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“कितना काम करेगी तू मां? देख, मैं आ गई हूँ! चल, तू हट और जाकर आराम कर ! अब जबतक मैं ससुराल वापस न चली जाऊं, तुझे चुल्हे- चौंके और घर का किसी काम के लिए चिंता करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं!”- मायके पहुंची अभिलाषा ने अपनी मां से लाड़ लगाते हुए कहा जो रसोई में चुल्हे- चौंके में व्यस्त थी। चेहरे पर मुस्कान लिए अभिलाषा और विजेंद्र् रसोई के दरवाजे पर खड़े श्यामा को निहारते रहे। साड़ी के पल्लू से अपने गीले हाथ साफ करती हुई श्यामा रसोई से बाहर आयी।
“अरे, तुमलोग अचानक? सब ठीक तो है न!”- अचानक से बेटी- दामाद को घर पर पाकर श्यामा ने उनसे पुछा।
“क्यूं?? बिना बताए मायके में आने की बेटियों को मनाही है क्या!! ऐसा कुछ है तो फिर मैं चली जाती हूँ!”- शिकायत भरे अंदाज में अभिलाषा ने मुस्कुराकर कहा और अपनी मां के गले लग गई।
“ओह...इनका कहने का वो मतलब थोड़े ही न था! तुम तो हमेशा बातों का गलत मतलब निकाल लेती हो!”- श्यामा का पक्ष लेते हुए विजेंद्र ने कहा और आगे बढ़कर उसके चरणस्पर्श किए।
विजेंद्र की चोर नज़रें श्यामा की काया को निहारती रही जो अस्त होने के बजाय दिन ब दिन निखरते ही जा रहे थे। पर उसे कहाँ पता था कि उसकी कुदृष्टि को श्यामा की नज़रों ने भांप लिया है। वैसे भी स्त्रियों को इश्वर ने एक छटी इंद्री दे रखी है जिसे मर्दों की कुदृष्टि का आभाष सहज ही हो जाता है।
“जमाई बाबू,आप बैठिए! मैं अभी आपलोगों के लिए जल लेकर आयी!”- अपनी उभरी काया को वस्त्रो से ढंकने का प्रयास करती हुई श्यामा ने कहा। हालांकि बड़ी मुश्किल से उसने अपने नज़रों को विजेंद्र के बलशाली शरीर से परे कर रखा था।
बिना रुके वह पलटी और रसोई में जाकर खुद को कामों में उलझाने का प्रयत्न करती रही। पर अभिलाषा ने उसे घर के किसी काम को हाथ न लगाने दिया।
विजेंद्र भी भीतर कमरे में मौजुद अपने ससुर मनोहर के पास चला गया जहाँ वे दोनों घंटों बतियाते रहे। सबके लिए गुड़ का शरबत लेकर अभिलाषा भी वहीं आकर बैठ गई और मां को भी वहीं सबके बीच बुलाकर बिठा लिया। न चाहते हुए भी श्यामा अपनी बेटी की बातों को टाल न सकी। हालांकि वहां मौजुद विजेंद्र ने श्यामा की उलझन को ताड़ लिया। बड़ी चपलता से उसने फिर पूरे माहौल को सम्भाला जिससे श्यामा भी खुद को सहज महसूस करने लगी।
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“सुलोचना, जरा यहाँ आना!”- अपनी सास के पांव दबाती सुलोचना को आवाज लगाकर विनयधर ने बुलाया। दिन भर इस गांव से उस गांव भटकता हुआ कपड़े बेचकर वह अभी-अभी घर लौटा था। बेटे द्वारा बहु को लगाई आवाज कानों में पड़ते ही बुढ़ी मां आभा की भौवे तन गई।
“जमाना कितना बदल गया है आजकल! एक हमारा वक़्त था! मजाल था कि मां-बाप के सामने अपनी पत्नी को यूं बेशर्मों की तरह आवाज देकर बुला ले!”- सुलोचना की तरफ वितृष्णा भाव से देखते हुए आभा ने कहा।
