आम इनसान की भांति हर लेखक..कवि भी हर वक्त किसी ना किसी सोच..विचार अथवा उधेड़बुन में खोया रहता है। बस फ़र्क इतना है कि जहाँ आम व्यक्ति इस सोच विचार से उबर कर फिर से किसी नयी उधेड़बुन में खुद को व्यस्त कर लेता है..वहीं लेखक या कवि अपने मतलब के विचार या सोच को तुरंत कागज़ अथवा कम्प्यूटर या इसी तरह किसी अन्य सहज..सुलभ..सुविधाजनक साधन पर उतार लेता है कि विचार अथवा सोच का अस्तित्व तो महज़ क्षणभंगुर होता है। इधर ध्यान हटा और उधर वह तथाकथित विचार..सोच या आईडिया तुरंत ज़हन से छूमंतर हो ग़ायब।
अपनी स्मरणशक्ति को ले कर कोई भी व्यक्ति..कवि या लेखक बेशक जितना बड़ा मर्ज़ी दावा कर ले मगर एक बार ज़हन से किसी विचार का लोप हुआ तो पुनः उस विचार..उस सोच के उसी सिरे को फिर से जस का तस पा लेना तब तक संभव नहीं जब तक आप उसे कहीं लिख कर या कोई हिंट अथवा निशानी लगा कर ना रख लें।
दोस्तों..आज स्मरणशक्ति को ले कर इस तरह की बातें इसलिए कि आज मैं जिस उपन्यास के बारे में बात करने जा रहा हूँ..उसे मैंने लगभग आज से डेढ़ महीने पहले याने के 21 जून को पढ़ कर एक तरह से आत्मसात कर लिया था मगर अपनी स्मरणशक्ति पर विश्वास करते हुए किताब पर लिखने से पहले ही उसी दिन याने के 21 जून, 2022 को मैं परिवार सहित छुट्टियों पर 21 दिन के लिए दुबई चला गया । वहाँ पर भी ऑनलाइन और ऑफलाइन.. दोनों ही ज़रियों से मैं अन्य किताबों से जुड़ा रहा।
वापिस आने के बाद जब इस उपन्यास पर लिखने के लिए उसे फिर उठाया तो उस किताब को ले कर मन में उपजे सब विचार एकदम साफ़ याने के नदारद। नतीजन..उपन्यास को पुनः फिर से पूरी तवज्जो के साथ काफ़ी हद तक फिर से पढ़ना पड़ा। खैर..अब इस मुद्दे पर और ज़्यादा बात ना करते हुए आइए..सीधे सीधे चलते हैं इस उपन्यास पर जिसे 'आड़ा वक्त' के नाम से लिखा है अनेक पुरस्कारों से सम्मानित लेखक राजनारायण बोहरे ने।
मूलतः इस उपन्यास में कहानी है छत्तीसगढ़ की सीमा से लगते मध्यप्रदेश के आख़िरी गाँव में बतौर ओवरसियर नियुक्त हुए स्वरूप और पूर्णरूप से खेती किसानी को अपना जीवन सौंप चुके उसके बड़े भाई याने के दादा के बीच आपसी स्नेहसिक्त संबंध की।
इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ भर्ष्टाचार और सरकारी लालफीताशाही से उपजी सरकारी नौकरी की दुश्वारियाँ एवं विषमताएँ हैं। तो दूसरी तरफ़ आम किसान के दैनिक जीवन में उससे रूबरू होने वाली दिक्कतें और परेशानियाँ का ताना बाना है। जिनमें कभी वो अच्छे बीज और खाद को तरसता है तो कभी बिजली और बारिश की कमी से त्रस्त हो बावला बन..तड़पता दिखाई देता है।
इसी उपन्यास में कहीं दफ़्तरी मिलीभगत से खड़े हुए स्कूलों के कुछ ही सालों में जर्जर हो विद्यार्थियों पर ही गिरने से जुड़ी बातें हैं तो कहीं कमीशन खिला नाममात्र को बनी सड़कें भी पहली साँस में अपना दम तोड़..शहीद होती दिखाई देती हैं।
इसी उपन्यास में कभी अपनी ज़रूरत के नाम पर तो कभी औद्योगिक विकास के नाम पर सरकार किसानों से उनकी उपजाऊ ज़मीन जबरन एक्वायर कर उसे अपने चहेते उद्योगपतियों को औने पौने दामों में सौंपती नज़र आती है। तो कहीं सरकारी दफ़्तरों के कामकाज में उनके कर्मचारियों के ढुलमुल रवैये पर गहरा कटाक्ष होता नजर आता है।
इसी उपन्यास में कहीं कोई घर-खेत में गड़े पुराने खजाने को खोजने के चक्कर में बावला होता नजर आता है। तो इसी उपन्यास में कहीं पाठकों को ग़रीब किसानों की मार्फ़त अपने ही घर खेत के सरकारी आदेश के बाद छिन जाने से पुनः नयी जगह..नए माहौल विस्थापित होने से उत्पन्न होने वाली दिक्कतों और परेशानियों से दो चार होना पड़ता है।
