बाते सुन रहा था।


वो बूढ़ा अपनी बात को आगे जारी रखते हुए कहता है – "तुम्‍हे पता है उस यक्षिणी के एक नहीं दो ठिकाने थे, पहला किशनोई नदी और दूसरा ग्रेव्‍यार्ड कोठी।"


युग हैरानी के साथ कहता है – "क्‍या कहा ग्रेव्‍यार्ड कोठी!"


"हाँ ग्रेव्‍यार्ड कोठी, गाँव के लोगों ने कई बार यक्षिणी को ग्रेव्‍यार्ड कोठी के पास भी भटकते देखा था। यक्षिणी हर पूर्णिमा और अमावस्या की रात मर्दों के साथ संभोग करके, उनके दिल का खून चुसकर उन्हें मार दिया करती थी।"


"इसका मतलब पापा ने बचपन में जो कहानी मुझे सुनाई थी वो कोई कहानी नहीं बल्कि हकिक्‍त थी!"


"बिटुआ किस कहानी की बात कर रहे हो तुम?

बूढ़े कि बात सुनकर युग अपने अतीत की यादों में खो जाता है। उसको याद आता है वह पल जब वो दस साल का था और अपने पिता से बाते कर रहा था।


“पापा-पापा, क्‍या कर रहे हो आप?” युग ने प्‍यार से पूछा।


“कुछ नहीं बेटा, कहानी लिख रहा हूँ।” युग के पिता ने टाईप राईटर पर कहानी टाईप करते हुए कहा।


“क्‍या कहा पापा कहानी,कौ न सी कहानी लिख रहे है पापा आप?”


“यक्षिणी की कहानी बेटा।”


“पापा मुझे भी यक्षिणी की कहानी सुनाईए ना।”


“नहीं बेटा तुम अभी छोटे हो तुम डर जाओगे, जब बड़े हो जाओगे तब सुनना ठीक है।”


युग उदास हो जाता है और मुँह बनाते हुए कहता है “प्लीज पापा सुनाईए ना मैं नहीं डरूँगा प्रोमिस और आप ही कहते है ना कि अब तो मैं बड़ा हो गया हूँ और बड़े बच्चे डरते नहीं है बल्कि डराते है तो प्‍लीज पापा मुझे यक्षिणी की कहानी सुनाईए ना।”


युग जिद करने लग जाता है और युग की जिद के आगे उसके पापा हार मान जाते है और उसे यक्षिणी की कहानी सुनाने लग जाते है।


“कहते है ये जो अपनी किशनोई नदी है ना बहुत सालो से वहाँ पर यक्षिणी डायन रहा करती थी।”


युग हैरानी के साथ कहता है – "ये बंगलामुडा और रौंगकामुचा गाँव के बीच में जो नदी पड़ती है वहीं पर पापा?"


“हाँ बेटा वहीं पर, ये जो यक्षिणी होती है ये जंगलों में या पानी वाली जगहों के पास पाई जाती है, हर पूर्णिमा और अमावस्या के दिन आने-जाने वाले मुसाफिरों को जो रात में नदी पार किया करते थे उन्हें ये लुभाती थी और अपने रूप जाल में फँसाकर अपना शिकार बनाया करती थी। कहते है यक्षिणी को कमल और चमेली के फूल बहुत पसंद होते है वो हमेशा उसे अपने पास रखा करती थी, जिन पुरुषों को यक्षिणी अपना शिकार बनाती थी उन्हें वो सबसे पहले कुछ खाने का दिया करती थी।”


“खाने का पर क्यों पापा?”


“वो इसलिए बेटा क्योंकि वो उस खाने में ऐसा मंत्र फुकती थी कि जो भी पुरूष उसे खाता था वो उसके वश में हो जाता था, ऐसे ही एक बार यक्षिणी ने एक पुरूष को अपना शिकार बना लिया और उसे अपने वश में करने के बाद उसके साथ संभोग करने लग....”


युग बीच में ही बोल पड़ता है – “ये संभोग क्‍या होता है पापा?”


युग का सवाल सुनकर युग के पिता चुप हो जाते है और वो बात को घुमाते हुए कहते है – “ये आपके मतलब की चीज नहीं है बेटा आप अभी छोटे हो ना जब आप बड़े हो जाओगे तब हम इसका मतलब बताएंगे अभी आप कहानी पर ध्‍यान दो।”


“ठीक है पापा, फिर आगे क्‍या हुआ?”


