5
हाथ पैर धोने के बाद वही पर सब चाय का आस्वाद लेने लगे। हमारा आज का ठहराव यही पर था। बाद में नदी किनारे घुमते, ताजी हवाओं का आनन्द उठाते, मन की लहरे उमड़ रही थी। अगर आपका मन बहते पानी में एक क्षण के लिए भी एकाग्र हो ज़ाए तो वह साधना का दीर्घ कालावधी बन जाता हैं। पृथ्वीतल के समयसारिणी का क्षण, अंतराल में बडा समय होता हैं। इसलिए एक क्षणमात्र आप भगवान के सामने पूर्णरूपसे नतमस्तक होते हैं तो आपके भाग्य के कितने सारे व्दार खुल सकते हैं। एकाग्रता में विचारहीनता होती हैं और जहाँ विचारहीनता, वही मुक्ती का मार्ग खोल देती हैं।
वातावरण की नीरवता और तीव्र होने लगी। इतना घना अंधेरा कभी देखने की आदत शहरके लोगों को नही होती हैं। अपने अपने कमरे की ओर सब जाने लगे। हॉटेल साफ सुथरा और सुंदर था। बडी बडी काँच की खिड़कीयों से बाहर का सौंदर्य पूर्ण रूप से प्रतिबिंबित हो रहा था। ऐसा लगा जैसे हम भी उसी नज़ारे का एक हिस्सा हैं। नदी की बहती धारा अब कृष्णवर्ण हो गई। उसके किनारे की हरी मखमल चाँदनी रात के इंतज़ार में हवाँ से इधर उधर झुमने लगे। ऐसी नैसर्गिक सुंदरता में किसका मन खो नही ज़ाएगा ?
खाना खाने के बाद थोडी देर गपशप करते रहे। दिनभर की सफर से नींद भी आने लगी थी। तभी हमारे समन्वयक मि.पुरीजी का बुलावा आ गया। यह हमारी पहिली मिटींग थी।यह सिलसिला रोज रात चलने वाला था। इस में दुसरे दिन का क्रम, विशेषताएँ, तैयारी, सावधानता आदी विषयों पर चर्चा होती हैं। आधे घंटे बाद सब लोग सोने के लिए चले गए।
दुसरे दिन सुबह” चाय “इस आवाज से ही नींद खुल गई। स्त्री के लिए ऐसे शब्द अजनबी लगते हैं क्यों की इस शब्द का इस्तमाल वह दुसरों के लिए करती हैं। चाय इस शब्द से ही मन में एक सुकूनसा छा जाता हैं।
पहाडों के पिछे आसमान में लालिमा छा गई। भोर के समय का वह अबुजसा नीरव वातावरण मंत्रमुग्ध कर रहा था। चाय की चुसकियाँ लेते लेते मेरे लिए वातावरण का आनन्द और बढने लगा। बाकी लोगों की हँसते खेलते सफर की तयारी चालू हो गई थी, मुझे ऐसे आराम से बैठे दखकर सब चिढाने लगे, तो मुझे भी उस वातावरण की दुनिया से वास्तविकता में आना पड़ा। तैयार होकर हम सब नाश्ते के लिए हॉल में आ गये। नाश्ते में आलू परोठे थे। अब ध्यान में आ गया की यहाँ से आलू ही तरह तरह रूप में खाने पड़ेंगे। शहरी सुविधा अभाव के कारण अन्न सामुग्री की कमतरता रहती हैं। पहाडी आलू यहाँ पर आसानी से बोए ज़ाते हैं। इसिलिए पहाडी लोगें के आहार में आलू प्रथम मात्रा में दिखाई देता हैं। आलू परोठे के साथ दही, अचार परोसा गया। यहाँ पर बांस के पौधे का अचार बनाते हैं, जरा अलगसा लगा, लेकिन अच्छा लगा। सामान लेकर सब गाडी में बैठ गए।
शिवजी की धून में गाडी निकल पडी। अचानक घाटी और पहाडों से पुरब दिशा की ओर केसरिया रंग का सूर्यबिंब उपर आ गया। सूर्य उदय से ही मानो सृष्टी में चारों ओर उर्जा का भंडार खुल गया। सब सृष्टी चैतन्यमय हो गई। ऐसे चैतन्यमय नज़ारों में एक तो निःस्तब्धता आती हैं, नही तो प्रभू का गुणगान चालू हो जाता हैं। कौनसी स्थिती आए वह हर व्यक्ति के अपने व्यक्तिमत्व पर निर्भर होता हैं लेकिन जहाँ सामूहिक उर्जा होती हैं वहाँ शब्द ही काम करते हैं। भीड़ में भी अकेला रहने वाला व्यक्ति अंर्तमुखी होता हैं। सामूहिक उर्जा ने अपना काम चालू किया। प्रभू के भजन चालू हो गए। भक्ती भावसे भरे गीतों में श्रध्दा की लहरे उमड़ने लगी।
गाडी धारचूला गाँव की तरफ आगे बढ रही थी। यह सफर 165 कि.मी.का और सब रास्ता घाटीयोंसे मोड़ लेते लेते गुजर रहा था।
धारचूला यह गाँव उत्तर प्रदेश के पिथोरागड़ जिले में आता हैं। इस गाँव की यह खासियत हैं की, भारत नेपाल की सीमा तटपर, काली गंगा नदी किनारे बसाँ हुआ हैं। और यह गाँव कैलाश मानसरोवर यात्रा का बेसकँप के नाम से ज़ाना जाता हैं। मनुष्यवस्ती, बाज़ारपेठ, व्यवसाय, और यातायात की सुविधा का यह आखरी पड़ाव हैं। बरसों पहेले यही से पैदल चलना चालू हो जाता था। लेकिन अभी भारत सरकार की नियोजन से बहुत सुविधाजनक यात्रा मार्ग तैयार हो गया हैं।