“नहीं मां, ऐसी बात नहीं है! दरअसल अभी-अभी काम से लौटकर आए हैं न! कोई जरुरत काम आन पड़ी होगी! इसिलिए आवाज देकर बुला लिया!”- झिझकते हुए सुलोचना ने कहा।
“हाँ...हाँ! ठीक है, ठीक है! सब पता है मुझे तुमदोनों के चोचले! ज्यादा चालाक बनने की कोशिश मत कर!!” – अपने पैरों को सुलोचना से परे करते हुए बुढ़ी आभा ने कहा।
“मां, मैं..... जाऊं!”- सुलोचना ने धीरे से कहा।
“हाँ...हाँ, महारानी!! नहीं जाएगी तो पति से बोलकर शिकायत नहीं लगाएगी मेरी!! जा अब…मर जाकर! देख क्या बोलता है??” – सुलोचना की सास ने कहा और मुंह फेरकर अपनी आंखें बंद कर ली। सुलोचना ने उसकी बातों का कोई जवाब नहीं दिया और उठकर अपने कमरे की तरफ बढ़ गई।
“जरा देखो तो...ये साड़ी तुम्हे पसंद है!”- कमरे में प्रवेश करते ही विनयधर ने सुलोचना के कहा और साड़ियों के गट्ठर में से एक खुबसुरत साड़ी निकालकर सामने बिस्तर पर रख दिया।
“सच में...बड़ी सुंदर साड़ी है! पर....महंगी मालूम पड़ती है? इसे ग्राहकों के लिए रखने के बजाय आप मुझे देकर अपना नुकसान नहीं कर रहे?” – साड़ी पर किए बारीक कारीगरी पर हाथ फिराते हुए सुलोचना ने कहा।
“तू वो सब छोड़! तुझे पसंद है तो रख ले! मेरे पास दो थे! एक तो बिक गए और दूजा मैने तेरे लिए बचाकर रखा है! जरा पहन कर दिखा कैसा लगता है तुझपर!”- विनयधर ने सुलोचना से कहा।
“अच्छा....पहन लूंगी! आप थके-मांदे आए हो! पहले कुछ खा लो। मैं कुछ जलपान लेकर आती हूँ!”- सुलोचना ने कहा और कमरे से बाहर जाने लगी। मगर तभी विनयधर ने उसे बाहों से पकड़कर अपनी तरफ खींच लिया।
“ओह..क्या कर रहे हैं आप! मां जी देख लेंगी तो क्या कहेंगी!”- खुद को विनयधर की बाहों से दूर करने का असफल प्रयास करते हुए सुलोचना ने कहा।
“कोई नहीं देखेगा! मां अपने कमरे में लेटी है! और अपनी बीवी के साथ प्रेम करना कोई गुनाह है क्या!”- सुलोचना के चेहरे को अपने सामने लाकर विनयधर ने मुस्कुराते हुए कहा।
“मुझे शर्म आ रही है! ये आज क्या हो गया है आपको!”- सुलोचना ने झेंपते हुए कहा।…
... “अब तुम न....यूं बातें न बनाओ! चलो, जल्दी से मुझे ये साड़ी पहनकर दिखाओ!”- खिले चेहरे से विनयधर ने कहा तो सुलोचना उसकी बातों को टाल न सकी।
“ठीक है दिखाती हूँ! पर पहले आप कमरे से बाहर जाओ! तभी तो इसे पहन पाउंगी!”- पलंग पर रखी साड़ी को उठाते हुए सुलोचना ने कहा।
“क्यूं?? पति हूँ तुम्हारा! मेरे सामने पहनो!”- विनयधर ने कहा और दबी हुई मुस्कान चेहरे पर बिखर आयी।
“क्या......??? छी...!!! कपड़े बदलूं, वो भी आपके सामने!! मुझे शर्म नहीं आएगी?? चलिए...बाहर जाइए आप! फिर अभी घर के ढेर सारे काम भी बाकी पड़े हैं!” – सुलोचना ने कहा और विनयधर का हाथ पकड़कर उसे कमरे से बाहर कर भीतर से किबाड़ लगा लिया।
थोड़ी ही देर में किबाड़ खुली और अपना सिर नीचे किए सुलोचना शरमाती हुई खड़ी थी जो विनयधर की लायी साड़ी में बला की खुबसुरत लग रही थी। उसे देख विनयधर की आंखें भी चमक उठी। सुलोचना पर नज़रें टिकाए वह उसकी तरफ बढ़ने लगा। उसे यूं अपनी तरफ बढ़ते देख सुलोचना का दिल जोरों से धड़कने लगा था।....