इसी उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ किसान के उसकी जमीन से जुड़े मोह की बातें हैं कि उसके लिए उसकी जमीन से बढ़ कर कुछ नहीं। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी उपन्यास में कहीं ट्रांसफर के नाम पर मंत्री का पी.ए तक रिश्वत माँगता दिखाई देता है।
इसी उपन्यास में कहीं प्रचलित मान्यता के आधार पर पता चलता है कि छत्तीसगढ़ के नामकरण के पीछे वहाँ..उस इलाके में कभी छत्तीस आदिवासी कबीलों के बसे होने की वजह है। लेखकीय परिभाषा के अनुसार छत्तीसगढ़ का मतलब है छत्तीसों सुखों से भरी अपनी दुनिया.. अपनी संस्कृति में मस्त रहने वाले सीधे साधे मस्त कलंदर आदिवासी।
इसी उपन्यास में कहीं ईसाई धर्म के प्रचार प्रसार हेतु वहाँ की मिशनरियाँ भोले भाले ग़रीब अनपढ़ लोगों को ईसाई धर्म अपनाने की एवज में नौकरी और अच्छर रहन सहन का लालच देती दिखाई देती हैं। तो कहीं भ्रष्टाचार में बाक़ी अफ़सरों की भांति संलिप्त ना रहने की वजह से कोई बलि का बकरा बनता दिखाई देता है।
कहीं इस उपन्यास में नए बने सरकारी कानूनों के ख़िलाफ़ हुए किसान आंदोलन से जुड़ी बातें नज़र आती हैं। जिनमें एक तरफ़ इन कानुनों से किसानों को होने वाली दिक्कतों का वर्णन होता दिखाई देता है तो दूसरी तरफ़ कुछ हुड़दंगी प्रवृति के लोग गांवों से शहरों की तरफ़ जाने वाली दूध और सब्ज़ियों की सप्लाई को रोकने की जुगत में दिखाई देते हैं।
कहीं भ्रष्टाचार का समर्थक ना होने वाला भी उसी रंग में रंग..उपहार के रूप में रिश्वत स्वीकार करता दिखाई देता है। तो कहीं सबके दोष किसी एक के सर पर मढ़े जाते दिखाई देते हैं। कहीं सरकारी लापरवाही के चलते बढ़िया..नयी बनी सड़कों की भी दुर्गति होती दिखाई देती है। जिसके लिए हर ज़िम्मेदार अपने मातहत को ज़िम्मेदार बता खुद अपनी ज़िम्मेदारी से कन्नी काटता दिखाई देता है।
किसानों की दिक्कतों को ले कर रचे गए इस उपन्यास में कहीं हमारे यहाँ पुरखों के समय से इस्तेमाल में लिए जा रहे देसी बीजों की अपेक्षा सरकार विदेशी कंपनियों के साठगांठ कर उनके बीजों की खरीद को प्रोत्साहन देती नज़र आती है। तो कहीं आंदोलन की आड़ में छिपे बैठे घुसपैठिए पूरे माहौल को ख़राब करने की कोशिशों में लगे दिखाई देते हैं। तो कहीं इन्हीं उपद्रवियों को सबक सिखाने के लिए पुलिस इनकी धरपकड़ हेतु गाँव-गाँव छापे मारती दिखाई देती है।
इसी उपन्यास में कहीं कोई अपनी ज़मीन के मोह में इस कदर बँधा दिखाई देता है कि घर में बीमारी की वजह से पैसे की बहुत ज़्यादा ज़रूरत होने जैसे आड़े वक्त के बावजूद भी ज़मीन को बेचने के लिए हामी भरता दिखाई नहीं देता कि.. ज़मीन..आड़े वक्त के लिए बचा कर रखी जाती है।
इसी उपन्यास में कहीं कोई नयी कम्पनी के बीजों और खाद के चक्कर में बर्बाद होता दिखाई देता है तो कहीं कोई कम कमाई के बावजूद अँधे फैशन की चाह में लकदक करते कपड़ों..महँगे जूतों और गाड़ियों के चक्कर में फँस तबाह होता नज़र आता है। कहीं कोई किसान क्रेडिट के चँगुल में फँस अपना सब कुछ गँवाता जान पड़ता है।
कहीं किसान अपनी फ़सल को ले कर बरसात की कमी से तो कभी बरसात की अति से आहत होता दिखाई देता है। कही वो पाले की अति को झेलता तो कहीं अत्यधिक गर्मी से परेशान हो अपनी किस्मत को कोसता दिखाई देता है। इसी उपन्यास में कहीं उपज की कमी से आहत किसान गुजर बसर के लिए गाँवों से पलायन करते नज़र आते हैं।
कुछेक जगहों पर शब्द ग़लत छपे हुए दिखाई दिए तथा वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। प्रूफ़रीडिंग के स्तर पर भी कुछ जगहों पर कमियाँ दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर
पेज नंबर 3 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'धारू इन कनस्तरों में संभवत: है कुआँ से पानी भर कर ला रहा था।'
यहाँ 'कुआँ से भर कर पानी ला रहा था' की जगह 'कुएँ से भर कर पानी ला रहा था' आएगा।
पेज नंबर चार पर लिखा दिखाई दिया कि..
