सोई तकदीर की मलिकाएँ
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चार महीने तक पूरे देश में अफरा तफरी का माहौल रहा । लोग जत्थे के जत्थे पाकिस्तान से आते रहे । फौज के जवान वहाँ फँसे लोगों को मिल्ट्री ट्रक में भर भर कर देश में ला रहे थे । हर बङे शहर में शरणार्थी शिविर लगे थे जहाँ इन्हें रखा जा रहा था । सरकार जी जान से इन विस्थापित लोगों की मदद के लिए जुटी थी । लोग रो रहे थे । बिलख रहे थे । अपनी जमीन और जङों से बिछुङे इन लोगों को नये सिरे से बसाना बहुत बङी समस्या थी । इन लोगों के पास जीने के लिए मूलभूत आवश्यक वस्तुओं का भी अभाव था । जीने की तमन्ना खत्म हो चुकी थी । ऊपर से जिन लोगों के स्वजन इस भाग दौङ में बिछुङ गये थे , उन्हें ढूंढ निकालना अलग एक समस्या थी ।
वक्त सबसे बङा डाक्टर है । बङे से बङे जख्म को आसानी से भरता चलता है । दो चार महीने लगे फिर धीरे धीरे हालात कुछ संभले । इन उजङ कर आये लोगों ने गजब का जीवट दिखाया और अपने और परिवार का भरण पोषण करने के लिए कोई छोटा मोटा काम तलाश कर लिया । तब भी ये लोग अधिकारियों से अपने बिछुङे लोगों के बारे में पूछने एक बार अवश्य जाते । अब सरकार ने इस दिशा में भी कदम उठाया । पुलिस और फौज को काम मिला उठाई गयी या पीछे छूट गयी लङकियों को ढूँढ ढूंढ कर पाकिस्तान भेजना । इसके लिए वे शहर की गली गली , गाँवों के घर घर जाते । पूछताछ करते । कहीं किसी घर में कोई औरत या लङकी मिल जाती तो उसे साथ ले जाते और ले जाकर कागज पूरे करते । फिर पाकिस्तान के सिपाहियों के हवाले कर देते ।
पाकिस्तान से भी औरतें ढूढ कर लाई जाने लगी । पाकिस्तान के लोगों के घरों में जतन से छिपाकर रखी गयी हिंदु औरतों को खोजा जाने लगा । इन औरतों को इनके घर वालों को सौंपा जाने लगा । पाकिस्तान में तो इन हिंदु , सिक्ख औरतों की दुर्गति थी ही । हिंदुस्तान आकर भी इनकी हालात में कोई सुधार नहीं हुआ । इनके परिवारों को खोजना बहुत मुश्किल था । कई दिन भटकने के बाद किसी किसी औरत का परिवार किसी शरणार्थी शिविर में मिल भी जाता तो वे इन्हें पहचानने से इंकार कर देते । भला पाकिस्तान में दो तीन महीने किसी मुसलमान के घर रह कर आई औरत से इनका क्या रिश्ता हो सकता था । फिर इन में से ज्यादातर औरतें गैंगरेप का शिकार हुई थी । अब ऐसी औरत को अपने साथ रख कर उन्होंने अपने धर्म को मुंह कैसे दिखाना हुआ । समाज क्या कहेगा और दुनिया में मुँह कैसे दिखाएंगे का सवाल हर मोह पर भारी पङ रहा था । औरत की सामाजिक सुरक्षा से अधिक लोगों को समाज और समाज के तानों की चिंता थी । तो ये सारी औरतें दलालों के हत्थे चढ कर कोठों पर पहुँच गयी और एक मजबूर जिंदगी जीने को विवश हो गयी । कईयों नें इस नरक से बगावत करते हुए खुदकुशी कर ली । अजीब सा माहौल हो गया था दोनों देशों का । धर्मांधता की सबसे बङी कीमत औरतों को चुकानी पङी थी । दीन और दुनिया इन दोनों जहान से गयी इन औरतों का न कोई रिश्तेदार था न धर्म । बस एक ही पहचान थी इनका जिस्म ।
फिर एक दिन प्रधानमंत्री ने ऐलान कर दिया – अब और खोजबीन नहीं होगी । जो औरत जहाँ है , वहीं रहेगी । हाँ जो लोग अपने घरवालों को खोजना चाहते हैं या जो औरतें अपने रिश्तेदारों के पास जाना चाहती है , वे दरख्वास्त दे सकती हैं । उनकी अर्जी पर तुरंत कार्यवाही होगी ।
बेबे ने केसर को बुलाया – सुन लङकी तेरा कोई रिश्तेदार है क्या जिसके पास तुझे जाना हो ।
केसर ने सिर हिला दिया । वह तो किसी रिश्तेदार को जानती ही नहीं थी । कभी वे किसी रिश्तेदारी में गये ही नहीं । अगर कोई रिश्तेदार उसे अचानक मिल भी जाए तो वह उसे पहचान ही नहीं पाएगी ।
तेरा बाबा क्या करता था ?