गाडी की गती और मन की गती कही मेल नही खा रही थी। उत्सूकता से भरा मन कल्पना के साथ पहिले ही आगे निकल चूका था। शरीर गाडी के गती में झुम रहा था। शरीर और मन एक साथ जो क्षण अनुभव करते हैं वह क्षण चिरंतन हो ज़ाते हैं। जीवन में ऐसी स्थिती बहुत कम समय के लिए आती हैं। हर बार हमारा शरीर कही पर होता हैं और मन कही पर। प्रभू के स्मरण में रहो या पिक्चर जैसे मनोरंजक स्थान पर, पल भर के बाद मन दुसरी जगह पर चक्कर लगाकर फिर शरीर जिस स्थान पर हैं वहाँ लौटता हैं और वही श्रृंखला चलती रहती हैं। हमे लगता हैं हम तो भजन में बैठे हैं, देख रहे हैं, सून रहे हैं लेकिन जब तक उस स्थिती में मन साथ नही होगा, तो हम देखकर भी कुछ नही देख सकते। उसका आकलन अंदर तक हो नही सकता। आकलन शक्ती का वह एक स्त्रोत हैं। कितनी बार हमारे साथ यह होता हैं की सामने से पहचान की व्यक्ति गुजरती हैं और हम अपने विचार में ऐसेही आगे चले ज़ाते हैं। आँखों ने उस व्यक्ति को देखा हैं, मन जब अपने स्थान पर लौटता हैं तो आँखों देखा चित्र का आकलन होता हैं और हम यह सोचते हैं अरे, मेरा तो उनकी तरफ ध्यान ही नही गया, अब वह मेरे बारे में क्या सोचेगा ?
दिनभर कितनी सारी घटनाएँ ऐसी छूट ज़ाती हैं और रात में मन की भागदौड़ कम होते ही, अर्धचेतन मन ने ग्रहण की हुई घटनाएँ याद आने लगती हैं। अब एहसास होने लगता हैं क्या छूट गया। अभी शरीर स्थिरता से लेटा हुआ हैं, और मन दिनक्रम में लोट पलोट कर रहा हैं। ऐसेही क्षण बीतते ज़ाते हैं। क्षणों की माला महिने, साल, पूरे करते करते जीवन में बदल ज़ाती हैं। बुढापे में व्यक्ति का शरीर अब पूरा स्थिर होने लगता हैं और मन बिताएँ हुए पुरे जीवन में घुमता रहता हैं लेकिन यह मनुष्य जन्म का सार नही हैं। मनुष्य जन्म तो बडे उदात्त भाव का संकरण हैं। जन्म लेते हुए भी उसे अजन्मा जन्म माने मुक्ती की तयारी करनी हैं। हर जन्म में थोडा थोडा आगे बढ गये तो भी कितनी सारी सिढीयाँ यही पर खत्म हो ज़ाएगी, इसलिए सिर्फ एकही आसान तरीका हैं जो भी कर्म करो तो अपने मन को साथ रखने का प्रयास करो।
अरे, पर मेरा मन तो ईश्वर की अंतर्गत रचना के मन सदृश्य में था और आँखे देख रही थी पहाड़, घने जंगल, बादल, पंछी, फुलों की विविधता सुरज की किरणे। मन क्या सोच रहा था उसका तो आकलन हो गया पर आँखो ने जो देखा उस में पहाडों की गंभीरता, घने जंगलों की शांती, फुलों का सुगंध, धूप की हलकीसी गर्मी, पंछीयों की आसमान में उडान भरने की स्थिती, लय यह सब महसूस नही कर पाई।
धीरे धीरे गाडी आगे बढ रही थी। अभी भुख लगने लगी। एक एक ने अपने बॅग में रखी खाने की चीजे बाहर निकालना चालू किया। खाने के बाद नींद आना तो स्वाभाविक बात हैं। झपकियाँ चालू हो गई। थोडी देर बाद किसी के आवाज से नींद खुल गई। उसके इशारे की तरफ देखते ही मैं अपना होश खो बैठी। क्षितिज के उपर बर्फाच्छादित पर्वतों की चोटीयाँ दिख रही थी। उनके दर्शन से ही एक अलग दुनिया में कदम रखने का एहसास हुआ। पुरीजी ने बताया यह नंदा देवीजी की चोटी हैं। वह नज़ारा पूर्ण रूप से देख सके इसलिए चकोरी गेस्ट हाऊस के पास एक मिनार बंधवाया हैं। वहाँ से विविध बर्फाच्छादित पर्वत श्रृंखला का नज़ारा भी दिखता हैं। अब सबकी नजरे उसी नज़ारे को देखने के लिए उत्साहित हो गई। सबके चेहरे पर जो भाव उत्पन्न हो गये थे वह देखने में भी मुझे मज़ा आ रहा था। स्थूल रूप से सुक्ष्मता की ओर का सफर। निसर्ग स्थूल रूप लेकिन वहाँ जो शांती महसूस होती हैं वह सुक्ष्म रूप, देखनेवाला स्थूल रूप लेकिन देखने के बाद मन में जो भाव आते हैं वह सुक्ष्म रूप। ऐसे निसर्ग और मानव एकरूप होने लगते हैं तो ईश्वरी अनुभूती का रास्ता खुल जाता हैं। तंद्रा में ही गाडी चकोरी में कब पहूँची पताही नही चला।
(क्रमशः)