मुहब्बत क्या ऐसी होती? जो मैं देख रही हूँ।
या ऐसी, जो मै महसूस कर रही हूँ?
ऐसी मुहब्बत जो मेरे दिमाग़ को शील किये हुआ है। मेरी सोचने समझने कि ताक़त मुझसे छीन चुका है। मुझे महसूस होता है कि मै हर रोज़ बरबादी कि तरफ़ बढ़ रही हूँ। मेरा दिल कुछ चाहता है, दिमाग़ कुछ सोचता है और ज़ुबान कुछ कहती।
ख़ैर जो भी है। ये मैं हूँ, ये मेरी मुहब्बत और उस मुहब्बत में ये मेरा हाल।
"कहाँ खोई हुई हो रिदा? देखो तो उन दोनो को कितने खु़श नज़र आ रहे है।" किरन के कहने पे मैने अपनी सोचों से अपना पीछा छुड़ाया। देखना क्या था नज़रें तो कब से मेरी उन्हीं दोनो़ पे टिकि थी।
"हूँ....."मै बस इतना केह पायी थी और नज़रें उन दोनो से हटाकर ऐसे ही बिलावजह अपने बैग मै कुछ ढूँढने लगी।
मेरे ही टेबल पर मेरे सामने बैठे, हाथों मे हाथ डाले, वो "हँसों का जोड़ा" अपनी प्यार भरी बाते छोड़ अब मेरी तरफ़ मुत्व्वजोह हो गये।
मेरी हिम्मत नही हुई के मै नज़रे उठाकर उन दोनो की तरफ़ देखुँ।
"तुम ठीक तो हो रिदा?" ये सवाल उसने मुझसे नही पुछा था ब्लकि सर त पा मुझसे मेरे सब्र की क़ूव्वत छीन ली थी। अगर मैं वहा एक मिनट भी और रूकती तो शायद मेरे लिये वहा क़यामत आ जाती।
इसलिए मैं वहॉ से जाने को थी के रयान ने मेरा हाथ पकड़ लिया।
"रिदा...." वही अवाज़, वही अन्दाज़ और वही नाम। उसके नर्म हाथो का लम्स मैने अपने दिल पर मेहसूस किया। दिल ने चाहा के ये लम्हें यही थम जाये मगर ऐसा हो ना सका। लाख कोशिशों के बावुजूद दो क़तरे आखों से दामन का फ़ासला तय कर चुके थे।
मैने अपना हाथ छुड़ाया कन्धों पे बैग सम्भाला टेबल पे अपने पॉचों दोस्तों को छोड़ न सिर्फ़ कैफ़िटेरिया ब्लकि कॉलेज से भी निकलती चली गई।
सामने खड़ी टैक्सी मे बैठी, अपना पता दिया और फिर बेअवाज़ अपने दिल का ग़ुबार निकालती चली गयी।
ना जाने कितनी कौल मेरी सेल पे आई मगर मुझमे इतनी हिम्मत नही थी के देख पाती।
ना चाहते हुऐ भी घर पहुँचते ही मेरा सामना अम्मी से हुआ, वो मेरा लाल चेहरा और आँखें देखकर डर गई। उन्हे लगा मेरा एग्ज़ैम ख़राब गया है।
"आज कॉलेज का आख़री दिन था ना इसिलऐ" मै इतना कहकर अपने रूम को भागी।
कल सुबह हम भोपाल के लिये निकल रहे थे क्योंकि एक हफ़ते बाद मेरी शादी थी।
शादी का फ़ैसला मेरा अपना था। दुनिया का हर इन्सान शादी नाम कि शैय से कुछ ना कुछ हासिल करना चाहता है। मैने भी इस शादी से फ़रार हासिल करना चाही है......फ़रार अपनी मुहब्बत से। ये मै जानती थी। मेरे घर वाले तो ये समझते थे कि ये मेरी दूरनदेशी है अपने लिए और अपने से जुड़े लोगों कि बेहतरी के लिए।