गाय भैंसें चराता था । घर में भी एक गाय और तीन बछिया बंधी थी । अम्मी और मैं उन्हें संभालते थे ।
अच्छा तभी तुझे गाय भैंसों का सारा काम आता है । वैसे कौन जाति हो ?
घोसी ।( एक जाति जो लवेरे पशुओं को पालने , बेचने और दूध बेचने का काम करती है )
ठीक ।
जा अब ,कपङे धो ले ।
केसर चुपचाप अपने काम में व्यस्त हो गयी । अगले दिन सुबह ही बेबे उसे अपने साथ गुरद्वारे ले गयी । वहाँ माथा टिकाया । भाई जी ने गुरबाणी से तुक पढी और केसर उस दिन से पक्की सिक्खनी हो गयी ।
हाँ रहना उसे वही कोठरी में ही था । सुबह शाम उसे दो रोटी पर सब्जी की फाङी के साथ लस्सी या दूध मिल जाता । नहा वह कपङे धोने वाले साबुन से ही लेती । बसंत कौर ने उसे दो सूट सिलवा दिये थे । उनमें से एक सूट वह पहन लेती , दूसरा धोकर रस्सी पर सूखने डाल देती ।
सब ठीक ही चल रहा था कि एक दिन बेबे ने सुबह सुबह केसर को नाली पर उल्टियाँ करते हुए देखा ।
ए कुङिये , क्या हुआ ।
केसर ने दुपट्टे के छोर से मुँह पोंछते हुए कहा – जी कच्चा कच्चा हो रहा है बेबे । कल भी तीन चार उल्टी हुई थी ।
परसों रात ... परसों रात तो तूने मूंग धुली के साथ दो फुल्के खाए थे । वह तो बङी हल्की होती है । उससे तुझे उल्टी कैसे लग गयी ।
केसर बिल्कुल निढाल हो गयी थी । वह जमीन पर ही लेट गयी ।
ए केसर , इस बार कपङे आए थे या नहीं ?
केसर कुछ नहीं बोली ।
बेबे ने फिर पूछा – मरजानिए , मैं कुछ पूछ रही हूँ । तुझे कपङे हुए या नहीं ?
केसर उठ कर बैठ गयी । उसने घुटनों में सिर छिपा लिया – नहीं बेबे ।
और पिछली बार ?
उं हूँ ।
हाय मैं मर जाऊ , क्या गेजा ?
केसर सुनते ही तङप उठी । उसने सिर ऊपर उठाया और तमक कर बोली – गेजा मेरा मुँहबोला भाई है । बहन कहता है वो मुझे बेबे ।
और कौन आता है यहाँ हवेली में । सच सच बता किसका है यह ?
सरदार जी ... का ...।
क्या बोल रही है तू लङकी । जानती है तू क्या बक रही है ?
तब तक बसंत कौर उनके पास आ गयी थी ।
यह ठीक कह रही है बेबे । तेरा बेटा हफ्ते में तीसरे चौथे दिन आधी रात को उठ कर इसकी कोठरी में गया होता है । जब उसे लगता है कि मैं सो गयी तो धीरे से उठकर चप्पल पहनता है और सीढी उतर जाता है । तीन साढे तीन बजते बजते वापिस लौट कर सो जाता है ।
हाय मैं मर जाऊँ । तुझे ये सब पता था और तू चुपचाप यह सब देखती रही । तूने मना क्यों नहीं किया । और नहीं कर सकती थी तो मुझे ही बताया होता ।
उससे क्या होता बेबे । जबरदस्ती किसी को रोका जा सकता है क्या ?
बेबे सिर थाम कर रह गयी ।
बाकी फिर ...