“संभोग करने के बाद यक्षिणी अपने असली रूप में आ जाती थी, यक्षिणी का असली रूप बेहद डरावना होता है इतना डरावना कि जिसे देखकर किसी की भी दिल की धड़कने थम जाए। अपने असली रूप में आने के बाद यक्षिणी अपने शिकार के दिल का खून चूस लेती थी।"


"पर वो ऐसा क्‍यों करती थी पापा, क्‍या वो बुरी औरत थी?"


"नहीं बेटा, यक्षिणी बुरी औरत नहीं थी बल्कि वो तो बहुत अच्‍छी औरत थी दूसरे लोक से आई हुई एक अप्सरा की तरह थी।"


"तो फिर पापा वो आदमियों के साथ, वो क्‍या बोला था आपने स स हाँ याद आया, संभोग करके क्‍यों मार देती थी?"


युग के पिता कुछ याद करते हुए कहते है – "अभिशाप के कारण बेटा।"


"कैसा अभिशाप पापा।"


"बेटा वो अभिशाप यह था कि..."


युग के पिता ने इतना ही कहा था कि बाहर के कमरे से युग की माँ की आवाज सुनाई देती है


“युग बेटा ओ युग बेटा, चलो आओ खाना खा लो खाना बन गया है।”


युग अपनी माँ को मना करते हुए कहता है – “नहीं माँ मुझे अभी खाना नहीं खाना है, मैं पापा से कहानी सुन रहा हूँ।”


“क्‍या कहा कहानी सुन रहे हो, तुम्हारे पापा को कहानी लिखने और सुनाने के सिवा और कुछ आता भी है जब देखो दिन भर कहानी लिखते रहते है, खुद तो बिगड़े हुए है ही तुम्हें भी बिगाड़ने पर तुले हुए है, चलो जल्दी आओ खाना खाने, मैंने खाने की थाली बना ली है तुम्हारे लिए।”


“नहीं माँ मैं नहीं आ रहा, कहानी खत्म होने के बाद ही आऊँगा।”


“क्‍या कहा नहीं आ रहे; लगता है मुझे ही आना पड़ेगा, रूको अभी बेलन लेकर आती हूँ तभी तुम मानोगे।”


पायल की बजने की आवाज सुनाई देने लग जाती है, ऐसा लग रहा था जैसे युग की माँ युग के कमरे की तरफ आ रही हो।


कुछ ही देर में युग की माँ हाथों में बेलन लेकर उस कमरे में आ जाती है। युग को उसकी माँ का चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था क्योंकि उसकी बचपन की यादों में से उसकी माँ का चेहरा मिट चुका था, उसे नहीं पता था कि उसकी माँ कैसे दिखती थी। उसको उसकी माँ की बाते तो सारी याद थी पर उनका चेहरा नहीं।


युग की माँ उसका कान पकड़ते हुए कहती है – “तो क्या कह रहे थे बेटा तुम कि तुम्हें खाना नहीं खाना जरा एक और बार बोलना।”


युग चीखते हुए कहता है – “अरे माँ कान छोड़िए दर्द हो रहा है माँ कान छोड़िए, कान तो छोड़िए आप माँ दर्द हो रहा है माँआअअअअ”


माँ माँ माँ कहते हुए ही युग अपनी अतीत कि यादों में से बाहर आ जाता है जब युग अपनी आँखें खोलता है तो देखता है कि उस बूढ़े ने उसका हाथ पकड़ा हुआ था और उसे हिला-हिला कर पूछ रहा था


"अरे ओ बिटुआ कहा खो गए ठीक तो हो तुम और ये माँ माँ क्‍यो बोल रहे हो...अरे बिटुआ।”


युग बूढ़े कि बात का जवाब देते हुए कहता है – "कुछ नहीं बाबा ठीक हूँ मैं।”


“मैं तो डर हि गया था।”


युग बूढ़े की आँखों में देखते हुए कहता है – "बाबा एक बात पूछनी थी आपसे, क्‍या वो यक्षिणी अभी भी मर्दों को अपना शिकार बनाया करती है?"