सूहेल उन लोगो मे से थे जो अपनी पूरी जवानी पैसा कमाने के जुनून मे गवा देते है और उन्हे शादी का ख़्याल तब आता है जब उन्हे अपनी ज़िन्दगी जीवनसाथी नाम की तबदीली चाहिये होती है।
सुहेल और मेरी उम्र मे पन्द्राह साल का फ़र्क था लेकिन मुझे मनज़ूर था क्योंकि सुहेल के आगे पिछे कोई नही ब्लकि बहुत सारी दौलत थी। वो दौलत जो मेरी मॉ और दो छोटी बहनों का फ़्युचर सिक्योर कर सकती। ऐसा नही था के हम बहुत ग़रीब थे। मगर बात ये थी के ज़िन्दगी मे हर कोई बढ़ना चाहता है। मै भी।.... इसलिए एक साल पहले रयान कि प्रापोज़ल को ठुकराया था मैने।
उसकी हालत और कन्धों पर ज़िम्मेदरियाँ मेरे ही जैसी थी इसलिए कभी उसे इस नज़र से नही देखा अगर उसके पास सुहेल जैसा कुछ होता तो शायद मै देखने पर मजबूर हो जाती।
मगर इन तीन महीनों से जाने मुझे क्या हो गया था ना सिर्फ़ उससे ब्लकि उसकी मुफ़लिसी से भी मुहब्बत हो गयी थी। मगर वो बदल गया था। यक़ीन नही होता मुहब्बत भी कभी इतनी जलदी अपना रंग खोती है? मुहब्बत ना सही अब तो जैसे दोस्ती भी कही गुम हो गयी थी।
सेलफ़ोन कि रिन्ग ने मेरी सोच के तसलसुल को तोड़ा।
रयान की कौल थी।मैने कौल डिसक्नैक्ट करके सिव्चट औफ़ किया और फ़ोन को अलमारी मे कैद कर दिया।
(एक महीने बाद)
इतने दिनों बाद आज फिर मैं अपने शहर अपने घर लौटी हूँ और मुझे हर तरफ़ ख़ुशी के बजाय ग़ूबार सी महसुस हो रही है। या फिर ये शायद मेरे अन्दर का गु़बार है जिसे अब तक रिहाई नही मिली।
इस ग़ुबार को निकालना था। मै थक गयी थी इसका बोझ उठा उठाकर। मैने अलमारी से अपना सेलफ़ोन निकाला जिसे मै यही छोड़कर चली गयी थी।
फ़ोन औन करते ही 117 मिस्ड कौल बरामद हुए जिसमे से 93 रयान के थे।
233 एस. एम. एस.। मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगा। डेटा औन करते ही बेशुमार मेसेज्स।
"रिदा तुम रो क्यो रही थी?"
"रिदा तुमने फ़ोन क्यो औफ़ कर रखा है?"
"रिदा मै तुम्हारे घर आया था,तुम कहा थी? तुम्हारा घर बन्द था।"
"आज फ़िर तुम्हारे घर गया था आज भी बन्द था।"
"एक आनटी ने बताया शादी मे गयी हो, मगर किसकी?"
"वो तो केह रही थी तुम्हारी शादी है। सच मे सुनकर हँसी आ गयी।"
"तुम्हारा फ़ोन चोरी हो गया है क्या? या तुम ख़ुद कही गुम हो गयी हो?"
"रिदा प्लिज़ मुझे बतओ तुम कहॉ हो? मै तुम से बहुत मुहब्बत करता हूँ। तुम्हारे बग़ैर जीना मुश्किल हो गया है।"
"मै और ज़िया नाटक कर रहे थे तुम्हे जलाने के लिये। यक़ीन नही आता तो पुरे ग्रुप से पुछ लो।"
मै इसके आगे पढ़ नही सकी क्योंकि फ़ोन मेरे हाथ से छूटकर फ़र्श पर बिखर चुका था बिलकुल मेरी शख़्सियत की तरह मेरे वुजूद की तरह जो फ़र्श पर ढेहता चला जा रहा था।
हर बार फ़रार आज़दी नही दिलाती, अगर रस्ता ग़लत चुन लिया जाए तो पिछे ज़िन्दगी भर का मलाल रेह जाता है।