'वहाँ आठ-दस मज़दूर नदी किनारे लाइन में खड़े थे और बार-बार नदी में से रेत उठा कर अपने हाथ में लिए तसला में लेकर हिलाने लगते थे।'
यहाँ चूंकि मज़दूर एक से ज़्यादा हैं..इसलिए यहाँ 'अपने हाथ में लिए तसला में लेकर हिलाने लगते थे' की जगह 'अपने हाथ में लिए तसले में ले कर हिलाने लगते थे' आएगा।
इसी तरह पेज नम्बर 10 में लिखा दिखाई दिया कि..
' अभी चार्ज संभाल कर बहुत सारे काम करना है'
यहाँ भी 'बहुत सारे काम करना है' की जगह 'बहुत से काम करने हैं' आएगा।
पेज नंबर 19 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'अगला मास्टर पता नहीं कैसा हो और मेरे तो वैसे भी यहाँ दस साल हो गए हैं, तो कभी भी सरकार मुझे यहाँ से क्यों हटा देगी।'
यहाँ ग़ौरतलब है कि कहानी के अनुसार मास्टर साहब जुगलकिशोर से कहना चाह रहे हैं कि उन्हें इस गाँव में नौकरी करते हुए दस साल हो गए हैं। इसलिए सरकार उनका कभी भी तबादला कर उन्हें यहाँ से कभी भी हटा देगी। जबकि किताब में छपे वाक्य से ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सरकार उन्हें क्यों हटाएगी? इसलिए सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
'अगला मास्टर पता नहीं कैसा हो और मेरे तो वैसे भी यहाँ दस साल हो गए हैं, तो कभी भी सरकार मुझे यहाँ से हटा देगी।'
पेज नंबर 22 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'वे उससे सौदा पढ़ाने की जुगत करते'
यहाँ ग़ौरतलब है कि सौदा पढ़ाया नहीं बल्कि पटाया जाता है। इसलिए यहाँ 'वे उससे सौदा पढ़ाने की जुगत करते' की जगह 'वे उससे सौदा पटाने की जुगत करते' आएगा।
पेज नंबर 31 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'पाकिस्तान से टूट कर नए बने बांग्लादेश के लाखों लोग शरणार्थी बनकर देश पर वजन बन गए थे।
यहाँ 'देश पर वजन बन गए थे' की जगह 'देश पर बोझ बन गए थे' आएगा।
इस उपन्यास में एक जगह तथ्यात्मक रूप से ग़लती दिखाई दी।
** पेज नंबर 22 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'भगोना में दो ढाई किलो अनाज बनता था जबकि सेई में पाँच सेर याने के साढ़े सात किलोग्राम।
यहाँ पाँच सेर' का वजन 'साढ़े सात किलो किलोग्राम' याने के एक सेर का वज़न डेढ़ किलो बताया गया है जोकि तथ्यात्मक रूप से सही नहीं है। असलियत में 'एक सेर' में 933 ग्राम वज़न होता है।
किसान समस्याओं एवं दफ़्तरी दिक्कतों से जूझता यह बढ़िया उपन्यास मुझे यूँ तो लेखक की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 148 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है लिटिल बर्ड पब्लिकेशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 280/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए काफ़ी ज़्यादा है। किताब को ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक पहुँचाने के लिए ये ज़रूरी है कि लेखक और प्रकाशक किताब की कीमत कम रखें। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।